भारत में खेल संगठन बने चारागाह!

खिलाड़ियों पर अनाड़ियों की दबिश

श्रीप्रकाश शुक्ला

नई दिल्ली। विविध खेल मंचों पर खेलों के सम्बन्ध में कही जाने वाली चिकनी-चुपड़ी बातें खिलाड़ियों को छोड़कर बाकी सभी को अच्छी लगती हैं। खेलों को भाईचारे का मूलमंत्र कहा जाता है लेकिन भारतीय ओलम्पिक संघ सहित देशभर के खेल संगठनों पर नजर डालें तो यह बात निरा असत्य है। संगठन पदाधिकारी बातें तो सद्भाव की करते हैं लेकिन उनका व्यवहार इंसानियत को शर्मसार करने वाला ही होता है। खिलाड़ी भगवान से तो सहजता से मिल सकता है लेकिन संगठन पदाधिकारी से मिलना उसके लिए आसमान से तारे तोड़ने के समान है।   

ओलम्पिक साल होने के बावजूद खेल संगठनों में नूरा-कुश्ती जारी है। देखा जाए तो देश के खेल संगठनों में नेताओं, नौकरशाहों, कारोबारियों तथा कुछ भूतपूर्व खिलाड़ियों का कब्जा है। खेल संगठनों में अनाड़ियों की पैठ राज्यों से लेकर केन्द्र तक अटूट है। इस गठजोड़ ने भारत में खेलों को एक चारागाह में तब्दील कर दिया है। हाल ये है कि कई जगह खेल समितियां और संगठन पारिवारिक परिसम्पत्तियां हो गए हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब से लेकर तमिलनाडु तक कोई न कोई नेता और उसका नजदीकी रिश्तेदार किसी न किसी खेल संगठन का मुखिया जरूर है।

देश में खेल प्रशासन का मौजूदा मॉडल भी विद्रूपता का शिकार है। उसमें आंतरिक समन्वय नहीं है। युवा मामलों का मंत्रालय, खेल मंत्रालय, भारतीय खेल प्राधिकरण, भारतीय ओलम्पिक संघ, राज्य ओलम्पिक संगठन और राष्ट्रीय खेल फेडरेशन- ये सब वे संरचनाएं हैं जिन पर वित्त और संसाधन मुहैया कराने के अलावा खेल प्रतिभाओं की तलाश और उन्हें निखारने की जिम्मेदारी है, लेकिन आजादी के बाद से ये लचर ही साबित हुई हैं क्योंकि पूरे सिस्टम में कहीं भी जवाबदेही सुनिश्चित नहीं की गई है, बस ताकतें अपार हैं।

क्रिकेट ही नहीं भारत में हॉकी, बैडमिंटन, फुटबॉल, कुश्ती से लेकर जिम्नास्टिक्स आदि तक हर जगह राजनीति, भाई-भतीजावाद, वित्तीय घोटाले और पक्षपात का साया नजर आता है। खेल संगठनों में पारदर्शिता न होने से उसका असर खिलाड़ियों के चयन और उनके प्रदर्शन पर पड़ता है। त्रिपुरा की जिमनास्ट दीपा करमाकर का उदाहरण कौन भूल सकता है जिसे भारी-भरकम और विराट संसाधनों वाले खेल संघों और समितियों से कोई मदद नहीं मिली। वह अपने बलबूते ओलम्पिक गई और अपनी प्रतिस्पर्धा में फाइनल राउंड तक पहुंचकर चौथा स्थान हासिल किया। ओलम्पिक में भारतीय मैराथन धावक ओपी जैशा का उदाहरण भी सामने है जिसे पूरी दौड़ में कहीं पर भी पानी या कोई ड्रिंक पिलाने के लिए भारतीय प्रतिनिधि मौजूद नहीं था। कहां थे हमारे खेलनहार और क्या कर रहे थे? 

ओलम्पिक जैसे बड़े खेल आयोजनों में भारत अब भी फिसड्डी है। हमारे खेल मंत्री मेडल की नहीं बल्कि खिलाड़ियों के अधिकाधिक सहभागिता का राग अलाप रहे हैं। काश भारतीय खेल प्राधिकरण के हुक्मरान पुलेला गोपीचंद जैसे खेल नायकों की मेहनत, समर्पण और त्याग से कुछ नसीहत लेते। देखा जाए तो खिलाड़ियों के असली पैरोकार खेल संगठन होते हैं लेकिन हमारे देश में खेल संस्थाएं सफेद हाथी की तरह अपनी-अपनी जगह पसरी हुई हैं। खेल संगठनों में कभी कोई हरकत अगर होती भी है तो वह खिलाड़ियों के चयन, पैसों या फिर वर्चस्व की होती है। भारतीय ओलम्पिक संघ के साथ ही मध्य प्रदेश में भी इन दिनों वर्चस्व की जंग छिड़ी हुई है। इस जंग को मैं तो भाजपा बनाम संघ ही कहूंगा। पिछले डेढ़ दशक में मध्य प्रदेश में खेलों के विकास पर अरबों रुपए खर्च किए गए लेकिन आशातीत परिणाम नहीं मिले। हाकी, शूटिंग और तीरंदाजी में जो भी सकारात्मक परिणाम मिले वह राज्य सरकार के प्रयासों का नतीजा है।  

देश में खेलों की स्थिति सुधारनी है तो सबसे पहले खेल संगठनों के ढांचे को दुरुस्त करना होगा। खेल संगठनों में जो अफसरशाही विकसित कर दी गई है और नये किले अंदर ही अंदर विकसित हो गए हैं, उन्हें ध्वस्त करना होगा। सच कहें तो देश में एक स्वतंत्र खेल नियामक संस्था की जरूरत है, जिसकी सभी संगठनों पर निगरानी और नियंत्रण हो। संगठनों में सदस्यता के लिए योग्यता का निर्धारण जरूरी है। रसूख और परिवारवाद को हर हाल में इससे अलग रखना होगा। हर संगठन को अपनी वित्तीय स्थिति का लेखा-जोखा एक निश्चित अंतराल पर देना चाहिए। हर बड़ी खेल स्पर्धा के बाद भी ऐसा होना जरूरी है। खेलों के नाम पर अतिशय राष्ट्रवादी सनक भी काफी घातक होती है। खेलों में तरक्की के पथ पर चलना है तो हर खेल संगठन पदाधिकारी को आपसी समन्वय से काम लेना होगा। राष्ट्र किसी की जागीर नहीं, इस बात का इल्म हमें होना चाहिए।

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