ज्योति के जज्बे को सलाम

क्या ऐसे ही आगे बढ़ेंगी बेटियां?

मनीषा शुक्ला

कानपुर। कुछ दिनों पहले 15 साल की एक बच्ची द्वारा अपने अपाहिज पिता को लगभग 12 सौ किलोमीटर की थका देने वाली साइकिल यात्रा से बिहार पहुंचना उसके जज्बे का नायाब उदाहरण है। ज्योति की यह विवशता अपने आपमें एक यातना-कथा है तो बेटी पढ़ाओ, बेटी को आगे बढ़ाओ का सब्जबाग दिखाती हुकूमतों की कथनी और करनी का शर्मनाक उदाहरण भी है। यह वाक्या दिल तोड़ देने वाला भी है।

साइकिल पर अपने बीमार पिता को बैठाकर गुरुग्राम से बिहार के दरभंगा तक की 1200 किलोमीटर की दूरी तय करने वाली 15 साल की ज्योति कुमार पासवान ने भारतीय साइकिल महासंघ से मिले ट्रायल के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। उसकी पहली प्राथमिकता हालांकि 10वीं की पढ़ाई पूरी करना है। ज्योति के पिता गुरुग्राम में रिक्शा चलाते थे और उनके दुर्घटना का शिकार होने के बाद वह अपनी मां और जीजा के साथ गुरुग्राम आई थी। फिर पिता की देखभाल के लिए वहीं रुक गई। इसी बीच कोविड-19 के कारण लॉकडाउन की घोषणा हो गई और ज्योति के पिता का काम-धंधा बंद हो गया। ऐसे में ज्योति ने पिता के साथ साइकिल पर वापस गांव का सफर तय करने का फैसला किया। ज्योति की कहानी वायरल होने के बाद सीएफआई का ध्यान भी उसकी प्रतिभा की ओर गया।

ज्योति इससे पहले गांव से पांच किलोमीटर दूर स्कूल जाती थी। ज्योति लगातार कई घंटे तक साइकिल चलाने का जज्बा भी रखती है। बात भले ही किसी एक ज्योति पासवान से शुरू हुई हो, पर बात जाती बहुत दूर तक है। सरकार को इस बात को समझना होगा कि किसी भी ज्योति की विवशता सरकार के किये-अनकिये पर सवालिया निशान लगाती है।

ज्योति पासवान के संदर्भ में दो बातें और भी हुईं। पहली तो यह कि ज्योति की साइकिल चलाने की क्षमता को देखकर भारतीय साइकिल महासंघ ने उसके समक्ष ट्रायल का प्रस्ताव रखा है और दूसरी यह कि अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प की बेटी ने ज्योति के साहस की प्रशंसा की है। जहां तक पहली बात का सम्बंध है, यह अच्छी बात है कि हमारे किसी खेल-महासंघ को ज्योति जैसी किसी लड़की में संभावनाएं दिखी हैं। यह पहली बार नहीं है जब इस तरह अचानक हमारे किसी खेल-संघ को कोई संभावना दिख गयी है। सवाल यह है कि इस तरह की प्रतिभाओं को खोजने की कोई व्यवस्था हम कब करेंगे? अंतर होता है मिल जाने और खोजने में।

अब बात अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी द्वारा ज्योति पासवान की प्रशंसा करने की। राष्ट्रपति ट्रम्प की बेटी इवान्का ट्रम्प ने ज्योति के इस साहस को, ‘प्यार और जीवट का एक शानदार कारनामा’ बताया है। उनकी प्रशंसा सही है, पर जिस तरह हमारा मीडिया इस प्रशंसा को प्रमुखता दे रहा है, वह एक ऐसी मानसिकता की ओर संकेत करता है जो हमारी कमज़ोरियों की देन है। निस्संदेह ज्योति ने अपने पिता के प्रति प्यार और कठिनाइयों की चुनौती को स्वीकार करने का जीवट दिखाया है। पर इसे अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी के शब्दों से ही समझना हमारी विवशता क्यों हो?

इन सवालों के जवाब तलाशना, स्थिति को सुधारना, शासन का ही दायित्व होता है। सरकार के कहे-किये में यह स्पष्ट झलकना चाहिए कि वह अपने दायित्व के प्रति सावधान है। यह सवाल आज भी उठ रहा है और कल भी उठेगा कि एक कल्याणकारी राज्य में किसी नागरिक को बारह सौ किलोमीटर पैदल चलकर, अथवा साइकिल से, अपने घर पहुंचने की मज़बूरी का सामना क्यों करना पड़ता है? यह दुर्भाग्य ही है कि इस सवाल का जवाब तलाशने की इच्छा शासन और समाज, दोनों में ही दिखाई नहीं दे रही।

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