अब बेटियों को पराया धन मानने वाले हो रहे कम

हरियाणा,पंजाब, यूपी में विषम शिशु लिंगानुपात चिंता का विषय

खेलपथ संवाद

ग्वालियर। धीरे-धीरे ही सही अब बेटों की तरह बेटियां भी समाज में सम्मान पा रही हैं। माता-पिता भी अब बेटियों को पराया धन मानने की बजाय घर की इज्जत और अपना गौरव मानने लगे हैं। यह बदलाव दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा भारत में मंद गति से देखा जा रहा है। बेटियों के संवेदनशील होने के बावजूद हम बेटों पर मोहित होते हैं। हरियाणा,पंजाब, उत्तर प्रदेश में विषम शिशु लिंगानुपात चिंता का विषय है।

देशकाल-परिस्थितियों और बदलती जरूरतों के अनुरूप वैश्विक स्तर पर एक सूक्ष्म, लेकिन महत्वपूर्ण बदलाव दृष्टिगोचर हो रहा है। यह बदलाव लिंग प्राथमिकताओं को लेकर वैश्विक दृष्टिकोण में आ रहे परिवर्तन का है। जैसा कि हाल ही में ‘द इकनॉमिस्ट’ द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि लड़कों के प्रति सदियों पुराना झुकाव अब कम हो रहा है। दुनियाभर में, अतिरिक्त पुरुष जन्म की संख्या- जो वर्ष 2000 में 1.7 मिलियन तक अधिक थी, साल 2025 तक लगभग दो लाख तक गिर गई है।

निस्संदेह, यह प्रजनन विकल्पों में एक अप्रत्याशित बदलावों का संकेत है। यहां तक कि दक्षिण कोरिया और चीन में, लिंग अनुपात सामान्य या यहां तक कि बेटी की पसंद के संकेत दिखाने लगा है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस बदलाव की असल वजह क्या है। दरअसल, माता-पिता में यह धारणा बलवती होती जा रही है कि बेटियां उनकी ढलती उम्र में धीरे-धीरे अधिक विश्वसनीय देखभाल करने वाली साबित हो सकती हैं। उन्हें परिवार से गहरे तक जुड़े रहने की अधिक संभावना के रूप में देखा जाने लगा है।

आज बेटियों को बेटों के मुकाबले बेहतर शैक्षणिक प्रदर्शनकर्ता के रूप में देखा जा सकता है। तेजी से कामकाजी दुनिया का हिस्सा बनने के कारण वह आर्थिक रूप से स्वावलम्बी होती जा रही हैं बल्कि कई देशों में तो महिलाओं की बैचलर डिग्री की संख्या तक पुरुषों की तुलना में अधिक है। पश्चिमी देशों में गोद लेने और आईवीएफ के डेटा दिखाते हैं कि बेटियों को चुनने की दिशा में स्पष्ट झुकाव है। दरअसल, पश्चिमी देशों के एकल परिवारों में बेटे अपनी गृहस्थी बसाकर मां-बाप को उनके भाग्य पर छोड़ जाते हैं। ऐसा माना जाने लगा है कि बेटियां बेटों के मुकाबले में ज्यादा संवेदनशील होती हैं और जीवन के अंतिम पड़ाव में मां-बाप को सुरक्षा कवच प्रदान कर सकती हैं। जिसके चलते लोग बेटों के मुकाबले बेटियों को अपनी प्राथमिकता बनाने को तरजीह देने लगे हैं।

भारत में परिस्थितियां एक जटिल तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। यूं तो सदियों से भारतीय समाज पुत्र मोह की ग्रंथि से ग्रस्त रहा है। हालांकि, अब आधिकारिक आंकड़े बता रहे हैं कि देश में शिशु लिंग अनुपात दर में सुधार हुआ है। लेकिन लिंग चयन के लिये किए जाने वाले गर्भपात पर शासन व प्रशासन की कानूनी सख्ती और जागरूकता अभियानों के बावजूद परंपरागत रूप से समाज में गहरी जड़ें जमाने वाला बेटा मोह अब भी प्राथमिकता बना हुआ है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5( 2019-21) का सर्वे चिंता बढ़ाने वाला है। सर्वे के अनुसार, लगभग 15 फीसदी भारतीय माता-पिता अभी भी बेटियों की तुलना में बेटों की आकांक्षा रखते हैं। यही वजह है कि हरियाणा,पंजाब और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में विषम शिशु लिंगानुपात चिंता का विषय बना हुआ है। इसके अलावा, भारत में बेटी वरीयता, जहां यह मौजूद है, अक्सर सशर्त होती है।

लड़कियों को भावनात्मक लगाव या घरेलू स्थिरता के लिये तो महत्व दिया जा सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि पोषण, शिक्षा या विरासत तक उन्हें समान पहुंच दी जाए। भारतीय समाज में दहेज जैसी सांस्कृतिक प्रथाएं आज भी बेटी के माता-पिता की बड़ी चिंता बनी रहती हैं। परम्परावादी समाज में यह धारणा बलवती रही है कि बेटियां दूसरे परिवार की हैं। यही वजह है कि ग्रामीण और शहरी गरीब समुदायों में लड़कियां हाशिये पर रख जाती हैं। लेकिन इसके बावजूद भारत को लिंग समानता के वैश्विक आंदोलन की किसी भी तरह अनदेखी नहीं करनी चाहिए।

साथ ही केंद्र व राज्य सरकारों के नीतिगत हस्तक्षेप को जन्म सांख्यिकी से परे जाना चाहिए। नीति-नियंताओं को बालिका शिक्षा को प्राथमिकता के आधार पर बढ़ावा देना चाहिए। इसके साथ ही समान सम्पत्ति अधिकार लागू करने, दहेज प्रथा की कुरीति को समाप्त करने की दिशा में सख्त कदम उठाने चाहिए। तभी भारतीय समाज में लिंगभेद की मानसिकता खत्म होगी और लैंगिक समानता की दिशा में मार्ग प्रशस्त होगा। साथ ही देश में तेजी से बढ़ती बुजुर्गों की आबादी के लिये सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में कदम उठाना चाहिए।

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