बैठकों तक सीमित है एसजीएफआई का कामकाज
कुछ भेड़िए खेल संघों से धन वसूली में व्यस्त
खेलपथ संवाद
नई दिल्ली। उम्मीद थी कि स्कूल गेम्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया नये रूप और रंग रोगन के साथ अवतरित होगा लेकिन भारतीय ओलम्पिक संघ की तर्ज पर जनवरी में हुए चुनाव के बाद भी ऐसी धमक अभी तक नहीं दिखी है। नए सत्र का कलेंडर अभी तक नहीं बना है तो कुछ खेलों पर गाज गिरना तय है।
एसजीएफआई का आकार प्रकार काफी कुछ भारतीय ओलम्पिक संघ जैसा हो गया है, जिस पर अब देश के खेल मंत्रालय और भारतीय खेल प्राधिकरण की सीधी पकड़ रहेगी। पता नहीं यह सब लोकतांत्रिक तरीके से हो रहा है या नहीं लेकिन इतना तय है कि कुछ फ़र्ज़ी खेलों और उनको पालने वाले अधिकारियों की रातों की नींद गुल है। हाल ही में दिल्ली में हुई स्कूल गेम्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया की महत्वपूर्ण बैठक में बेशक खेलहित में कोई फैसला न लिया गया हो लेकिन दो दिन तक खेलनहार अपने खेलों को सूची में जगह दिलाने के लिए नोटों से भरी अटैची लिए जरूर घूमते नजर आए।
हम आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश के माध्यमिक एवं बेसिक शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव दीपक कुमार को 17 जनवरी को दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में स्कूल गेम्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसजीएफआई) का अध्यक्ष चुना गया था। चुनाव सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी उमेश सिन्हा की देखरेख में हुए थे। मध्य प्रदेश के संचालक खेल रवि कुमार गुप्ता और मुक्तेश सिंह को उपाध्यक्ष चुना गया, जबकि कीर्ति पंवार को निकाय के महासचिव तथा विस्मय व्यास कोषाध्यक्ष चुने गए थे। यदि यह सच है कि किसी भी देश का खेल भविष्य उस देश के स्कूल-कॉलेज के खिलाड़ी तय करते हैं तो यह मान लेना पड़ेगा कि आज़ादी के बाद से जो अवसरवादी भारतीय खेलों की नैय्या के खेवैय्या थे उन्होंने देश को खेल मैदानों में बहुत पीछे छोड़ दिया।
यूँ भी कह सकते हैं कि आज़ादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी भारतीय खेल जहां के तहाँ खड़े हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि कुछ लोगों ने आगे बढ़कर खेलोत्थान के नाम पर गोरखधंधा किया और स्कूली खेलों को अपनी जागीर बनाकर चलाया। नतीजन दो चार खेलों को छोड़ दें तो ज्यादातर भारतीय खेल और खिलाड़ी जीरो से आगे नहीं बढ़ पाए। इस सारे फसाद की जड़ स्कूली खेलों को नियंत्रित करने वाली एसजीएफआई ही रही, जिसने लुटेरे अधिकारियों के साथ मिलकर भारत का बचपन बर्बाद करने जैसा घिनौना काम किया।
अच्छी खबर यह है कि देर से ही सही सरकार ने स्कूली खेलों के महत्व को समझ लिया है और यह भी समझ आ गया है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के खेलों को एक अलोकतांत्रिक व्यवस्था से बचाना जरूरी है और जब तक इन खेलों को भ्रष्ट और लुटेरों से नहीं बचाया जाता भारत खेल महाशक्ति नहीं बन सकता।
जहाँ तक एसजीएफआई के जंगल राज की बात है तो इस फेडरेशन ने जो बड़े-बड़े काम किए उन पर एक ग्रन्थ लिखा जा सकता है। खिलाड़ियों को जानवरों की तरह हांकना, उनके हिस्से को स्वयं चट करना, चयन में धांधली, छोटी आयुवर्ग के खिलाड़ियों की छाती पर बड़े खिलाड़ियों को चढ़ाना, उम्र की धोखाधड़ी, राष्ट्रीय स्कूली टीमों में अवांछित और अयोग्य खिलाड़ियों की भर्ती और खिलाड़ियों को मिलने वाली सुविधाओं की बन्दर बाँट करना एसजीएफआई का चरित्र रहा है।
उम्मीद थी कि एसजीएफआई की नवनिर्वाचित टीम सबसे पहले उन खेलों को बाहर का रास्ता दिखाएगी जोकि अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति से मान्यता प्राप्त नहीं हैं और न ही किसी खेल संघ द्वारा मान्य हैं। झूठ की बुनियाद पर टिके ऐसे खेलों को एसजीएफआई ने चोर दरवाजे से मान्यता दी थी, ऐसे खेलों को हटाया जा रहा है। जाहिर तौर पर इससे कई खेलनहारों को तकलीफ होगी तथा ज़ाहिर है बहुत से खिलाड़ियों और कोचों को कठिन समय से गुजरना पड़े लेकिन यह जरूरी भी है। एसजीएफआई के मौजूदा ढांचे को देखें तो इसमें नौकरशाहों को ही जगह मिली है लेकिन डर इस बात का भी है कि सरकारी तंत्र के हावी हो जाने के बाद स्कूली खेलों के संचालन में गन्दी राजनीति न हावी हो जाए। सच कहें तो एसजीएफआई में अभी भी कुछ भेड़िए पनाह पाए हुए हैं।