सिर्फ बातें करने से नहीं सुधरेगी कानपुर में खेलों की स्थितिः मनीषा शुक्ला

यहां खेलों में भाई-भतीजावाद का बोलबाला

खेलपथ प्रतिनिधि

कानपुर। खेलों में कानपुर की बिगड़ती सेहत और सुविधाओं को लेकर खिलाड़ी, प्रशिक्षक यहां तक कि शारीरिक शिक्षक भी नाखुश हैं। इनका कहना है कि यहां खेलों के विकास में भाई-भतीजावाद काफी बड़ा रोड़ा है। लम्बे समय से खेलों की कमान अपने हाथ में लिए खेल संगठनों के पदाधिकारियों की कथनी और करनी में जमीन आसमान का फर्क है। खेलों के लिहाज से देखें तो हर शहर जहां विकास के पथ पर आगे बढ़ा है वहीं कानपुर में तीन दशक पहले जो सुविधाएं थीं वे भी आज नदारद हैं।

लगभग तीन दशक से एक खिलाड़ी और शारीरिक शिक्षक के रूप में मैदानों में पसीना बहाने वाली मनीषा शुक्ला कहती हैं कि खेल संगठन पदाधिकारी खिलाड़ियों, खेल प्रशिक्षकों और शारीरिक शिक्षकों के प्रयासों से ही अपनी कुर्सी पर आसीन हैं। कानपुर में खेलों के कई राज्य और राष्ट्रीय स्तर के खेल संगठन सक्रिय हैं लेकिन इनके कामकाज से कहीं नहीं लगता कि ये खेलों के विकास को लेकर जरा भी फिक्रमंद हैं। मनीषा शुक्ला कहती हैं कि तीस साल पहले हम लोगों को अभ्यास के लिए जहां आसानी से खेल मैदान मयस्सर हो जाते थे वहीं आज खिलाड़ियों को मैदान और खेल उपकरण ही नसीब नहीं होते। खिलाड़ियों के चयन में प्रशिक्षकों और शारीरिक शिक्षकों की राय लेने की बजाय खेल संगठन पदाधिकारी अपनी मनमानी चलाते हैं। योग्य खिलाड़ियों की अनदेखी कर उन खिलाड़ियों का चयन किया जाता है जोकि खेल संगठनों के पदाधिकारियों की जी-हुजूरी करते हैं।

शारीरिक शिक्षक मनीषा कहती हैं कि कानपुर में खिलाड़ियों, खेल प्रशिक्षकों तथा शारीरिक शिक्षकों की पीड़ा की फिक्र किसी को नहीं है। अधिकांश खेल संगठन पदाधिकारी खेलों के विकास की बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर उनकी सक्रियता कहीं नजर नहीं आती। मनीषा कहती हैं कि सिर्फ विधवा विलाप से कानपुर में खेलों की स्थिति नहीं सुधरने वाली। हमें वाकई खेलों के विकास की फिक्र है तो खिलाड़ियों और खेल प्रशिक्षकों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए संयुक्त प्रयास करने होंगे। हमें सोचना होगा कि लखनऊ और कानपुर में खेलों की अधोसंरचना को लेकर आखिर इतना फर्क क्यों है। मनीषा कहती हैं कि कानपुर में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, कमी यदि है तो खेलनहारों की सोच और उनकी इच्छाशक्ति में है। कानपुर में खेलों के विकास के लिए शिक्षा, खेल विभाग और खेल संगठनों को एकजुटता से प्रयास करने होंगे। सोचनीय बात तो यह है कि जो लोग खेलों में कानपुर के पिछड़े होने का रोना रोते हैं, वे लोग खुद आत्मचिंतन करें कि उन्होंने आखिर खेलों के विकास के लिए अभी तक आवाज क्यों नहीं उठाई, आखिर उनकी क्या मजबूरी थी या है?

 

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