अब नहीं किसी को ज्योति पासवान की खोज-खबर

ये बिहार है बाबू! जात ही यहां की हकीकत है

खेलपथ प्रतिनिधि

दरभंगा। हमारा देश भी अजीब है, यहां तिल को ताड़ बनाने का चलन आम बात है। कुछ माह पहले बिहार की एक साइकिल गर्ल को लक्ष्मीबाई बना देने वाला मीडिया और अनगिनत खेलप्रेमी अब दूर-दूर नजर नहीं आ रहे। जी हां ज्योति पासवान की अब किसी को कोई खोज-खबर नहीं है। बिहार के दरभंगा जिले के सिंघवारा ब्लॉक के सिरहुल्ली गाँव अब कोई नहीं जाता। कोई अब ज्योति की जांबाजी के किस्से नहीं सुनाता। आओ जानें कि अब ज्योति पासवान की जिन्दगी कैसे कट रही है।

ज्योति ज़्यादा नहीं बोलती। बोले भी तो कैसे? जब भी कोई पत्रकार, उसकी अविश्वसनीय कहानी के बारे में पता करने के लिए पहुँचता है, उसके पिता आसपास ही मौजूद रहते हैं। आने वालों से ज़्यादातर उसके पिता ही बात करते हैं। कई बार तो वह बातचीत के बीच में ही अचानक उठकर चल देती है। दुबली-पतली लड़की आज सेलिब्रिटी है। लोग उसे 'साइकिल गर्ल' कहते हैं। बतियाते हुए कभी-कभार वह मुस्करा देती है और फिर वो वही जुमला दोहरा देती है,  जो उसने मिलने आने वाले लगभग सभी लोगों को बोला होगा।

15 बरस की यह लड़की तब सुर्ख़ियों में आई थी, जब वह लगभग 12 सौ किलोमीटर साइकिल चलाकर, गुरुग्राम से बिहार के अपने पुश्तैनी गाँव पहुँची थी। ज्योति का गाँव बिहार के दरंभगा ज़िले में है। यह बात इस साल के मई महीने की है, जब पूरे देश में लॉकडाउन लगा हुआ था। अपने गाँव से शहर जाकर काम कर रहे मजदूरों पर संकट छाया हुआ था। लॉकडाउन के दौरान शहरों में फँसे बड़ी संख्या में मजदूर पैदल चलकर, साइकिल से या फिर गाड़ियों से लिफ़्ट लेकर अपने गाँव पहुँच रहे थे। मार्च महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने से रोकने के लिए अचानक पूरे देश में लॉकडाउन लगाने की घोषणा की थी।

इसी दौरान ज्योति पासवान अपने बीमार पिता मोहन पासवान को साइकिल पर बैठाकर गाँव ले आई थी। उसके बाद से ही, ज्योति के घर पर उससे मिलने आने वालों का तांता लग गया था। बिहार के दरभंगा जिले के सिंघवारा ब्लॉक में पड़ता है सिरहुल्ली गाँव। बेटी ज्योति की बदौलत अब मोहन पासवान अब सिरहुल्ली गाँव के बहुत खास आदमी हैं।

मई महीने में मोहन पासवान के घर पर लोगों का तांता लग गया था। न जाने कौन-कौन से लोग उनके घर आए थे। वो ज्योति से मिलना चाहते थे। उसे तोहफे देते थे। तमाम तरह के प्रस्ताव आ रहे थे। कोई अपने प्रोडक्ट बेचने के लिए ज्योति को ब्रांड एम्बेसडर बनाना चाहता था, तो कोई कुछ और प्रस्ताव लेकर वहां पहुंच रहा था। दरअसल अपने बीमार पिता को साइकिल पर बैठाकर गुरुग्राम से अपने गाँव पहुँचने की ज्योति पासवान की कहानी एक त्रासदी थी। भले ही इसे साहसिक कदम बताकर इसका जश्न मनाया गया हो। ज्योति का असली साहस तो वह था जो उसने ऐसा करने का फ़ैसला किया। अगर रास्ते में क़िस्मत ने साथ दिया तो बहुत बेहतर और अगर नियति पूरे सफ़र के दौरान रूठी रही, तो वो भी उसके फैसले का ही हिस्सा था। हाईटेक शहर गुरुग्राम में एक झोपड़ी में बसर करने वाली ज्योति के सामने अचानक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई थी।

अचानक बंदी हो जाने से इतने बड़े शहर में उसके पास गुजारा करने का कोई जरिया ही नहीं था। सब कुछ अचानक बंद हो गया। काम का कोई ठिकाना नहीं बचा। ज्योति के पिता बीमार थे और अब बाप-बेटी के पास एक ही चारा बचा था, किसी न किसी तरह अपने गाँव पहुँचा जाए। लॉकडाउन के चलते न तो ट्रेनें चल रही थीं और न ही बसें। तब बहुत से अप्रवासी मजदूरों ने तय किया कि वह पैदल या साइकिल से यूपी, बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के अपने गाँवों तक जाएँगे। ये वो सूबे हैं, जहाँ से काम की तलाश में बड़े पैमाने पर लोग शहरों की ओर जाते हैं।

केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्रालय के आंकड़ों पर गौर करें तो लॉकडाउन के दौरान 32 लाख से ज़्यादा अप्रवासी कामगार शहरों से उत्तर प्रदेश लौटे थे वहीं  बिहार वापस आने वाले मज़दूरों की संख्या 15 लाख के आसपास थी। अगर आप ज्योति के गाँव सिरहुल्ली पहुँचें, तो सड़क से ही उसका घर दिख जाता है। यह गाँव के बाकी मकानों से काफी ऊंचा है। तीन मंजिल का यह मकान, ज्योति और उसके पिता के गाँव लौटने के बाद तीन महीने में बनकर तैयार हुआ था। अभी भी इस पर रंग-रोगन नहीं हुआ है लेकिन, घर में एक टॉयलेट बना है। बिहार के इस ग्रामीण क्षेत्र में घर में शौचालय होना बड़ी बात है। घर का बरामदा सामने की सँकरी गली में निकला हुआ है। बरामदे में प्लास्टिक की कुर्सियाँ पड़ी हैं, जिन्हें तभी खरीदा गया था।

सिरहुल्ली का भी वही हाल है, जो आपको बिहार के किसी और गाँव में देखने को मिलेगा। यह गाँव भी जात-बिरादरी के हिसाब से टोलों-मोहल्लों में बँटा हुआ है। ऐसे में किसी दलित लड़की को अचानक मिली शोहरत और दौलत को पचा पाना गाँव के बहुत से लोगों के लिए मुश्किल है। जुलाई महीने में 14 बरस की एक लड़की से बलात्कार के बाद उसकी हत्या की ख़बर ने सुर्ख़ियां बटोरी थीं। वो भी दरभंगा ज़िले की ही रहने वाली थी। इस दलित लड़की को एक बाग़ से आम चुराने की सज़ा दी गई थी। ये खबर वायरल हो गई थी। पेशे से ड्राइवर, प्रेम प्रकाश कहते हैं, "मुझे लगता है कि असल में ये दलितों को दी गई एक वार्निंग थी। ये बताने की कोशिश की गई कि अपनी औकात से ज़्यादा मत उछलो। ये बिहार है बाबू! जात ही यहां की हकीकत है।

ज्योति अपनी उपलब्धि को लेकर बिंदास है, उसे कोई संकोच नहीं है। वह जींस और शर्ट पहनती है। स्थानीय मीडिया की ख़बरों की मानें, तो ज्योति ने अपनी बुआ की शादी का ख़र्च भी उठाया है। किसी भी आम दिन आप सिरहुल्ली पहुँचें, तो आप ज्योति को गाँव की सड़क पर बेतकल्लुफ़ी से साइकिल चलाते देख सकते हैं। लोग उसे जानते हैं। उसके बारे में सबने सुन रखा है। अब ज्योति की ज़िंदगी बिल्कुल अलग है। पासवान परिवार ने अब अपना पक्का मकान बना लिया है, जिसमें चार कमरे हैं। पहले पूरा परिवार एक कच्ची झोपड़ी में रहा करता था। वह झोपड़ी अब भी घर के पिछवाड़े दिखती है। उधर, ज्योति के दादा के भाई अपने परिवार के साथ वैसी ही झोपड़ी में रहते हैं।

उस झोपड़ी के बगल में थोड़ी-सी जगह है। जहाँ आठ साइकिलें खड़ी रहती हैं। उसमें एक लाल रंग की साइकिल भी है, जो दीवार के सहारे खड़ी की गई है। यह साइकिल ज्योति की बड़ी बहन पिंकी की है। पिंकी को यह साइकिल, बिहार के मुख्यमंत्री की बालिका साइकिल योजना के तहत मिली थी। इस योजना की शुरुआत, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साल 2006 में की थी। उनका मक़सद था कि नौवीं कक्षा में लड़कियों के दाखिले की तादाद बढ़ाई जाए। अब पिंकी की साइकिल एक प्रतिमा की तरह घर के पिछवाड़े स्थापित है।

मई महीने में पत्रकार, फ़िल्म निर्माता, राजनेता, एनजीओ और भारत की साइकिलिंग फ़ेडरेशन के सदस्यों ने ज्योति के घर पहुंचकर  उसे चेक, साइकिलें, कपड़े और यहाँ तक कि फल और तमाम तरह के प्रस्ताव दिए थे। ज्योति को अमरीका में एक दत्तक पिता भी मिल गए, जिन्होंने उन्हें गोद लेने की चाहत जताई थी क्योंकि, उनकी अपनी कोई बेटी नहीं है। वो अक्सर ज्योति को अमरीका आने के लिए कहते हैं लेकिन ज्योति अपने गाँव में ही ख़ुश है। ज्योति की बड़ी बहन पिंकी को स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी थी। दो बरस पहले उसकी शादी हो गई। ज्योति का दावा है कि ख़ुद उन्हें आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी थी क्योंकि, परिवार उसकी फ़ीस भर पाने की हालत में नहीं था।

ज्योति बताती है कि उसने 13 साल की उम्र में साइकिल चलाना सीख लिया था। वह अक्सर अपनी बहन की लाल रंग वाली साइकिल गाँव में चलाया करती थीं यानी ज्योति की साइकिल का सफर इस तरह शुरू हुआ था। सितम्बर में ज्योति अपना नाम नौवीं कक्षा में लिखवाने के लिए नीले रंग की साइकिल चलाते हुए पास के पिंडारुच गाँव गई थी। ये नीले रंग वाली साइकिल, ज्योति को गिफ़्ट में मिली है। वह कहती है कि दरभंगा के डीएम एसएम त्यागराजन ने मेरा नाम दोबारा स्कूल में लिखवाया है। मैं पढ़ना चाहती हूँ।

जब आप दरभंगा हाइवे से गुज़रते हैं, तो आपको कोई भी सिरहुल्ली गाँव का रास्ता बता देगा। अब वह पहले जैसा छोटा-सा ग़ुमनाम गाँव नहीं रहा। अब लोग उसे 'साइकिल गढ़' के नाम से जानते हैं। आपको किसी से बस ये पूछना होगा कि क्या सामने वाले को उस गाँव का रास्ता मालूम है, जहाँ की लड़की गुरुग्राम से साइकिल चलाकर अपने गाँव पहुँची थी। अब सिरहुल्ली वैसा मामूली गाँव नहीं, जहाँ के ज़्यादातर बाशिंदे काम की तलाश में दूसरे ठिकानों की ओर कूच कर जाते हैं और अपने पीछे बस परिवार के बुज़ुर्गों को छोड़ जाते हैं। लेकिन, गाँव में 'ख़ास' लोगों की आमद के बावजूद, अब तक यहाँ अप्रवासी कामगारों के लिए कोई सरकारी मदद नहीं पहुँची है। 30 बरस के गणेश राम, सड़क किनारे बने मंदिर के बरामदे में बैठे युवाओं की तरफ इशारा करते हैं। गणेश राम यानी लॉकडाउन से पहले ही मुंबई से अपने गाँव लौटे थे। गणेश राम मुंबई की एक फ़ैक्टरी में काम करते थे, जहाँ उन्हें हर महीने 14 हज़ार रुपये पगार मिलती थी।

गणेश कहते हैं, "यहाँ बहुत टेंशन है। पर करें तो क्या करें? यहाँ करने को कुछ है ही नहीं। हम खाने का जुगाड़ करने के लिए साहूकार से क़र्ज़ ले रहे हैं। हम जहाँ नौकरी करते थे, वो अब हमारा फ़ोन ही नहीं उठा रहा है। हमें समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें? यहाँ हमारी मदद के लिए कोई नहीं आया। मंदिर परिसर में बैठे लोग अपनी उम्मीदें और डर बयां करते हैं। वे सब के सब सारा दिन यहीं बैठे रहते हैं। इस उम्मीद में कि कभी तो दिन फिरेंगे। जितेंद्र कुमार प्रसाद की उम्र 26 साल है। वह गुरुग्राम में एक एक्सपोर्ट हाउस में काम करते थे। जितेंद्र ने 16 बरस की उम्र में ही गाँव छोड़ दिया था। वो कहते हैं, "इस गाँव में हर आदमी कमाने के लिए बाहर जाता है। गाँव में बस बुज़ुर्ग लोग बच जाते हैं। यहाँ कुछ है ही नहीं। जब वहाँ हमारा पैसा ख़त्म हो गया, तो जैसे-तैसे हम लोग गाँव लौटे। यहाँ हम बस दिन गिन रहे हैं। गाँव में तो किसी को हमारी बात सुनने की भी फ़ुरसत नहीं।

जितेंद्र कुमार के मन में उम्मीद अभी ज़िंदा है, लेकिन खीझ और ग़ुस्सा भी है। वो कहते हैं- "हमको समझ में आ गया है, गाँव में हमसे किसी को कोई मतलब नहीं। मोहन पासवान के ताज़ा-ताज़ा अमीर बनने से इन लोगों के ज़ेहन में सवाल उठ रहे हैं। सरकार आख़िर ग़रीबों के लिए क्या कर रही है? जितेंद्र कहते हैं, "हम भी तो शहर से गाँव लौटे। हम भी तो इतनी दूरी तक पैदल चल के अपने घर आए। लेकिन, लोग बस उस लड़की के बारे में पूछने आते हैं। किसी ने हमसे नहीं पूछा कि हमें किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं।" जितेंद्र, उसी रोज़ गाँव पहुंचे थे, जिस दिन ज्योति घर पहुँची थी बल्कि, ख़ुद जितेंद्र ने ही मदद के लिए एक स्थानीय पत्रकार को फ़ोन किया था।

ज्योति के पिता मोहन पासवान के मुताबिक़, "गाँव में दलितों की आबादी एक हज़ार के आस-पास होगी। मौजूदा जाति व्यवस्था में दलित निचले पायदान पर आते हैं। ख़ासतौर से बिहार में दलितों की स्थिति काफ़ी ख़राब है।" वहीं मोहन कहते हैं कि अब उनके पास चार पैसा आ गया है, तो पूरा गाँव उनसे जलने लगा है।

साइकिल से लम्बा सफर तय कर 15 बरस की ज्योति के गाँव पहुंचने की ख़बर को सबसे पहले स्थानीय पत्रकार अलिंद्र ठाकुर ने एक हिन्दी अख़बार के लिए कवर किया था। जल्द ही उनकी ख़बर पूरे देश में ही नहीं, बल्कि विदेश तक फैल गई। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बेटी इवांका ने ट्विटर पर लिखा कि ये सहनशक्ति और प्यार की ख़ूबसूरत उपलब्धि है। ज्योति, 16 मई को सिरहुल्ली के सार्वजनिक पुस्तकालय पहुँची थी। वहाँ, बाहर से गाँव लौटे मज़दूरों ने पनाह ले रखी थी। वे सभी, सुबह-सुबह ट्रक से सिरहुल्ली के पास मब्बी बेलौना गाँव पहुँचे थे। वहाँ से उन्होंने अलिंद्र ठाकुर को फ़ोन किया था। उन्होंने अलिंद्र से गुज़ारिश की कि वो बाहर से आए लोगों के लिए कोई क़रीबी क्वारंटीन सेंटर खोजने में मदद करें।

अगली सुबह, अलिंद्र ठाकुर एक सरकारी स्कूल पहुँचे, जिसे रातों-रात तब अस्थायी क्वारंटीन सेंटर में तब्दील कर दिया गया था। जब उन्होंने गाँव पहुँचे मज़दूरों के बारे में सिंघवारा ब्लॉक के अधिकारियों को ख़बर दी थी, उससे पहले वाली रात ही ज्योति और मोहन पासवान भी गाँव पहुँचे थे। ठाकुर ने ज्योति और उसके पिता से मुलाक़ात की और उस लड़की के लम्बे सफ़र पर एक स्टोरी लिखी। ये ख़बर एक बड़ी न्यूज़ एजेंसी ने भी उठा ली। फिर ज्योति की कहानी मुख्यधारा के मीडिया में तेज़ी से फैल गई। संकट के उस दौर में ये एक फ़ील-गुड स्टोरी थी लेकिन, ज़्यादातर लोगों ने ज्योति की कहानी बताने के चक्कर में मज़दूरों को लेकर सरकार के उपेक्षा भाव की अनदेखी कर दी थी।

गाँव पहुंचते ही ज्योति को उसके घर में ही क्वारंटीन कर दिया गया लेकिन, वो रोज़ स्थानीय नेताओं और दूसरे लोगों से मिलती थी, जो दूरदराज़ से उनसे मिलने आया करते थे। सुपर 30 नाम के कोचिंग सेंटर के संस्थापक आनंद कुमार ने ज्योति को IIT-JEE में दाखिले के इम्तिहान के लिए मुफ़्त में कोचिंग देने का प्रस्ताव रखा। आनंद कुमार ने ही उसे 'साइकिल गर्ल' ज्योति कुमारी कहकर बुलाना शुरू किया। अब ज्योति, भारत के साइकिलिंग फ़ेडरेशन के लिए तैयारी कर रही है। फ़ेडरेशन ने दिल्ली के इंदिरा गांधी इनडोर स्टेडियम में ज्योति का फ़्री ट्रायल करने का प्रस्ताव दिया है।

ज्योति की माँ फूलो देवी पहले गाँव में मज़दूरी करती थी और दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर रोज़ 180 रुपये कमाती थी लेकिन, जब से ज्योति की कहानी सुनकर उनके घर कुछ लोग ज्योति का सम्मान करने के लिए पहुँचे, तब से वो खेतों की ओर नहीं गई है। फूलो कहती हैं, "हमारी ज़िंदगी अब बदल गई है।" ज्योति के परिवार ने एक माइक्रो फाइनेंस संस्था से एक लाख रुपए का लोन ले रखा था। इसके अलावा उन्होंने मोहन पासवान के इलाज के लिए गाँव के साहूकारों से भी उधार पैसे लिए हुए थे। मोहन पासवान अब भी लंगड़ाकर चलते हैं लेकिन उन्हें उम्मीद है कि सरकार उन्हें नौकरी देगी, जिससे वो परिवार चला सकेंगे। सबसे पहले इंडो तिब्बत बॉर्डर पुलिस के कुछ अधिकारी ज्योति के घर आए थे। उन्होंने परिवार को पाँच हज़ार रुपये का चेक सौंपा था।

ज्योति की मां फूलो देवी, गाँव में बच्चों के लिए बने आंगनबाड़ी केंद्र में काम करती हैं। भारत सरकार ने इस योजना की शुरुआत 1975 में समेकित बाल विकास सेवा कार्यक्रम के तहत की थी। इसका मक़सद बच्चों में कुपोषण की समस्या का समाधान निकालना था। अपनी ज़िंदगी में अचानक आए इस बदलाव से ख़ुद फूलो देवी भी हैरान हैं। पहले अपनी आमदनी बढ़ाने और बीमार पति के इलाज के लिए वो अक्सर गाँव के खेतों में और आसपास होने वाले निर्माण कार्य में मज़दूरी करती थीं।

बिहार के एक स्थानीय नेता पप्पू यादव ने ज्योति को गाँव पहुँचने के एक हफ़्ते के भीतर 20 हज़ार रुपए का चेक भेंट किया था। इसके बाद बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने उन्हें 50 हज़ार का चेक दिया। फिर, लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान ने भी ज्योति को 51 हज़ार रुपये दिए। राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने ज्योति की पढ़ाई और शा

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