कानपुर में खेलों की नजीर हैं विनीता शुक्ला

हाकी, टेबल टेनिस, खो-खो और कबड्डी में खेलीं नेशनल

मनीषा शुक्ला

कानपुर। भारत जैसे देश में जहां खेलों की सुविधाएं नगण्य हों वहां एक से अधिक खेलों में यदि कोई राष्ट्रीय स्तर पर अपने कौशल से खेलप्रेमियों का दिल जीत ले तो उसे महायोद्धा कहना ही उपयुक्त होगा। यह विलक्षण कार्य यदि नारी शक्ति कर दिखाए तो उसे समाज के लिए नजीर माना जाना चाहिए। खेल के क्षेत्र में विनीता शुक्ला कानपुर की ऐसी ही शख्सियत हैं। 1990 के दशक में इन्होंने राष्ट्रीय खेल हाकी, कबड्डी, टेबल टेनिस और खो-खो में राष्ट्रीय स्तर पर न केवल धाक जमाई बल्कि दर्जनों मेडल और ट्राफियां जीतकर कानपुर के गौरव को चार चांद लगाए।

के.के. गर्ल्स इंटर कालेज से तालीम हासिल करने वाली विनीता शुक्ला अपने बीते दिनों को याद कर भावुक हो जाती हैं। इनके घर के कमरे में लगी ट्राफियां और मेडल इस बात का सूचक हैं कि इन्होंने खेलों में अपना सर्वस्व होम किया है। खेलों में सुविधाओं का रोना रोने वाले समाज के लिए विनीता जैसी शख्सियतें एक नायाब उदाहरण हैं। विनीता ने खेल के क्षेत्र में जो भी सफलताएं हासिल की हैं उसके पीछे इनका जुनून, जज्बा और समर्पण काबिलेतारीफ है। विनीता शुक्ला को देश का प्रतिनिधित्व न कर पाने का बेशक मलाल हो लेकिन वह अपने समय की कानपुर की सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रही हैं इसमें किसी को संदेह नहीं है।

इंसान परिस्थितियों का दास होता है। कई बार वह जो सोचता है, उसे हासिल करने में उसके सामने कई तत्व अवरोधक बन जाते हैं। विनीता के साथ भी ऐसा ही हुआ है। सबसे अच्छी बात तो यह है कि इनका खेलों के प्रति लगाव आज भी जिन्दा है। वह कहती हैं कि भारत सहित देश के किसी राज्य में खेलों को लेकर कभी कोई स्पष्ट नीति नहीं रही है। इसका खामियाजा प्रायः खिलाड़ियों को ही भुगतना पड़ा है। हमारी हुकूमतें खेलों की बात तो करती हैं लेकिन खिलाड़ियों का करियर सुनिश्चित करने की उनके पास कोई ठोस योजना नहीं है। क्रिकेट को लेकर प्रायः खेल जमात गाली देती है लेकिन भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने क्रिकेट को किस तरह फर्श से अर्श पर पहुंचाया है इसकी कोई बात नहीं करता। एक समय वह था जब बीसीसीआई के पास 1983 की विश्व विजेता टीम के सदस्यों को प्रोत्साहित करने के लिए पैसा नहीं था लेकिन आज वह सबसे धनी खेल संगठन है।

मैं आपका ध्यान ट्रैक एण्ड फील्ड गेम्स की ओर ले जाना चाहती हूं। काफी अरसा पहले यानी 1958 में, आपने फ्लाइंग सिख के नाम से मशहूर मिल्खा सिंह का नाम जाना, जब वह आपके लिए कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड मेडल लेकर आए थे। ट्रैक पर जितनी तेज दौड़ मिल्खा सिंह ने तब लगाई थी, उसे आज तक कोई भारतीय पार नहीं कर पाया। मिल्खा सिंह के बाद दूसरा नाम पी.टी. ऊषा का है, जिन्होंने 1982 यानी मिल्खा सिंह के मेडल जीतने के 24 बरस बाद एशियन गेम्स में सिल्वर मेडल और बाद के बरसों में गोल्ड मेडलों की झड़ी लगा दी। क्या एथलेटिक्स में आपके पास पी.टी. ऊषा के बाद गिनाने के लिए कोई और नाम है?

विनीता सवाल करती हैं कि मिल्खा सिंह और पी. टी. ऊषा के बाद ट्रैक पर दौड़ने और जीतने लायक एक भी किरदार न गढ़ने के लिए कौन जिम्मेदार है? जवाब है, हम लोग। इस एक लफ्ज के जवाब के बारे में मैं कुछ बातें तफ्सील से करना चाहती हूं। फर्ज कीजिए कि आपके दो बच्चे हैं। आप उन दोनों को सबसे पहले क्या बनाना चाहते हैं? डॉक्टर, इंजीनियर या फिर अफसर। अगर आप कुछ सम्पन्न हैं, तो उसे किसी क्रिकेट एकेडमी में भी भेज सकते हैं, क्योंकि आपको लगने लगा है कि क्रिकेट तो अब काफी शोहरत और पैसे का खेल है। बच्चे को नेशनल टीम में जगह नहीं भी मिली, तो आईपीएल है, दूसरे कई टूर्नामेंट हैं, कहीं-न-कहीं तो वह खप ही जाएगा। आप में से कितने लोग चाहते हैं कि बच्चा ट्रैक पर दौड़ लगाए, हाकी खेले या खो-खो और कबड्डी में करियर संवारे। इस सवाल का जवाब भी दो लफ्जों का है। कोई नहीं। आपमें से कोई नहीं चाहता कि आपका बच्चा ऐसे लो-प्रोफाइल खेल चुने।

मिल्खा और ऊषा धन-कुबेरों की संतान नहीं हैं और उन्हीं की तर्ज पर आज तक जो खिलाड़ी ट्रैक पर दौड़ लगा रहे हैं, वे भी साधारण घरों से आए लोग ही हैं। यह एक तल्ख सच्चाई है कि ऐसे तमाम खिलाड़ियों को अगर रेलवे या आर्मी न सपोर्ट करे, तो इनका हुनर बेवक्त खत्म हो जाएगा ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ है। मैं भी चाहती थी कि मुल्क के लिए खेलूं लेकिन सुविधा और पर्याप्त संसाधनों के बिना अपने सपने साकार नहीं कर सकी। मुझे खेलों से ताउम्र लगाव रहेगा और मैं युवा पीढ़ी को संदेश देना चाहूंगी कि वे खेलों को अपना हमसफर बनाए क्योंकि आज स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। नेशनल में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद आपका बच्चा आत्मनिर्भर बन सकता है। बच्चों को खेलने दो वे बड़ा खिलाड़ी न भी बन पाए तो भी जीवन भर निरोगी जीवन तो बिता ही सकेंगे। कानपुर की युवा प्रतिभाओं को विनीता जैसी शख्सियतों से न केवल खेलों के बारे में सीखना चाहिए बल्कि इनका सम्मान भी करना चाहिए।

 

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