मुकेश कुमार सब्बरवाल को सोते-जगते फुटबॉल की फिक्र

मऊ में क्रीड़ा अधिकारी के पद पर तैनात

सब्बरवाल ने देश को दिए चार इंटरनेशनल खिलाड़ी

मनीषा शुक्ला

कानपुर। दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेलों में फुटबॉल का शुमार है। इसका अंदाजा फीफा के 208 सदस्य देशों की संख्या को देखकर सहज ही लगाया जा सकता है। भारत के तथाकथित लोकप्रिय राष्ट्रीय खेल क्रिकेट से अगर इसकी तुलना की जाए तो यह खेल सॉकर से काफी पीछे है क्योंकि आईसीसी में पूर्ण सदस्य देशों की गिनती बमुश्किल एक दर्जन ही है। भारत का इस खेल में बेशक दबदबा न हो लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जो सोते-जगते इस खेल की बेहतरी के बारे में ही सोचते हैं। ऐसे ही लोगों में मऊ में क्रीड़ा अधिकारी के पद पर तैनात मुकेश कुमार सब्बरवाल का नाम शामिल है।

फुटबॉल की जहां तक बात है कोलकाता को पहले इस खेल का मक्का कहा जाता था लेकिन अब यह खेल केरल और गोवा में भी अपने पैर पसारने लगा है। उत्तर प्रदेश में भी यह खेल अपने पैर जमाए इसके लिए मुकेश कुमार सब्बरवाल जैसे लोग प्राणपण से जुटे हुए हैं। अगर भारतीय फुटबॉल के इतिहास को देखा जाए तो 1950 और 1960 के दशक में भारत का विश्व फुटबॉल में अपना मुकाम था और उसे 1950 विश्व कप में खेलने के लिए आमंत्रित किया गया था, लेकिन खिलाड़ियों के नंगे पैर से खेलने के कारण टीम इसमें अपनी प्रतिभा नहीं दिखा सकी थी। भारतीय टीम ने 1956 मेलबर्न ओलम्पिक में हिस्सा लिया था और वह चौथे स्थान पर रही थी। भारत ने 1951 के नई दिल्ली एशियाई खेलों और 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीते थे लेकिन इसके बाद भारतीय टीम को कभी भी खुश होने का कोई लम्हा नहीं मिला। भारत में फुटबॉल की घटती लोकप्रियता की वजह इस खेल के विकास के लिए पर्याप्त सुविधाओं और बुनियादी ढांचे की कमी होना है।

क्रीड़ा अधिकारी मुकेश कुमार सब्बरवाल को बचपन से ही फुटबॉल से लगाव है। कानपुर के बीएनडीडी कॉलेज से हाईस्कूल तक की शिक्षा हासिल करने वाले श्री सब्बरवाल बताते हैं कि मेरी प्रतिभा और दिलचस्पी को देखते हुए मेरा चयन फुटबाल छात्रावास बरेली में हो गया वहीं से मैंने फुटबाल खेल की बारीकियां अपने गुरू स्वर्गीय जी.एस. थापा सर से सीखीं। बरेली छात्रावास में रहते ही मुझे सुब्रतो मुखर्जी कप एवं अंतर-विश्वविद्यालय प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिला। श्री सब्बरवाल ने 1993 में उत्तर प्रदेश की सीनियर टीम से राष्ट्रीय प्रतियोगिता संतोष ट्रॉफी में भी प्रतिभाग किया। इस खेल को कुछ देने की गरज से इन्होंने साई ईस्टर्न सेण्टर (एनएसएनआईएस) कोलकाता से फुटबॉल कोचिंग का रेगुलर कोर्स किया।

फुटबॉल में बेहतर प्रदर्शन और उच्च तालीम हासिल करने के बाद इन्हें 2006 में उप क्रीड़ा अधिकारी के पद पर खेल विभाग में सेवा का अवसर मिला। श्री सब्बरवाल की पहली पोस्टिंग वाराणसी फुटबॉल हॉस्टल में फुटबॉल कोच/वार्डन के रूप में हुई और वह वहां लगभग छह साल रहे। इन्होंने वाराणसी में फुटबॉल के उत्थान के लिए बेहतर प्रयास किए नतीजन यहां के तीन खिलाड़ियों (अशफाक, रवि, वीरू) ने अण्डर-16 आयुवर्ग की भारतीय टीम का अमेरिका में प्रतिनिधित्व किया। रवि ने बाद में भारतीय सीनियर टीम से 2014 के एशियाई खेलों में प्रतिभाग किया। वर्तमान में रवि आईएसएल में मुम्बई फुटबॉल क्लब से खेल रहे हैं। श्री सब्बरवाल से प्रशिक्षण हासिल करने वाले मोहित राणा भी 16 वर्षीय भारतीय फुटबॉल टीम से दक्षिण अफ्रीका में अपना जौहर दिखा चुके हैं। वाराणसी को चार इंटरनेशनल खिलाड़ी देने वाले सब्बरवाल से कोचिंग लेने वाली लगभग तीन दर्जन प्रतिभाएं विभिन्न आयु वर्ग की राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में उत्तर प्रदेश की तरफ से शिरकत कर चुकी हैं। श्री सब्बरवाल उत्तर प्रदेश फुटबॉल टीम की सब जूनियर, जूनियर एवं सीनियर टीम (पुरुष एवं महिला) के प्रशिक्षक भी रह चुके हैं।

फुटबॉल खेल की भारत में सम्भावनाओं पर मऊ में जिला क्रीड़ा अधिकारी के पद पर कार्यरत मुकेश कुमार सब्बरवाल का कहना है कि स्थितियां बदल रही हैं लेकिन उस गति से नहीं जितनी कि जरूरत है। वह कहते हैं कि फुटबॉल जनमानस का खेल है इसीलिए इसे 'किंग ऑफ द होल वर्ल्ड' भी कहा जाता है क्योंकि इसमें 90 मिनट में लोगों का भरपूर मनोरंजन हो जाता है। श्री सब्बरवाल कहते हैं कि पहले फुटबॉल मैच 70 मिनट का होता था और अब यह 90 मिनट का होता है। अगर मुकाबला अतिरिक्त समय में पहुंच जाए तो यह 120 मिनट का भी हो जाता है, इसलिए खिलाड़ियों का फिट होना बहुत जरूरी है क्योंकि जो खिलाड़ी फिटनेस में सुपरफिट होगा  वही 120 मिनट तक मैदान में धमाल मचा सकता है। जो भी हो श्री सब्बरवाल अपने दायित्वों का निर्वहन करने के साथ ही समय समय पर खिलाड़ियों के बीच पहुंच कर उनका उत्साहवर्धन भी करते हैं।

 

रिलेटेड पोस्ट्स