अब हर खेल को मिल रही लाइमलाइटः साइना नेहवाल

साल दर साल बेहतर होता जा रहा है सिस्टम
दिग्गज शटलर के विचार उसी की कलम से
हैदराबाद।
बहुत से लोगों में यह विश्वास काफी ज्यादा है कि हम टोक्यो 2020 में अपनी छाप छोड़ सकते हैं, खासतौर से जब हमारे खिलाड़ी अलग-अलग खेलों में वैश्विक स्तर पर शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं। अब सिर्फ क्रिकेट अकेला ही लाइमलाइट में नहीं रहता है। मुझे लगता है कि पिछले एक दशक में भारत में काफी शानदार बदलाव हुए हैं। अच्छे परिणाम के लिए यह सबसे अहम है।
मैं यह स्वीकार करती हूं कि एक खिलाड़ी के तौर पर मैं काफी व्यस्त रही हूं। इस वजह से सिस्टम को किसी अन्य नजरिये से देखने का समय नहीं मिला। मगर पिछले कुछ वर्षो में हमने काफी सकारात्मक बदलाव देखे हैं। खेलने के लिए की जाने वाली यात्राओं के लिए हमें हमेशा सरकार की तरफ से वित्तीय मदद मिली है। 2014-15 में टारगेट ओलम्पिक पोडियम स्कीम (टॉप्स) की शुरुआत एक शानदार कदम रहा।
एक समय था जब हमें किसी सामान की जरूरत होती थी तो हमें एनजीओ की मदद लेनी पड़ती थी। अब ज्यादा से ज्यादा एथलीटों को टॉप्स के तहत मदद मिलना आसान हो गया है। खिलाड़ियों को हर महीने मिलने वाला आउट आफ पॉकेट अलाउंस भी एक अच्छा कदम है। इससे उन्हें ट्रेनिंग, सप्लीमेंट और कम्पीटिशन के लिए मदद मिल रही है।
एक और अच्छी बात हुई है कि खिलाड़ियों के संपर्क में रहने के लिए ज्यादा से ज्यादा कोशिशें की जा रही हैं और उन्हें अपने गेम पर फोकस, कड़ी मेहनत और खुद को अच्छे से तैयार करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। मैं कह सकती हूं कि सिस्टम हर साल बेहतर होता जा रहा है। इसलिए खिलाड़ियों को अब बहुत ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है।
हम भाग्यशाली हैं कि भारत के पास पिछले 10-15 साल में अच्छे खिलाड़ियों का समूह रहा है, लेकिन मैं यह जरूर स्वीकार करना चाहूंगी कि जब लोग मुझे प्रणेता के रूप में देखते हैं, तो बेहद खास अनुभव होता है। भारतीय बैडमिंटन का स्टैंडर्ड भी पिछले कुछ साल में काफी ऊपर गया है और हमारे कई खिलाड़ी दुनिया के शीर्ष-50 खिलाड़ियों में शामिल हैं।
ईमानदारी से कहूं तो मैं बहुत बड़ी खेल प्रशंसक नहीं थी, जब मैंने खेलना शुरू किया तो मुझे ओलम्पिक खेल की अहमियत के बारे में भी नहीं पता था। मगर जब मुझे 2008 बीजिंग ओलम्पिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया, तो मुझे समझ आया कि यह कितनी बड़ी बात है। मैं काफी ज्यादा उत्साहित थी क्योंकि भले ही मैं किशोर थी, लेकिन मुझे देश के लिए कुछ करने का मौका मिला था।
मैं बीजिंग में पदक जीत सकती थी। मुझे अभी भी विश्वास नहीं होता है कि इंडोनेशिया की मारिया यूलिआंती के खिलाफ क्वार्टर फाइनल में 11-3 की बढ़त बनाने के बाद मैंने मैच गंवा दिया। 2008 में उम्मीदें बहुत ज्यादा नहीं थीं। 
अपने दूसरे ओलम्पिक खेल लंदन 2012 में जब मैंने कांस्य पदक जीता, तो मुझे पोडियम पर खड़े होने और वहां से तिरंगे को लहराते देखने का महत्व समझ में आया। मैंने महसूस किया कि मैंने काफी सारे टूर्नामेंट खेले थे और लंदन के लिए बीजिंग की तुलना में ज्यादा बेहतर ढंग से तैयार थी। लंदन ओलम्पिक से पहले मैंने सुपर सीरीज इवेंट्स में सफलता का भी स्वाद चखा। 2009 में इंडोनेशिया में पहली बार सुपर सीरीज जीती। फिर 2010 में तीन खिताब जीते। मुझमें लगातार यह विश्वास बढ़ता जा रहा था कि मैं चीनी खिलाड़ियों के वर्चस्व को चुनौती दे सकती हूं।
मुझे बताया गया है कि खेलो इंडिया स्कॉलर के तौर पर 133 बैडमिंटन खिलाड़ियों को चुना गया है। अच्छे प्रदर्शन के बाद इनमें से कुछ ने टॉप्स में जगह बनाई। पहले डेवलमेंट ग्रुप और फिर कोर ग्रुप। अगर इस तरह के कदम पहले से उठाए जाते तो और भी शानदार परिणाम सामने होते। मगर अब खिलाड़ियों को पता है कि अगर वे अच्छा प्रदर्शन करेंगे तो उन्हें आगे बढ़ने के लिए समर्थन मिलता रहेगा।

 

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