श्रीराम मंदिरः जो था कभी सारथी, अब है रथी

इनकी चर्चा बिना अधूरी है आंदोलन की कहानी  
मैं आनंदित हूं। मेरे प्रभु श्रीराम अपने जन्मस्थान पर बने दिव्य धाम में विराजित हो जाएंगे, जहां उनकी सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों प्राण प्रतिष्ठा होगी। इसी के साथ इतिहास बन जाएंगे अयोध्या की श्रीराम जन्मभूमि से जुड़े पांच सदी पुराने विवाद और संघर्ष। इस आनंद के क्षण में भी मेरा दिल बीच-बीच में उदास हो जाता है। इस अकल्पनीय क्षण का गवाह बनने के लिए कई वे चेहरे नहीं होंगे, जिनके संघर्ष के कारण आज मेरे और आपके भाग्य में यह दिन आया है। होंगे तो वे भी नहीं, जिन्होंने इस इतिहास को न बनने देने के लिए जमीन-आसमान एक किया। मेरी दोनों को श्रद्धांजलि।
याद कीजिए कल्याण सिंह की, जिन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी का मोह नहीं किया और ढांचा गिर जाने दिया। जेल चले गए किंतु, कारसेवकों पर गोली नहीं चलाने दी। कल्याण सिंह 5 अगस्त, 2020 को गर्भगृह का शिलान्यास देखने के बाद स्थायी मंदिर में विराजित रामलला के दर्शन कर दुनिया से जाना चाहते थे, पर ऐसा न हो सका। 
वे मुलायम सिंह भी शिलान्यास देखने के बाद आज का दिन देखने के लिए नहीं हैं, जिन्होंने बाबरी ढांचा बचाने के लिए कारसेवकों पर गोली चलवाई। वहीं, हाईकोर्ट के फैसले के बाद इस विवाद को सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाने वाले मशहूर वकील और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के तत्कालीन संयोजक जफरयाब जीलानी को याद किए बिना बात अधूरी रहेगी। जीलानी को भी सिर्फ शिलान्यास ही देखना नसीब हुआ।   
अयोध्या के साथ पीएम मोदी की भूमिका में बदलाव भी मुझे उनकी अतीत से वर्तमान तक की यात्रा का उल्लेख करने को मजबूर कर रहा है। तब 1990 में वे गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या के लिए लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा लेकर चले थे। अब अपने हाथों रामलला की प्राण प्रतिष्ठा करेंगे। नरेन्द्र मोदी की सारथी से रथी तक की यह यात्रा बताती है कि निष्ठा के साथ लक्ष्य साधने के लिए किस पथ से चलना पड़ता है। इस संघर्ष यात्रा में भूमिका निभाने वाली गोरक्षपीठ के योगदान को बताए बिना कैसे रहा जा सकता है। आखिर योगी आदित्यनाथ गोरक्षपीठ के वर्तमान पीठाधीश्वर के रूप में अपने दादा गुरु दिग्विजय नाथ और गुरु अवैद्यनाथ के संकल्प के साकार होने के इतिहास के साक्षी और भागीदार नहीं हो रहे हैं बल्कि मुख्यमंत्री के रूप में भी इससे जुड़कर इतिहास बना रहे हैं।
लोग जब राम जन्मभूमि मंदिर का इतिहास पढ़ेंगे तो उन्हें पता चलेगा कि भाजपा के एक सीएम कल्याण सिंह ने राममंदिर के लिए सत्ता को ठोकर मार दी और योगी आदित्यनाथ के रूप में दूसरे ने पहले का संकल्प पूरा करने के लिए अयोध्या को किस तरह सांस्कृतिक विरासत और विकास का मॉडल बना दिया।
लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और विनय कटियार के जिक्र बिना अयोध्या आंदोलन की कहानी पूरी नहीं होगी। साथ ही साध्वी ऋतंभरा, राम विलास वेदांती आदि वे सौभाग्यशाली लोग हैं जो मंदिर मुक्ति आंदोलन में भाग लेने के बाद रामलला की प्राण प्रतिष्ठा देखेंगे। महंत नृत्यगोपाल दास भी ऐसे ही सौभाग्यशाली हैं।
अब मैं मुख्य वादी रामचंद्र परमहंस और मस्जिद की तरफ से मुख्य प्रतिवादी दिवंगत हाशिम अंसारी की एक ही तांगे पर सवार होकर पैरवी के लिए कचहरी जाने वाली दोस्ती का उल्लेख करने से खुद को कैसे रोकूं। जिस मुद्दे पर पूरे देश में तनाव रहा उसके ये दो मुख्य किरदार ताउम्र दोस्त रहे। साथ में शतरंज और ताश खेले। हाशिम का घर जला तो परमहंस उसे बनवाने आगे आए। हाशिम की पत्नी बीमार हुईं तो इलाज कराया।
परमहंस की मृत्यु हुई तो हाशिम के घर चूल्हा नहीं जला। याद तो उन आजम खां की भी करनी जरूरी है, जिन्होंने अयोध्या को लेकर भारत माता को ‘डाइन’ तक कहने में परहेज नहीं किया। हालांकि आज वे जेल में हैं। विहिप के अध्यक्ष रहे अशोक सिंघल का नाम तो लोगों की जुबान पर रहेगा ही। पर, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, पीवी नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी, नारायण दत्त तिवारी, निर्मोही अखाड़े के महंत भास्कर दास का उल्लेख हुए बिना बात पूरी नहीं होगी। इन सबको नमन।
याद, विदेश सेवा के पूर्व नौकरशाह दिवंगत हो चुके सैयद शहाबुद्दीन को भी करना जरूरी है, जिन्होंने इस मामले को लम्बा खींचने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिनकी कहनी आगे। पर, नमन परदे के पीछे रहकर इस आंदोलन को चलाने वाले तत्कालीन संघ प्रमुख प्रो. राजेंद्र सिंह रज्जू भैया, सहसरकार्यवाह भाऊराव देवरस, वरिष्ठ पत्रकार भानुप्रताप शुक्ल, प्रदेश के राज्यपाल रहे विष्णुकांत शास्त्री, उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश देवकीनंदन अग्रवाल को भी।

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