घर का जोगी जोगना, आन गांव का सिद्ध

प्रशिक्षकों का स्याह सच जानना प्रतिभाओं के लिए जरूरी

-सुरेन्द्र कुमार

जयपुर। हमारे देश में खेल प्रशिक्षकों की तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। सरकारें अपने प्रशिक्षकों की उपेक्षा कर विदेशी प्रशिक्षकों पर अकूत पैसा खर्च कर रही हैं। सुयोग्य प्रशिक्षकों के प्रति राज्य सरकारों का रवैया बेहद गैरजिम्मेदाराना है। देखा जाए तो हर प्रदेश में प्रशिक्षकों की कमी है लेकिन हमारी हुकूमतें उन्हें तृतीय श्रेणी में भर्ती कर गुरु पद की प्रतिष्ठा को ही तार-तार कर रही हैं।

शब्दों में सम्भव नहीं गुरु महिमा का गान, पहले गुरु को पूजिए फिर पूजो भगवान।

भारतीय धर्म ग्रंथों के अनुसार प्रत्येक महापुरुष की सफलता में गुरु का महत्व सर्वोपरि माना गया है। गुरु के बिना सफल होना असम्भव है, यह हम सभी भली-भांति जानते हैं परंतु आजकल भारत में खेलों में अजीब सी परम्परा चल रही है, जो कोच दिन-रात एक करके अपने खिलाड़ी को जमीन से उठाकर तैयार करता है। कोच खिलाड़ी को तैयार करने में अपनी पूरी ताकत व समय लगा देता है ताकि उसका शिष्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का परचम फहरा सके, यहां तक कि वह अपने परिवार को भी समय नहीं दे पाता।

यहां मुझे माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा परीक्षा पर चर्चा में गुरु की महिमा व त्याग का बखान याद आता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि ’’यह गुरु ऐसे होते हैं, जिन्होंने अपनी संतान के लिए भले ही कुछ नहीं किया हो परंतु अपने शिष्य के लिए वह अपना जीवन खपा देते हैं। अगर वह एक खिलाड़ी है तो उसके लिए उसका गुरु सुबह चार बजे उठकर मेहनत करता है। अपने बच्चे बीमार होंगे तो भी शायद चार बजे नहीं उठेंगे, लेकिन अपना शिष्य एक अच्छा खिलाड़ी बने, यही उनका एकमात्र उद्देश्य होता है।

यह गुरु शिष्य का एक संबंध है जिसमें गुरु अपना जीवन खपा देते हैं। यह आज भी हमें खेल जगत में देखने को मिलता है। आज भी जब किसी खिलाड़ी का पदक आता है तो वह सबसे पहले अपने गुरु को याद करता है। यह तो एक सफल खिलाड़ी का उदाहरण है, परंतु देश में आजकल कुछ नवोदित खिलाड़ी सोशल मीडिया को ही अपना गुरु मानकर अभ्यास करते हैं, मुझे इसमें कुछ भी गलत नहीं लगा परंतु यदि आपके पास कोच है और उसने दिन-रात एक करके आपको सफलता के शिखर पर पहुंचाया है तो इस कोच को कभी भी भूलना नहीं चाहिए। ना जाने आप को सफल बनाने के लिए कितना कुछ त्याग किया होगा प्रशिक्षक ने। आपके लिए अपने बच्चों व परिवार को भी समय नहीं दे पाया होगा।

आपके साथ अन्याय होता देख कभी साथी कोच व खेल संघों से भी संबंध खराब किए होंगे लेकिन खिलाड़ी इन सब चीजों को भुलाकर सोशल मीडिया को ही गुरु मानकर या सोशल मीडिया के माध्यम से किसी झोलाछाप कोच (जो न तो कभी अव्वल दर्जे का स्वयं खिलाड़ी रहा होता है और न ही किसी खेल संस्थान से खेल प्रशिक्षण में डिप्लोमा प्राप्त किया होता है) की चिकनी चुपड़ी बातें सुनकर अपने गुरु को छोड़कर चला जाता है, जिसे झोलाछाप कोच विभिन्न प्रकार की शक्तिवर्धक दवाइयां खिलाकर उसका भविष्य बर्बाद कर देता है।

आजकल यूट्यूब, इंस्टाग्राम एवं फेसबुक पर ऐसे गुरुओं की भरमार है। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले खिलाड़ी इनके नहीं होते परंतु यह मार्केटिंग इस प्रकार से करते हैं कि खिलाड़ी इनके झांसे में आ जाते हैं और अपने वास्तविक गुरु को ठोकर मारकर चले जाते हैं। यह सिर्फ ठोकर नहीं होती इसमें उस गुरू के आपके लिए त्याग किए गए अपने अमूल्य समय, अपने बच्चों से भी ज्यादा आपके साथ बिताये गए पल व लगाव यहां तक कि मुसीबत में आपकी आर्थिक सहायता भी करता है भले ही अपने बच्चों को रुपए की तंगी बताकर उनकी मनपसंद चीज से उन्हें वंचित कर दिया हो, परंतु शिष्य को अव्वल दर्जे का खिलाड़ी बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ता, उन सब अरमानों पर आपने ठोकर मारी है।

 गुरु को कीजिए दंडवत कोटि-कोटि प्रणाम, कोटि न जाने भृंग को गुरु करें आप समान।

अर्थात गुरु को दंडवत होकर करोड़ों बार प्रणाम कीजिए क्योंकि जिस प्रकार कीड़ा भृंगी को नहीं जानता परंतु भृंगी (एक प्रकार की मक्खी) कीड़ों को डंक मार-मारकर अपने समान बना लेती है उसी प्रकार गुरु अपने शिष्य को ज्ञान प्रदान करके अपने समान बना लेते हैं। आजकल सोशल मीडिया के इन झोलाछाप कोचों के अलावा खिलाड़ियों के लिए और भी जबरदस्त ऑफर आते हैं। कुछ कोच जो खिलाड़ियों को अभ्यास नहीं करवाते परंतु दूसरे गुरुओं के शिष्यों पर पैनी नजर रखते हैं तथा जब उन्हें पता लगता है कि अब यह शानदार खिलाड़ी बन रहा है तो उन्हें रुपयों का झांसा देकर उस गुरु से उसको दूर ले जाता है। इन गिद्ध रूपी कोचों से भी खिलाड़ियों को बचना चाहिए।

ये गिद्ध रूपी कोच ज्यादातर महानगरों व बड़े शहरों में पाए जाते है व भोले-भाले खिलाड़ियों को अपना शिकार बना लेते हैं। खिलाड़ियों को अपने वास्तविक गुरु को कभी धोखा नहीं देना चाहिए, जिन्होंने आप को इस मुकाम तक पहुंचाने में दिन-रात एक करके मेहनत की है। मैं भी कभी शिष्य रहा हूं परंतु मैं आज भी अपने आपको (भले ही खेलना छोड़ दिया हो) अपने उसी गुरु को मानता हूं जिन्होंने मुझे अपना ज्ञान व समय देकर खुद जैसा बनाने का प्रयास किया है।

मैं खेल व कोचिंग का पूरा श्रेय अपने गुरु को ही देता हूं। यहां तक कि मेरी आदतें भी कुछ-कुछ मेरे गुरु जैसी हो गई हैं क्योंकि मैंने अपार श्रद्धा से अपने गुरु को अपने मन के अंदर उतार लिया है। कोचों की एक और भी महत्वपूर्ण समस्या है रोजगार की। हम सभी यह भली-भांति जानते हैं कि एक कोच कई वर्षों तक खून पसीना एक करके पहले खिलाड़ी बनता है, उसके बाद वह एक कोच का दर्जा प्राप्त करता है। जिसमें लगभग 10 वर्षों की मेहनत लग जाती है और कई तो 10 वर्षों की मेहनत के बाद भी खिलाड़ी नहीं बन पाते, परंतु इस देश का नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चमकाने के जुनून से वह दिन-रात मेहनत करते हैं।

कभी घर की आर्थिक स्थिति आड़े आती है, तो कभी चोटों का सामना करना पड़ता है, कभी किस्मत भी धोखा दे जाती है, इन सब मुसीबतों से निकलकर खिलाड़ी कोच बनता है। कोच बनने के बाद वह उस प्रशिक्षण संस्थान से यह सपना लेकर बाहर निकलता है कि मैं खुद तो ओलम्पिक में देश को स्वर्ण पदक नहीं दिला सका, परंतु दिन-रात एक करके मैं अपना एक तो ऐसा खिलाड़ी अवश्य तैयार करूंगा जो भारत को ओलम्पिक खेलों में स्वर्ण पदक दिलाएगा। परंतु जब बाहर आता है तो उसके सामने रोजगार की समस्या आती है। जब राज्य सरकार व केंद्र सरकार कोचों की भर्ती निकालती हैं और वह भी तृतीय श्रेणी की, तो मन उदास होता है। जिन कोचों से हमारी सरकार यह अपेक्षा रखती है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी तैयार करेंगे और उनका वेतन एक साधारण शिक्षक जितना होता है जिससे सिर्फ एक विद्यालय का ही परीक्षा परिणाम अच्छा दिलवाने की अपेक्षा की जाती है।

आज हालात यह हैं कि डिप्लोमा प्राप्त करके कोच सेना, पुलिस के अभ्यर्थियों को तैयारी करवाते हैं व उस तृतीय श्रेणी की नौकरी को नहीं करना चाहता, जिसमें परिवार का गुजारा भी मुश्किल से हो पाता हो। ये भर्ती के अभ्यर्थी थोड़ी सी मेहनत से ही इन सेवाओं में चयनित हो जाते हैं। कुछ कोच तो लाखों रुपए प्रति महीना कमा रहे हैं, यह अच्छी बात है लेकिन यह खेलों की दृष्टि से अच्छा नहीं है। एक राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित संस्थान से डिप्लोमा प्राप्त करके कोच सेना, पुलिस की भर्ती की तैयारी करवाता है, यह बहुत ही शर्म की बात है। आने वाले समय में हमें खिलाड़ी तैयार करने के लिए एक प्रशिक्षित कोच मिलना मुश्किल हो जाएगा।

आजकल प्रशिक्षित कोच सेना, पुलिस आदि की भर्ती के इच्छुक नौजवानों को फिजिकल का अभ्यास करवाता है, इसके सामने एक ऐसा व्यक्ति भी सीटी लेकर खड़ा है जो खेलों के बारे में कुछ भी नहीं जानता सिवाय सोशल मीडिया में चिकनी चुपड़ी बातें करने के अलावा। ऐसा व्यक्ति भी अपने आपको कोच बताता है व इसके लिए वह सभी इश्तिहार आदि में कोच लिखता है। एक नौजवान को अगर किसी प्रशिक्षित कोच के पास अभ्यास करना है तो वह उसे पहचान नहीं पाएगा। वैसे भी प्रशिक्षित कोच बहुत ही कम हैं जो खेल का प्रशिक्षण देते हैं क्योंकि मैं खुद एक एथलेटिक्स कोच हूं। इसलिए यह लेख एथलेटिक्स खेल के ऊपर ज्यादा सटीक बैठता है। हमारे स्वयं के कोच तो फिजिकल की तैयारी कराने लग गए और फेडरेशन विदेशी कोचों को लाखों रुपये प्रतिमाह देकर उनसे हमारे खिलाड़ियों को प्रशिक्षण दिलवाती हैं।

घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध- अर्थात बाहर के व्यक्तियों का सम्मान, पर अपने यहां के व्यक्तियों की कद्र नहीं।

इस आलेख का सार यह है कि जिन्हें झोलाछाप बताया है ऐसे कोचो पर सरकार द्वारा कुछ प्रतिबंध लगाए जाने चाहिए, ताकि वह कोच शब्द का इस्तेमाल न कर सकें। वह कोई अन्य नाम ट्रेनर आदि का प्रयोग कर सकें ताकि प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को कोच को पहचानने में परेशानी न आए। दूसरा मेरी सभी राज्य सरकारों व केंद्र सरकार से विनम्र प्रार्थना है कि जो युवा देश भक्ति के जोश, जुनून के साथ खेल प्रारम्भ करता है तथा देश व प्रदेश का नाम राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रोशन करने के बाद एक कोच बनकर अपने शिष्यों को भी अपने से अच्छा खिलाड़ी बनाने के लिए दिन-रात मेहनत करता है, विभाग, प्रदेश व देश उनसे अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी तैयार करने की अपेक्षा रखता है, ऐसे कोचों को तृतीय श्रेणी में भर्ती करके इस पद की प्रतिष्ठा को धूमिल न कर कोचों की भर्ती प्रथम श्रेणी  के वेतनमान से की जाए  ताकि एक युवा जो पहले खिलाड़ी, बाद में कोच बनता है, वह अपने परिवार के साथ सम्मानजनक जीवन यापन कर सके न कि किसी अनाड़ी ट्रेनर के बराबर खड़ा होकर सेना, पुलिस भर्ती के इच्छुक अभ्यर्थियों के सामने सीटी बजाता नजर आए।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक एथलेटिक प्रशिक्षक होने के साथ ही शोधार्थी शारीरिक शिक्षा टांटिया विश्वविद्यालय, श्रीगंगानगर (राजस्थान) से ताल्लुक रखते हैं)

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