मुश्किलों को मुस्कराते हुए जिए मिल्खा सिंह

ऐसे पड़ा ‘उड़न सिख’ नाम
देश विभाजन की त्रासदी में अपनों को सदा के लिये खो देने का दु:ख लिये जब पाकिस्तान के गोविंदपुरा गांव से 16 बरस का लड़का मिल्खा पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरा तो आंखें नम थीं मगर भीतर जीने का ज़ज्बा झलक रहा था। इसी स्टेशन से शुरू हुआ एक ऐसे सितारे का सफर, जिसने जीवन के थपेड़ों को सहते हुए अपनी चमक को कभी फीका नहीं पड़ने दिया। 
जीवन के उतार-चढ़ाव के बीच मिल्खा हवा की तरह बस बहता चला गया। देश-परदेस के खेलप्रेमियों का प्यार लिये अपने 91वें बसंत में ‘उड़न सिख’ मिल्खा सिंह 18 जून को अनंत की उड़ान पर निकल गये। एक खेल युग का अंत हो गया। उनके प्रेरणादायी व्यक्तित्व ने करोड़ों लोगों को प्रभावित किया। 20 नवम्बर, 1929 को जन्मे मिल्खा सिंह देश के पहले ट्रैंक एण्ड फील्ड ‘सुपर स्टार’ थे। वह भारत के इकलौते ऐसे एथलीट हैं जिन्होंने 400 मीटर दौड़ में एशियाई खेलों के साथ साथ राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण पदक अपने नाम किया। 
आठ सितम्बर, 1960 को रोम ओलम्पिक की 400 मीटर दौड़ ने मिल्खा सिंह के जीवन को पूरी तरह बदल डाला। उस रेस के बाद वह ‘सुपर स्टार’एथलीट बन गये। उन्हें देखकर युवा ट्रैंक एंड फील्ड की ओर आकर्षित होने लगे। रोम ओलम्पिक की 400 मीटर दौड़ के फाइनल में पहुंचने वाले मिल्खा सिंह इतिहास में पहले भारतीय थे। उस रेस में मिल्खा 0.1 सेकेंड से कांस्य पदक से चूक गये। मिल्खा ने यह रेस 45.6 सेकेंड में पूरी की जबकि दक्षिण अफ्रीका के मेल्कम स्पेंस ने 45.5 सेकेंड में रेस पूरी कर कांस्य पदक जीता। हालांकि यह ऐसी घटना थी जो किसी थी एथलीट के लिये दु:स्वप्न था। 
मगर मिल्खा ने इस दुख को कभी अपने पर हावी नहीं होने दिया फिर भी उन्हें मेडल न जीतने का मलाल ताउम्र रहा। उन्होंने कहा भी था कि मेरी अंतिम इच्छा किसी भारतीय एथलीट को ओलम्पिक मेडल लेते हुए देखने की है। यूं तो खेल की दुनिया में नाकामियों को कम ही लोग याद रखते हैं और नाकाम खिलाड़ियों को इतिहास भुला देता है मगर मिल्खा सिंह इकलौते ऐसे खिलाड़ी हैं, जो ओलम्पिक की दौड़ हारकर भी अमर हो गये। 
रोम ओलम्पिक में हार के बावजूद 400 मीटर रेस में उनके द्वारा निकाला गया 45.6 सेकेंड का समय 40 वर्ष तक राष्ट्रीय रिकार्ड रहा। मिल्खा सिंह के प्रेरणास्रोत रहे अमेरिकी एथलीट चार्ल्स जेनकिंस का 400 मीटर रेस का समय 46.7 सेकेंड था। इसे देखा जाये तो मिल्खा सिंह के लिये यह राहत देने वाला था। बंटवारे के दंगों में मिल्खा सिंह ने अपने मां-बाप और कई भाई-बहन खो दिए थे। इसके बाद वह अपने प्यार को नहीं खोना चाहते थे। 
उनका प्यार था भारतीय महिला वॉलीबॉल टीम की कप्तान निर्मल सैनी। निर्मल से उनकी पहली मुलाकात कोलंबो में सन‍्1955 में हुई। मिल्खा एक इवेंट में वहां थे और निर्मल वालीबाल टूर्नामेंट के लिये कोलंबो में थीं। एक रात्रि भोज के दौरान दोनों की मुलाकात हुई और प्यार की बयार बहने लगी। उस समय का एक किस्सा यह भी था कि मिल्खा सिंह को कागज़ नहीं मिला तो उन्होंने निर्मल के हाथ में ही अपने होटल का नम्बर लिख दिया था। 
सब ठीक चल रहा था और मिल्खा ने निर्मल से शादी करने का निर्णय लिया। मगर निर्मल के पिता इस शादी के खिलाफ थे क्योंकि रिश्ते में धर्म आड़े आ गया था। मिल्खा सिंह सिख परिवार से थे और निर्मल हिंदू परिवार से थीं। उनकी इस परेशानी को देखते हुए पंजाब के उस समय के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों ने निर्मल के परिवार को मनाया और 1962 में निर्मल मिल्खा की हो गयीं। 
जीवन के सफर चलता रहा। महामारी का दौर आया और निर्मल कौर 13 जून, 2021 को महामारी की चपेट में आकर मिल्खा का साथ छोड़ गयीं। मगर मिल्खा सिंह को शायद उनका अकेले जाना मंजूर न था। 18 जून को रात करीब साढ़े 11 बजे मिल्खा अपनी अर्धांगिनी से मिलने अनंत सफर पर चले गये। मिल्खा सिंह के 4 बच्चे हैं, जिनमें तीन बेटियां और एक बेटा है। उनके बेटे जीव मिल्खा सिंह एक नामी गोल्फर हैं। 
रोम ओलम्पिक में पदक से चूकने के बाद मिल्खा सिंह को 1960 में ही पाकिस्तान में एक इंटरनेशनल इवेंट में हिस्सा लेने का न्योता दिया गया। मगर मिल्खा के मन में अभी भी बंटवारे का दर्द था। उन्होंने वहां जाने से मना कर दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के समझाने पर वह पाक जाने को राज़ी हो गये। पाकिस्तान में उन्होंने भरे स्टेडियम में उनके स्टार धावक अब्दुल खालिक को हरा दिया। इस जीत के बाद पाकिस्तान के दूसरे राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने मिल्खा सिंह को ‘फ्लाइंग सिख’कह कर पुकारा। वहीं से यह नाम मिल्खा के साथ हमेशा के लिये जुड़ गया। उड़न सिख को देशवासियों का शत‍्‍ -शत‍् नमन।

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