संसद के आंगन में नारी शक्ति की किलकारी

श्रेय लेने के बजाय मूर्तरूप देना जरूरी
खेलपथ संवाद
नई दिल्ली।
भारत सरकार ने नारी शक्ति को बेशक बराबरी का हक देने का विधेयक पारित करा लिया हो लेकिन यह तभी साकार रूप लेगा जब इसके लिए ईमानदार प्रयास होंगे। यह सुखद संयोग ही है कि नई संसद का आगाज देश की नारी शक्ति को उसके दशकों से लम्बित हक देने से हुआ है। 
सोमवार को केंद्रीय कैबिनेट ने लोकसभा व विधानसभाओं में तैंतीस फीसदी आरक्षण को मंजूरी दी थी। निस्संदेह, इसका देश-दुनिया में सकारात्मक संदेश जाएगा कि हम महिलाओं को उनके वाजिब हक देने को प्रतिबद्ध हैं। निस्संदेह, इस कदम से भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं की सशक्त भूमिका होगी। यह प्रयास आम महिलाओं के सशक्तीकरण की राह भी खोलेगा। कह सकते हैं कि करीब तीन दशक से अटके महिला आरक्षण बिल को मूर्त रूप देने का नैतिक साहस राजग सरकार ने दिखाया। इससे लोकसभा में मौजूद 14 फीसदी व राज्यसभा में 12 फीसदी महिलाओं की स्थिति में अब सम्मानजक ढंग से इजाफा होगा। 
पहले संसद के विशेष सत्र को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे थे, अब लगता है कि विशेष सत्र बुलाना एक सार्थक कदम साबित होगा। राजग सरकार ने इस बिल का नाम नारी शक्ति वंदन अधिनियम रखा है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1974 में महिलाओं की स्थिति का आकलन करने वाली समिति ने महिला आरक्षण की वकालत की थी। इस बीच विभिन्न सरकारों में इस विधेयक को सिरे चढ़ाने की कोशिश हुई। फिर वर्ष 2010 में संप्रग सरकार ने इस ‍विधेयक को राज्यसभा में पारित किया था। लेकिन तब संप्रग सरकार में शामिल राजद, सपा व झामुमो आदि दलों ने इसमें जातिगत आरक्षण की मांग उठाकर विधेयक की गति थाम दी थी। वैसे सवाल उठाया जा सकता है कि वर्ष 2014 में महिला आरक्षण के मुद्दे को अपने घोषणापत्र में शामिल करने के बावजूद इसे मूर्त रूप देने में इतना वक्त क्यों लगा। 
क्या जब देश आम चुनाव की ओर बढ़ चुका है तब महिला आरक्षण के मुद्दे को अमलीजामा पहनाने की कवायद हुई है? एक पहलू यह भी है कि विधेयक के कानून का रूप लेने के बावजूद इसका क्रियान्वयन तब संभव होगा, जब देश में जनगणना के उपरांत होने वाला परिसीमन पूर्ण होगा। यानी महिला आरक्षण का लाभ आगामी आम चुनाव में संभव नहीं होगा।
बहरहाल, जनप्रतिनिधि संस्थाओं में महिला आरक्षण की व्यवस्था होना भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में एक बड़ी घटना होगी। बेहतर होगा कि संसद के नये भवन में इस मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल स्वस्थ चर्चा करें और आम सहमति बनाएं। इस तरह नया संसद भवन दोहरा इतिहास रचेगा। यद्यपि राजग सरकार ने विधेयक के मसौदे पर आधिकारिक स्तर पर विस्तृत जानकारी नहीं दी है, कयास लगाये जा रहे हैं कि इसके मूल स्वरूप को बरकरार रखने की कोशिश होगी। अब देखना होगा कि जिन मुद्दों पर लंबे समय तक महिला आरक्षण का विरोध किया जाता रहा है, उन्हेंे किस तरह संबोधित किया जाता है। हालांकि, तब विरोध करने वाले राजनीतिक दल फिलहाल दबाव बनाने की स्थिति में नहीं हैं। जिनके विरोध के चलते ही महिला आरक्षण बिल को पांच बार पारित करने की असफल कोशिश हो चुकी है। बहरहाल, इस बिल के पारित होने से देश में लैंगिक समानता आएगी। 
इस समय दुनिया में लोकतांत्रिक संस्थाओं में महिलाओं की औसतन हिस्सेदारी 26 फीसदी है, जबकि वर्तमान में भारत में यह प्रतिशत 15.21 है। वहीं राज्य विधानसभाओं में स्थिति और ज्यादा खराब है, किसी भी राज्य में 15 फीसदी महिलाओं की भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में भागीदारी नहीं बन पायी। बहरहाल, नये विधेयक के कानून बनने के बाद भारतीय जनप्रतिनिधि संस्थाओं में महिलाओं की भागीदारी 33 फीसदी हो जाएगी। वैसे तो देश के लोकतांत्रिक इतिहास में महिला जनप्रतिनिधियों की विशिष्ट भूमिका रही है। जिन्होंने न केवल सदन की गरिमा बनाने में बड़ी भूमिका निभाई, बल्कि अनेक महत्वपूर्ण निर्णयों में रचनात्मक योगदान भी दिया। 
देश की संसद के दोनों सदनों में पिछले साढ़े सात दशकों में करीब छह सौ महिला जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति रही। बहरहाल, देर आए दुरुस्त आए, की तर्ज पर इसे भारतीय लोकतंत्र की शुभ शुरुआत कहा जा सकता है। इसके बावजूद उम्मीद करें कि जमीन से जुड़ी व महिला सरोकारों को प्रतिबद्ध महिलाएं ही जनप्रतिनिधि सदनों में पहुंचें। ऐसा न हो कि पहले से मौजूदा राजनीति में सक्रिय राजनीतिक घरानों के नेता इस पहल को अपने परिवार की महिलाओं के नाम पर राजनीति करने के अवसर में ही बदल दें।

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