खिलाड़ियों को जमीनी स्तर पर मिले प्रोत्साहन
एशियाई खेलों में पदकों के शतक से बंधी पेरिस ओलम्पिक में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद
खेलपथ संवाद
नई दिल्ली। भारतीय खिलाड़ियों का 72 साल बाद एशियाई खेलों में पहली बार शतक लगाना देश में खेल के क्षेत्र में बदलाव का सूचक है। यह सुखद ही है कि भारत ने एशियाड के 72 साल के इतिहास में पहली बार पदकों का सैकड़ा पार किया। जीत की प्रतिबद्धता लिये खिलाड़ियों ने कुल 107 पदक जीतकर भारत को एशिया के 45 देशों में चौथे नम्बर पर पहुंचा दिया।
निस्संदेह, अब देश खिलाड़ियों से उम्मीद रखेगा कि आने वाले वर्षों में यह नम्बर और ऊंचाइयों की तरफ जाए। जिस तरह आखिरी दिन भारतीय खिलाड़ियों की प्रतिभा ने स्वर्णिम आभा बिखेरते हुए छह स्वर्ण पदक हासिल किये, उससे अंत भला तो सब भला की कहावत चरितार्थ हुई। भारतीय खिलाड़ियों ने 14वें दिन छह स्वर्ण समेत 12 पदक जीते। यह सुखद ही है कि इस बार हांगझोऊ में बेटियों ने अपना दमखम दिखाया। पहला व सौवां पदक बेटियों ने ही जीता। जो हमारे समाज में बेटियों की इस प्रतिष्ठा को स्थापित करता है कि बेटियां कहां बेटों से कम होती हैं।
यह विडम्बना ही है कि देश में एशियाड में सोना,चांदी व कांस्य पदक विजेताओं को लेकर वैसा जुनून पैदा नहीं हुआ जैसा एक छोटे क्रिकेट मैच के लिये हो जाता है। वहीं मीडिया कवरेज में भी सुधार की जरूरत है। दरअसल, क्रिकेट में बाजार की इतनी बड़ी भूमिका रहती है कि शेष खेलों को आर्थिक मदद व तरजीह नहीं मिल पाती। जबकि एशियाड में भारत की धरती में फले-फूले खेलों की पताका लहरायी है। हमने परम्परागत हाकी और कबड्डी में स्वर्ण पदक जीतकर देश की प्रतिष्ठा को कायम रखा है। वैसे एथलीटों व निशानेबाजों ने भी खूब कमाल किया।
सौभाग्य की बात है कि एशियाड व अन्य खेलों में आम घरों व संघर्षों की तपिश में तपे खिलाड़ी बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। अक्सर सुनने को मिलता है कि एक सिक्योरिटी गार्ड या श्रमिक की बेटी ने सोने का तमगा जीता। वास्तव में इसे इन बच्चों की बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए। संसाधनों के अभाव व अच्छी डाइट न मिलने के बावजूद वे देश का सिर गर्व से ऊंचा करते हैं। विडम्बना यह भी है कि जब कोई गुदड़ी का लाल अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में पदक जीतकर लाता है तो तब हम उसे पलक-पांवड़ों पर बैठा लेते हैं। लेकिन उसके बाद हम उसे भूल जाते हैं।
अक्सर खबरें आती हैं कि एशियाड पदक विजेता फलां जगह में मजदूरी कर रहा था, सब्जी बेच रहा था और जरूरतों के लिये मोहताज है। हमारे देश के नीति-नियंताओं को सोचना चाहिए कि खेल प्रतिभाओं का आर्थिक पक्ष यकीनी बनाएं। उनके लिये नौकरियां सुनिश्चित की जाएं। वैश्विक स्पर्धा के स्तर के अनुरूप नौकरियों का निर्धारण हो। इससे प्रतिभाओं में एक स्वस्थ प्रतियोगिता विकसित होगी।
सबसे पहला काम यह होना चाहिए कि खेल संघों में राजनेताओं की एंट्री पर पूरी तरह रोक लगे। दूसरे, खेल प्रतिभाओं को दूर-दराज के इलाकों में तलाश कर तराशा जाए। जब कोई खिलाड़ी पदक जीतकर आता है तो सरकारें लाखों-करोड़ों के पुरस्कार देने की घोषणा करती हैं। वास्तव में इन खेल प्रतिभाओं को उनकी योग्यता-क्षमता के हिसाब से पहले आर्थिक सहायता मिलनी चाहिए ताकि वे अपनी खेल मेधा को तराश सकें और बेहतर परिणाम देश को दे सकें। भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, कमी है तो अच्छी सोच की। सरकारें घोषणाएं तो खूब करती हैं लेकिन अमल नहीं होता।