मुश्किलों से जूझती राष्ट्रीय खिलाड़ी शुमायला जावेद

मादरेवतन का मान बढ़ाने का देखा था सपना

श्रीप्रकाश शुक्ला

अमरोहा। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा हो जो सपने न देखता हो। हर कोई सपना देखता है। अमरोहा की सानिया यानि शुमायला जावेद ने भी बचपन में खेलों को लेकर न केवल एक सपना देखा था बल्कि उस सपने को साकार करने के लिए हर परिस्थिति को अपने पक्ष में करने की जीतोड़ कोशिश भी की। स्कूली दिनों में 110 मीटर हर्डल रेस सानिया की पसंदीदा स्पर्धा थी। गोल्डन गर्ल शुमायला जावेद का सपना था कि वह खेलों में मादरेवतन का मान बढ़ाए। वह जहां भी जाती मेडल गले में लटका कर ही आती। आज यह खिलाड़ी गुरबत के दौर से गुजर रही है, ऐसे में उत्तर प्रदेश सरकार और खेल संगठनों का दायित्व बनता है कि शुमायला जावेद की हर मुमकिन मदद की जाए।

खेलों को भाईचारे के लिए जाना जाता है लेकिन शुमायला जावेद को मुस्लिम लड़की होने की भी कई मर्तबा कीमत चुकानी पड़ी। शुमायला जावेद ने पहली दफा खेलों में 1996 में कदम रखा था, जब वह कक्षा छह में पढ़ती थी। शुमायला जावेद की प्रतिभा का अंदाजा किसी को रहा हो या नहीं उसकी बुआ को पता था कि भतीजी को मौका मिले तो वह खेलों में नया मुकाम हासिल कर उत्तर प्रदेश और देश का गौरव बढ़ा सकती है। अतीत पर नजर डालें तो सानिया यानि शुमायला जावेद ने खेलों में मिले अवसरों को कभी जाया नहीं किया। एथलेटिक्स स्पर्धाओं में धूम मचाने वाली शुमायला जावेद ने 2001 में नेटबाल खेल की तरफ रुख किया और देखते ही देखते इस खेल में भी बेशुमार शोहरत हासिल की।

शैक्षणिक समय में हरफनमौला शुमायला जावेद की रग-रग में खेल समाए हुए थे। वह जिस भी खेल में उतरती लोग वाहवाही करते नहीं अघाते। शुमायला ने नेटबाल खेल में सात बार नेशनल तो चार बार राष्ट्रीय स्तर पर अपने खेल का जलवा दिखाया। खेलों में शानदार सफलता के लिए सुमायला जावेद को दर्जनों बार सम्मानित होने का गौरव हासिल हुआ। शुमायला जावेद की मित्र वंदना शुक्ला बताती हैं कि उसमें खेलों के प्रति न केवल समर्पण था बल्कि जीत के प्रति प्रबल इच्छाशक्ति भी थी। खेलों में अपने अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए शुमायला ने बीपीएड तथा उसके बाद एमपीएड भी कर लिया है। वह नई पीढ़ी को खेल के क्षेत्र में नई दिशा देने को प्रतिबद्ध हैं।  शुमायला को देश का प्रतिनिधित्व न कर पाने का मलाल जरूर है लेकिन इच्छाशक्ति अभी भी जिन्दा है। खैर, समय बीता और उसके पिता जावेद ने नौ  फरवरी, 2014 को शुमायला जावेद की शादी लखनऊ के फारुक अली आजम अब्बासी से कर दी।

शुमायला बताती हैं कि शादी के कुछ समय तक सब कुछ ठीकठाक था, लेकिन बाद में ससुराल वालों ने उसे दहेज के लिए परेशान करना शुरू कर दिया। जल्द ही शुमायला को उसके मायके भेज दिया गया, यहां पर कुछ महीनों बाद शुमायला ने एक बेटी को जन्म दिया। इसके बाद शुमायला के पति का भी रवैया बदल गया। एक दिन तो शुमायला की दुनिया ही लुट गई जब उसके पति ने फोन पर ही उसे तीन तलाक का फरमान सुना दिया। अपने पति की इस करतूत की वजह शुमायला बेटी को जन्म देना बताती है। तीन तलाक का फरमान सुनाने से पहले फारुक अली आजम अब्बासी को यह सोचना चाहिए था कि बेटी-बेटा जनना इंसान के हाथ नहीं होता। उसे उन लोगों पर नजर डालनी चाहिए जोकि एक औलाद के लिए दर-दर मंदिर-मस्जिद माथा टेकते हैं।  

तलाक, तलाक और तलाक ये तीन लफ्ज किसी भी शादीशुदा मुस्लिम महिला की जिन्दगी को जन्नत से जहन्नुम बनाने के लिए काफी हैं। इन तीन शब्दों ने हजारों महिलाओं के घर उजाड़े हैं। उत्तर प्रदेश के अमरोहा की नेशनल चैम्पियन खिलाड़ी के साथ जो हुआ वह निहायत गैरजिम्मेदाराना वाक्या है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इस मामले में पूरी तरह से निर्दोष शुमायला जावेद की मदद करनी चाहिए। जिस समाज में शुमायला जावेद जैसी खिलाड़ी बेटियों की मुक्तकंठ से सराहना होनी चाहिए, वहां उनके साथ जुल्म-ज्यादती होना वाकई बेहद निंदनीय है। शुमायला को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से इंसाफ की उम्मीद है। शैक्षिक अर्हताओं से परिपूर्ण शुमायला जावेद को न केवल इंसाफ मिले बल्कि जीविकोपार्जन के लिए उसे शासकीय सेवा में भी लिया जाना जरूरी है। अफसोस की बात है कि सितम्बर 2019 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शुमायला को शासकीय सेवा में लेने का हुक्म भी दिया था लेकिन अल्पसंख्यक आयोग के मातहतों ने आज तक उसे शासकीय सेवा में नहीं लिया है जबकि गुरबत के दौर से गुजर रही शुमायला लगातार  लखनऊ के चक्कर काट रही है।

 

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