बाप के मेडल को पूजते हैं देश के दो खिलाड़ी बेटे

मंदिर में मेडल रखते हैं ध्यानचंद के बेटे
शेर खान ने कई घर बदले लेकिन तमगे को संभाले रखा
कृष्ण कुमार पांडेय
झांसी।
पिता की निशानी हर बेटे के लिए खास होती है, वह उसे आशीर्वाद के रूप में देखता है। अगर निशानी 1936 के ओलम्पिक गेम्स के हॉकी गोल्ड मेडल की हो तो वह और भी खास हो जाती है। इसे छूकर ही गर्व की अनुभूति होती है। आज मैंने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया। जब मैंने ओलम्पियन असलम शेर खान के घर में उस ऐतिहासिक ओलम्पिक गोल्ड मेडल को छुआ। असलम शेर खान ने अपने पिता के उस मेडल को पिछले 86 सालों से सहेज कर रखा है। एक ऐसा ही ओलम्पिक गोल्ड हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार ने अपने झांसी स्थित निवास पर संजोए रखा है।
ये ओलम्पिक की उसी जीत के मेडल हैं, जो मेजर ध्यानचंद की कप्तानी वाली भारतीय टीम ने जर्मनी को उसी के घर में 8-1 से हराकर हासिल किए थे और वह तारीख थी 15 अगस्त, 1936. तब दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने पहली बार मैदान छोड़ दिया था। वह भारतीय हॉकी से हार गया था। आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर हम लाए हैं ऐसे दो बेटों की कहानी, जो अपने पिता की धरोहर को पिछले 86 सालों से संजोए हुए हैं। तो आइए, सबसे पहले आपको लिए चलते हैं झांसी, जहां मेजर ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार हैं। उन्हीं की जुबानी सुनते हैं उनके पिता के ओलम्पिक गोल्ड के बारे में।
'ओलम्पिक का गोल्ड मेरे लिए अमूल्य धरोहर है। मैं इसे देखते हुए बड़ा हुआ हूं, अपनी जिन्दगी में इस गोल्ड की अहमियत शब्दों में बयां नहीं कर सकता। इसे छूते ही एक अलग-सी ऊर्जा का अहसास होता है। ऐसा लगता है मानों जैसे बाबूजी का आशीर्वाद मिल गया हो। मैं बाबूजी के मेडल को मंदिर के पास एक खास अलमारी में रखता हूं। जब भी कोई इसे देखने की इच्छा जाहिर करता है तो उसे दिखाकर वापस रख देता हूं। मैं जब भी झांसी आता हूं, सबसे पहले इसी कमरे में जाता हूं। हर दीपावली पर इस गोल्ड की पूजा होती है, क्योंकि ये मेरी सबसे बड़ी सम्पत्ति है। समय-समय पर इसकी पॉलिशिंग कराई जाती है, ताकि चमक बरकरार रहे। बाबूजी के मेडल से एक अलग ही भावनात्मक लगाव रहा है। वैसे तो मेरे घर में पांच ओलम्पिक गोल्ड हैं। इनमें से तीन बाबूजी ने जीते और दो चाचा रूप सिंह ने। मेरा ब्रॉन्ज अलग है।'
झांसी के बाद चलते हैं भोपाल की कोहेफिजा कॉलोनी स्थित असलम शेर खान के घर
सूफिया मस्जिद के पीछे स्थित कोठी में दाखिल होते हैं। तभी 1975 की वर्ल्ड चैम्पियन हॉकी टीम के सदस्य असलम शेर खान सफेद पोशाक में आते हैं। उनके हाथ में एक मेडल केस है। जिसमें वह ऐतिहासिक मेडल है जिसकी चर्चा हर भारतीय गर्व के साथ करता है। मेरे कहने पर शेर खान ने अपने पिता के मेडल को निकाला और बड़े प्रेम से उसके बारे में बताने लगे।
असलम कहते हैं- 'ये अनमोल है, ये भारत का इतिहास है। ये भारत की शान है। यह गोल्ड भारतीय हॉकी की नींव है। आज मैं खुश हूं और हैरान भी, क्योंकि यह मेडल मेरे पास है। 86 साल एक बड़ा टाइम होता है। लोगों की जिंदगियां गुजर जाती हैं। इस दौरान हमने कई घर बदले। कई नई जगहों पर गए। कई दफा सामान शिफ्ट किया, लेकिन यह मेरे पास अब तक है, क्योंकि मैंने इसे हमेशा संभालकर रखा। 86 साल में कभी ऐसा नहीं हुआ, जब यह इधर-उधर हुआ हो। हमने इस मेडल के मामले में लापरवाही बरती ही नहीं। इसे हमेशा सुरक्षित स्थान पर रखा। मैंने और अब्बू ने बहुत सारे मेडल जीते हैं, लेकिन इसकी बात ही अलग है। कहते हैं कि मेरे अधिकांश मेडल इधर-उधर हो गए, लेकिन यह अभी तक मेरे पास है।' वे बताते हैं कि अब्बू इसका खास ध्यान रखते थे। वे इसे रखने के लिए खास मेडल केस बनवाकर लाए थे। जहां तक मेरी बात है तो मैं इसे कीमती चीजें रखने वाली तिजोरी में रखता हूं। समय-समय पर इस पर सोने की पॉलिश करता हूं, ताकि इस गोल्ड की चमक बरकरार रहे।

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