जिन्दगी एक इम्तिहान है

वाराणसी की निशा गुप्ता ने ह्वीलचेयर पर बैठे-बैठे जीते कई गोल्ड मेडल

श्रीप्रकाश शुक्ला

मुम्बई। बेटियां किसी से कम नहीं इस बात को सिद्ध किया है निःशक्त निशा गुप्ता ने। 33 साल की इस जांबाज खिलाड़ी ने ह्वीलचेयर पर बैठे ही बैठे बास्केटबॉल में कई गोल्ड मेडल जीत दिखाए। निशा का सपना पैरालम्पिक में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए देश का गौरव बढ़ाना है।

मुंबई के प्ले कोर्ट में कुछ लड़कियां तेजी से एक गेंद को एक दूसरे के तक पास कर रही हैं। उनकी आवाज कड़क है। वे गेंद को 10 फीट ऊपर बंधे जालीनुमा नेट में डालकर शूटिंग (अंक) अर्जित करने का प्रयास करती हैं। यह तो रही सामान्य सी बात, इसमें खास क्या है? इसमें खास यह है कि ये लड़कियां ह्वीलचेयर पर बैठकर अंक अर्जित करने का प्रयास करती हैं। ये सभी स्पेशल खिलाड़ी हैं जिनका सपना सामान्य खिलाड़ियों की तरह अपने कौशल से देश का मान बढ़ाना है।

मुम्बई टीम की कप्तान निशा गुप्ता हैं, जो अन्य खिलाड़ियों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। निशा की कहानी बेहद दृढ़ संकल्पित है। इनमें से ज्यादातर खिलाड़ी बचपन से ही खड़े नहीं हो पाए इसलिए वे ह्वीलचेयर पर हैं लेकिन निशा के साथ एक बहुत ही दुखद घटना घटी जिसने उनके जीवन को पहियों से बांध दिया। लेकिन ह्वीलचेयर के पहिए उनको अंक अर्जित करने से नहीं रोक पाते। इंडोनेशिया के बाली में आयोजित चौथी अंतरराष्ट्रीय ह्वीलचेयर बास्केटबाल चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीतना निशा के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जानी चाहिए।

33 वर्षीय निशा अपने आपको खुद भाग्यशाली मानती हैं क्योंकि वह सोचती हैं कि बहुत से लोग अपने सपनों का पीछा करने का अवसर नहीं पाते हैं। वह याद करते हुए बताती हैं, मैंने एचएससी की परीक्षा दी थी और वाराणसी (अपने घर) गई थी। यह मई 2004 का महीना था, मुझे ठीक से याद है कि मैं और मेरे साथ कुछ बच्चे पेड़ों से फल तोड़ने का प्रयास कर रहे थे। मेरा चचेरा भाई भी साथ में था। मैं कुछ आम तोड़ने का प्रयास की रही थी और अचानक मेरा पैरा फिसला और मैं नीचे आ गिरी। जब मैं होश में आई तो मुझे बताया गया कि मेरे सिर और रीढ़ की हड्डी में गहरी चोट आई है। रीढ़ की हड्डी में बहुत ज्यादा चोटें आईं। मेरे शरीर के निचले हिस्से ने काम करना बंद कर दिया था।

इस घटना के बाद घर वाले बहुत परेशान हो गए। उन्होंने मुझे तुरंत दूसरे अस्पताल दिखाया, जहां डॉक्टरों की टीम ने कहा कि रीढ़ की हड्डी की सर्जरी करनी होगी। मुंबई में सर्जरी के बाद निशा कई महीनों तक बिस्तर पर रहीं। फिर उन्हें बताया गया कि वो कभी चल नहीं पाएंगी। निशा लगभग चार साल तक अवसाद में रहीं। निशा ने अपना जीवन छोड़ सा दिया था। फिर एक कार्यक्रम में उनकी मुलाकात कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं से हुई। उनसे बात करने के बाद निशा को यह एहसास हुआ कि उनकी परेशानी उनके सपने को मार नहीं सकती। निशा बताती हैं कि तब मैंने टैटू बनाना सीखा और टैटू कलाकार के रूप अपनी पहचान बनाई। कुछ सालों बाद मैंने 2013 में मिस ह्वीलचेयर इंडिया में भी भाग लिया। निशा खुद को बेचैन व्यक्ति के रूप में बताती हैं, शायद यही वजह है कि उन्हें लगा कि वह बिना किसी की मदद के खिलाड़ी बन सकती हैं। इसमें उनके पति चेतन ने भी उनकी मदद की।

चेतन के बारे में निशा बताती हैं, एक बार, मेरे भाई ने मेरे फोन से चेतन को कुछ लिखा। वो उन्हें पहले से जानता था और फिर हमने खूब बातें कीं। हमारी प्रेम कहानी वहीं से शुरू हुई। कुछ दिन बाद उन्होंने मुझे अपनी मां से मिलवाया और उन्होंने मुझे पसंद कर लिया। इस बारे में जब मैंने अपने घर बात की तो मेरे मम्मी-पापा को विश्वास नहीं था कि कोई मेरा ख्याल रख सकता है लेकिन हम अब खुशहाल हैं।

निशा बताती हैं कि खेल से उनका परिचय तब हुआ जब उनके एक दोस्त जोकि आर्मी में हैं, ने बताया कि महाराष्ट्र ह्वीलचेयर बास्केटबॉल की एक राज्यस्तरीय टीम बना रहा है, उसके लिए उन्हें भी प्रयास करना चाहिए। निशा कहती हैं मैंने 2014 में एक तैराकी चैम्पियनशिप में भी भाग लिया और तब से इस खेल में भी भाग लेती आ रही हूं। मैं खेल को जीतने के उद्देश्य से नहीं बल्कि इसलिए खेलती हूं क्योंकि खेलों से मुझे प्यार है। निशा टेनिस, बैडमिंटन भी खेलती हैं और हर खेल में विशिष्टता लाने का प्रयास करती हैं।

2015 में निशा ने राष्ट्रीय ह्वीलचेयर बास्केटबाल चैम्पियनशिप में भाग लिया और कांस्य पदक भी जीता। निशा कहती हैं कि मुझे यह कहने पर गर्व है कि मैं एक भारतीय दिव्यांग लड़की हूं जो सब कुछ हासिल करने का सपना देखती है। दोस्तों किसी दिव्यांग खिलाड़ी के सामने अनगिनत परेशानियां होती हैं। विशेष रूप से अक्षम होने के कारण उन्हें और उनकी पूरी टीम को अभ्यास करने के साथ-साथ शौचालयों तक पहुंच पाने में भी मुश्किलों का सामना करना होता है लेकिन निशा जैसी बेटियां अपनी हिम्मत और दिलेरी से नया मुकाम बना लेती हैं।

 

रिलेटेड पोस्ट्स