गुरबत से निकला अचिंता जैसा वेटलिफ्टर सितारा

मां ने ट्रॉफियों को फटी साड़ी में सुरक्षित रखा
रोटी का एक टुकड़ा भी मुश्किल से नसीब होता था
खेलपथ संवाद
कोलकाता।
हमारी हुकूमतें खेलों और खिलाड़ियों के उत्थान की लाख ढींगें हांकती हों लेकिन सच यह है एक गरीब खिलाड़ी अपना सबकुछ दांव पर लगाकर देश को गौरवान्वित करता है। मुश्किल वक्त में उसकी मदद को कोई आगे नहीं आता। लेकिन जैसे ही उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सफलता मिलती है हर कोई श्रेय लेने को आगे आ जाता है। बर्मिंघम में 73 किलो भारवर्ग में स्वर्ण पदक जीतने के बाद जब अचिंता अपने घर पहुंचा तो उसकी मां ने पुरानी ट्रॉफियों को एक स्टूल पर रखकर फिर से व्यवस्थित रखा। यह वाक्या एक खिलाड़ी की गरीबी को ही बयां करता है।
राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले अचिंता शेउली काफी गरीबी में पले हैं। हावड़ा जिले के देउलपुर निवासी अचिंत सिर्फ दो कमरों के आवास में रहते हैं। उनकी मां ने अचिंता की अब तक की ट्रॉफियों को फटी साड़ी में बांधकर सुरक्षित रखा है। बर्मिंघम में 73 भारवर्ग में स्वर्ण पदक जीतने के बाद सोमवार को अचिंता जब अपने घर पहुंचे तो उनकी मां ने पुरानी ट्रॉफियों को एक स्टूल पर रखकर फिर से व्यवस्थित रखा था।
अचिंता के घर पहुंचने के बाद उनकी मां पूर्णिमा शेउली काफी खुश थीं। उन्होंने अपने छोटे बेटे से कहा, ''अब अपनी सारी ट्रॉफी और पदक रखने के लिए एक अलमारी खरीद लो।'' पूर्णिमा शेउली ने कहा, ''उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उनका बेटा देश के लिए स्वर्ण पदक जीतेगा। मुझे पता था कि अचिंता के आने पर रिपोर्टर और फोटोग्राफर भी आएंगे। इसलिए मैंने पहले ही ये ट्रॉफी और मेडल निकालकर व्यवस्थित कर लिए थे।''
पूर्णिमा ने कहा, ''2013 में उनके पति जगत शेउली की मौत के बाद आलोक और अचिंत को बड़ी कठिनाई से पाला है। भगवान ने हम पर आशीर्वाद बरसाना शुरू कर दिया है। हमारे घर के सामने इकट्ठा होने वाले लोगों की संख्या बताती है कि समय बदल गया है। किसी को भी यह अहसास नहीं हो पाएगा कि मेरे लिए अपने दोनों बेटों का पालन-पोषण करना कितना कठिन था। एक समय ऐसा था जब किसी दिन बिना कुछ खाए ही रहना पड़ता था। मैं उन दिनों का दर्द बयां नहीं कर सकती।''
उन्होंने याद किया कि अचिंता और उनके बड़े भाई आलोक, जो भारोत्तोलक भी हैं। दोनों एक साड़ी के कारखाने में जरी का काम करते थे। दोनों को सामान चढ़ाना और उतारना भी पड़ता था। अचिंत की मां ने कहा, बेटों को काम पर भेजने के सिवाय उनके पास और कोई चारा नहीं था। उन्होंने बताया, आलोक और अचिंता ने तमाम मुसीबतों के बावजूद भारोत्तोलन जारी रखा।
बचपन में कई मुसीबतों का सामना करने वाले 20 वर्षीय अचिंता ने सफलता का श्रेय अपनी मां और कोच अस्तम दास को दिया। अचिंता ने कहा, ''मां और कोच ने मुझे खिलाड़ी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। घर पहुंचने पर अचिंता का कई लोग इंतजार कर रहे थे। मेरे और परिवार के लिए जिंदगी कभी आसान नहीं रही। एक रोटी का टुकड़ा भी बड़ी मुश्किल से नसीब होता था। सरकार की मदद हो जाए तो उनके परिवार की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार आ जाएगा।'' अंचिता के कोच अस्तम दास ने कहा, ''अचिंता का जज्बा और कभी हार नहीं मानने के वाक्ये ने ही उसे स्वर्ण दिलाया है। वह मेरे बेटे की तरह है। मैंने जिन्हें भी प्रशिक्षित किया है, उनमें अचिंता सबसे अलग है। मैंने उसे कभी हार मानते नहीं देखा। उसमें हर बाधा से लड़ने का साहस है।''

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