भारतीय खेलों पर निठल्लों का राज
श्रीप्रकाश शुक्ला
ग्वालियर। खेल में सिर्फ हुनर ही काम आता है। हुनर जन्मजात नहीं होता, उसे बड़ी लगन और साधना से कमाना पड़ता है। देखा जाए तो भारत में खेलों का बुनियादी ढांचा छिन्न-भिन्न है। खिलाड़ियों पर खर्च किए जाने वाला पैसा खेलनहारों की आराम-तलबी में खर्च हो रहा है। भारत में खेलों की दुर्दशा के लिए सरकार से अधिक खेल संस्थाओं के पदाधिकारी कसूरवार हैं। भारत में खेलों से जुड़ी नियामक संस्थाओं के पदाधिकारियों तथा सरकारी नौकरशाही का छल और छद्म खिलाड़ियों की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है। खेल संघों के कामकाज और खिलाड़ियों के चयन में भ्रष्टाचार, भेदभाव, साजिशें, भाई-भतीजावाद, शोषण जैसे दोष नयी बातें नहीं हैं, बल्कि ये चीजें परिपाटी की शक्ल ले चुकी हैं।
खेलों में हो रहा भ्रष्टाचार सवा अरब लोगों को मुंह चिढ़ाता है। पर्याप्त पोषण, प्रशिक्षण, उपकरण और फिर निरंतर कठिन होते मुकाबले में आगे रखने के लिए जरूरी कोचिंग के अभाव से जूझ कर कोई खिलाड़ी अपना काबिलियत साबित करता है, तो भी उसे क्षेत्र, धर्म, जाति, लिंग के आधार पर होने वाले छुपे-ढंके भेदभावों से हर रोज टकराना पड़ता है। खेलों की नौकरशाही के अलिखित नियमों से बहुत हद तक उसका भाग्य और पदक तालिका में देश का स्थान तय होता है। खेल संघों के नेतृत्व पर नेताओं और सेवानिवृत नौकरशाहों का कब्जा है। उन्हीं की पसंद के प्रशिक्षक और प्रबंधक खेलों का भविष्य तय करते हैं। चूंकि खेल हमारे सार्वजनिक विमर्श में प्राथमिकता नहीं रखते, इसलिए इन बातों पर गंभीरता से चर्चा भी नहीं होती। स्वायत्तता के नाम पर खेल जगत का दारोमदार गैरजिम्मेवार हाथों में है और उनसे किसी तरह की जवाबदेही भी नहीं मांगी जाती।
जरूरत इस बात की है कि खेलों के बेहतर प्रबंधन और अच्छे खिलाड़ियों को तैयार करने का जिम्मा पेशेवर और सक्षम खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों को दिया जाये, ताकि वैश्विक स्तर पर हमारी प्रतिभाओं को आत्मविश्वास के साथ अपने दम-खम का जौहर दिखाने का समुचित मौका मिल सके और देश का नाम रोशन हो। सरकार ही खेलों का समुन्नत विकास नहीं कर सकती, इसके लिए समाज को भी नेक-नीयत रखनी होगी। सच कहें तो भारतीय खेलों पर निठल्लों का राज है। सरकारी पैसा खिलाड़ियों पर खर्च न होकर खेल पदाधिकारियों के बीवी-बच्चों को खुश रखने में खर्च हो रहा है। खिलाड़ी तो सिर्फ 10-20 रुपयों के मेडल के लिए दिन-रात पसीना बहाते हैं।