जिन्दगी की जादूगरी से हारा मैदान का जादूगर

कोई खिलाड़ी क्यों बने?

श्रीप्रकाश शुक्ला

आज समूचा देश हाकी पुरोधा, विश्व रत्न मेजर ध्यानचंद (ध्यान सिंह) की जय-जय के साथ जयंती मना रहा है। कोरोना संक्रमण के चलते इस बार राष्ट्रपति भवन में जलसा तो नहीं हो रहा लेकिन आजाद भारत में पहली बार इतनी संख्या में अर्जुन, द्रोणाचार्य और ध्यानचंद बन रहे हैं। दद्दा की याद में आज राष्ट्र 11 साई सेण्टरों में खिलाड़ी सम्मान का दस्तूर निभा रहा है। दद्दा के जीवन के अंतिम दिन कैसे बीते यह राष्ट्र भूल चुका है। वर्तमान में दुखद यह कि दद्दा हाकी के जादूगर थे, यह बात उनके पुत्र विश्व विजेता अशोक कुमार को डबडबाई आंखों उन लोगों को बतानी पड़ती हैं, जोकि जादूगर की जादूगरी भरे किस्से घण्टों विभिन्न मंचों में सुनाते रहते हैं। भारत ही नहीं दुनिया के जिन देशों में हाकी खेली जाती है, वहां आज भी ध्यान सिंह विशेष हैं। हमें यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि खराब सिस्टम और सोच के बावजूद दद्दा ध्यानचंद कल भी राष्ट्र रत्न थे और सदियों बाद भी भारत रत्न रहेंगे।

खेल दिवस के पावन अवसर पर हमें नेहरू हाकी समिति के अध्यक्ष शिवकुमार वर्मा, हमीरपुर के पूर्व कांग्रेस सांसद पंडित विश्वनाथ शर्मा, टाइम्स आफ इंडिया समाचार पत्र के पत्रकार मित्र आर. श्रीमान और दर्जनों दिग्गज हाकी खिलाड़ियों का भी शुक्रगुजार होना चाहिए जिनके प्रयासों से दद्दा के असाधारण व्यक्तित्व और उनके कृतित्व को राष्ट्र के जेहन में जीवंत रखा जा सका। दरअसल, देश को खेल दिवस की सौगात दिलाने का श्रेय पंडित विश्वनाथ शर्मा को जाता है। जब श्री शर्मा हमीरपुर के सांसद थे उस समय उन्होंने नेहरू हाकी समिति के अध्यक्ष शिवकुमार वर्मा के आग्रह पर संसद में ध्यान सिंह के जन्मदिन को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाए जाने की बात रखी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और केन्द्रीय खेल मंत्री मुकुल वासनिक ने पंडित जी की बात को न केवल माना था बल्कि दिसम्बर,1994 में 29 अगस्त, 1995 से देश में ध्यान सिंह के जन्मदिन को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा कर दी थी। हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि दद्दा की मौत के 16 साल तक उनकी जयंती किसी ने नहीं मनाई।

मित्रों दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में दद्दा ध्यानचंद की प्रतिमा को प्रतिष्ठापित कराने का श्रेय पत्रकार आर. श्रीमान को जाता है, जिन्होंने अपने खेल पत्रकारिता जीवन में दद्दा के प्रदर्शन पर अनगिनत बार लिखा था। वह जीते जी इस स्टेडियम के द्वार पर मेजर ध्यानचंद को देखना चाहते थे। यह वही स्टेडियम है जहां देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1951 में पहले एशियाई खेलों का शुभारम्भ किया था। मैं पूर्व खेल मंत्री उमा भारती का भी दिल से आभारी हूं जिनके कहने से 2002 में इस स्टेडियम को मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम का नाम दिया गया।

मेजर ध्यानचंद पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है तो बहुत कुछ लिखा जाना शेष है। सर्वमान्य यह कि वह बेजोड़ और अजेय हाकी खिलाड़ी थे। हमारा अहसान-फरोश खेल तंत्र दद्दा को तो यदा-कदा याद भी कर लेता है लेकिन उनके अनुज कैप्टन रूप सिंह को तो मध्य प्रदेश भी याद नहीं करता। रूप सिंह 1932 और 1936 के ओलम्पिक में न केवल अपने भैया ध्यान सिंह के साथ खेले थे, बल्कि दोनों ओलम्पिकों में वह सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी भी रहे। 1936 में दद्दा के साथ रूप सिंह के करिश्माई प्रदर्शन को भी तानाशाह हिटलर ने दिल सराहा था। जिस भारत ने रूप सिंह को बिसरा दिया है उसे जर्मनी आज भी जीवंत रखे हुए है। म्यूनिख में कैप्टन रूप सिंह मार्ग अचूक स्कोरर की विलक्षणता की ही कहानी बयां करता है।

खेलप्रेमियों को हम बता दें, सोमेश्वर दत्त सिंह के तीन पुत्र मूल सिंह, ध्यान सिंह और रूप सिंह हुए। मूलतः उन्नाव जिले के डौंड़ियाखेड़ा निवासी सोमेश्वर दत्त के बड़े बेटे मूल सिंह की खेलों में दिलचस्पी बिल्कुल नहीं थी जबकि ध्यान सिंह और रूप सिंह जमकर खेले। ध्यान सिंह सात पुत्र और चार पुत्रियां तो रूप सिंह चार पुत्र और चार पुत्रियों के पिता रहे। मोहन सिंह, सोहन सिंह, अशोक कुमार, राजकुमार, गोविन्द सिंह, देवेन्द्र सिंह और वीरेन्द्र सिंह ध्यान सिंह तो मनोहर सिंह, भगत सिंह, जगत सिंह और गोपाल सिंह रूप सिंह के पुत्र हैं। दद्दा के जीवन पर द गोल पुस्तक उनके पुत्र गोविन्द सिंह की पत्नी ने लिखी है। दद्दा हाकी ही नहीं बिलियर्ड्स, क्रिकेट, कैरम और टेनिस के भी आला दर्जे के खिलाड़ी थे तो उनके अनुज रूप सिंह क्रिकेट में दिल्ली के खिलाफ रणजी ट्राफी मैच भी खेले। मैं ऐसी मां को भी नमन करता हूं जिसने ध्यान-रूप के रूप में देश को दो विश्व रत्न हाकी खिलाड़ी दिए।

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