ताउम्र खेल और खिलाडिय़ों के लिए राजपाल सिंह चौहान दद्दा

श्रीप्रकाश शुक्ला
ग्वालियर। खेलना और खेलों व खिलाडिय़ों का प्रोत्साहन ही जिसका धर्म रहा हो, उस नायाब कालजयी खिलाड़ी राजपाल सिंह चौहान दद्दा की 20 अक्टूबर को जयंती है। नई पीढ़ी के लिए जरूरी है कि वह दद्दा के कृतित्व को न केवल जानें बल्कि उन जैसा बनने का संकल्प भी ले। असाधारण दद्दा ने 1956 से 1970 तक जहां हॉकी और फुटबाल में अपने कौशल का देश भर में लोहा मनवाया वहीं उसके बाद खेलों और खिलाडिय़ों की मदद में अपनैा सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। वह आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका नायाब प्रदर्शन जिन्दा है। आज शहर की पुरुष हॉकी और फुटबाल की स्थिति को देखकर लगता ही नहीं कि यह वही शहर है जिसकी देश-दुनिया में तूती बोलती थी।
खेलों में ग्वालियर का ऐतिहासिक महत्व है। इस शहर में एक से बढ़कर एक नायाब खिलाडिय़ों ने जन्म लिया है। उन्हीं में से एक हैं राजपाल सिंह चौहान दद्दा। दद्दा आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका लाजवाब खेल कौशल और खेल-खिलाडिय़ों को दिया गया उनका प्रोत्साहन लोगों के जेहन में जिन्दा है। 20 अक्टूबर को फुटबाल और हॉकी के नायाब पुरोधा राजपाल सिंह चौहान दद्दा की जयंती है। हम चाहते हैं कि वर्तमान पीढ़ी भी दद्दा के कृतित्व और खिलाडिय़ों को दिए गये उनके योगदान से वाकिफ हो। राजपाल सिंह चौहान दद्दा आज होते तो उनकी उम्र कोई 80 साल हो गई होती। 20 अक्टूबर, 1935 को सूबेदार ज्ञान सिंह चौहान के घर जन्मे राजपाल सिंह चौहान की बचपन से ही खेलों में रुचि रही। स्कूली जीवन से ही फुटबाल और हॉकी को आत्मसात करने वाले राजपाल सिंह चौहान दद्दा बेशक भारत के लिए नहीं खेले लेकिन उन्होंने अपने पैरों की चपलता और हाथों की कलात्मकता से खिलाड़ी जमात में एक अलग पहचान जरूर बनाई। आज के दौर में एकाध नेशनल खेलने के बाद जहां खिलाड़ी गुरूर का शिकार हो जाता है वहीं राजपाल सिंह चौहान दद्दा हॉकी में 11 और फुटबाल में पांच नेशनल खेलने के बाद भी सामान्य इंसान की ही तरह खेलों और खिलाडिय़ों में रमे रहे। मध्य भारत के इस हीरो को फुटबाल में मोहान बागान से खेलने का आमंत्रण भी मिला लेकिन पारिवारिक समस्याओं के चलते दद्दा का सपना अधूरा रह गया। दद्दा को मोहन बागान से न खेल पाने का हमेशा मलाल रहा। हॉकी और फुटबाल के स्वर्णिम दौर के इस खिलाड़ी ने मध्य भारत की तरफ से मुल्क की हर वह प्रतियोगिता खेली जोकि आज के खिलाडिय़ों के लिए एक सपना है।
राजपाल सिंह चौहान दद्दा लम्बे समय तक शिक्षा विभाग से जुड़े रहे। 1955 से 1960 तक दद्दा मुरार में तो 1960 से 1970 तक वीसीआई (आज हरिदर्शन) में शिक्षक रहे। दद्दा की काबिलियत को देखते हुए उन्हें 1972 में एडीआई बनाया गया उसके बाद वह सम्भागीय क्रीड़ाधिकारी बने। एक बड़े खिलाड़ी बतौर राष्ट्रीय पहचान बनाने के बावजूद दद्दा खिलाडिय़ों के बीच सामान्य इंसान ही रहे। वह जितने अच्छे खिलाड़ी थे, उससे कहीं अच्छे खिलाडिय़ों के मददगार साबित हुए। दद्दा हमेशा यही चाहते थे कि शहर का कोई भी खिलाड़ी आर्थिक तंगहाली के चलते खेलने से कभी वंचित न रहे। दद्दा के लिए अतीत के शहंशाह खिलाडिय़ों की याद में प्रतियोगिताएं कराना एक धर्म था। सच कहें तो वह खेलों को सिर्फ खेल ही नहीं बल्कि धर्म मानते थे। दद्दा की मैदान में मौजूदगी विरोधी टीम का हौसला तोड़ देती थी। दद्दा की हॉकी टीम में तब बाला साहब पंवार, दुर्गा प्रसाद, डॉ. वीएस शिंदे (मामा), प्रताप राव भोंसले, एजी निम्बालकर, रवि नागरकर, नारायण सिंह, शिव सिंह, डीजी इंग्ले, डॉक्टर टिडेकर आदि हुआ करते थे। दद्दा न केवल जमकर खेले बल्कि उन्होंने शहर के नामचीन खिलाडिय़ों मथुरा प्रसाद चौबे, सीबीआई जैकब आदि की स्मृति में जहां हॉकी की कई प्रतियोगिताएं आयोजित करवाईं वहीं राजपूत बोर्डिंग में ठाकुर तेज सिंह की याद में वालीबाल के भव्य आयोजनों को भी अंजाम तक पहुंचाया। शहर में फुटबाल को बढ़ावा देने की खातिर दद्दा ने मामा शिंदे के साथ कई सफल आयोजनों का आगाज कर खिलाडिय़ों का भी मनोबल बढ़ाया। आज सुविधाएं तो बढ़ी हैं लेकिन खिलाडिय़ों के प्रदर्शन में निरंतर गिरावट देखी जा रही है। दद्दा के खेल जीवन में कई उतार-चढ़ाव भी आये लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। दद्दा के दौर में मध्य भारत टीम का सदस्य होना बहुत बड़ी बात थी।

1956 में मध्य प्रदेश गठन से पूर्व मध्य भारत में 20 जिले आते थे। दद्दा की 1956 से 1970 तक खेल मैदानों में तूती बोली। राइट फुलबैक दद्दा ने अखिल भारतीय सिंधिया स्वर्ण कप हॉकी, औबेदुल्ला कप हॉकी भोपाल, नेहरू मेमोरियल हॉकी दिल्ली, गुरुनानक देव हॉकी दिल्ली, महाराजा रंजीत सिंह स्मृति हॉकी अमृतसर, ट्रेड कप नैनीताल, बम्बई स्वर्ण कप हॉकी आदि नामचीन प्रतियोगिताओं में मध्य भारत टीम का प्रतिनिधित्व कर अपने शानदार खेल-कौशल से ग्वालियर का गौरव बढ़ाया। दद्दा सिर्फ लाजवाब खिलाड़ी ही नहीं खेल और खिलाडिय़ों के असली मददगार भी थे। ग्वालियर में जब भी खेलों और खिलाडिय़ों की बात होगी दद्दा राजपाल सिंह चौहान का जिक्र किये बिना बात पूरी नहीं होगी। राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में जौहर दिखाने के बाद दद्दा ने 1970 में खेल से तो संन्यास ले लिया लेकिन खेल आयोजनों और खिलाडिय़ों की मदद में हमेशा आगे रहे।
खेलों के साथ-साथ दद्दा 1972 से 1980 तक जब सम्भागीय शिक्षा अधिकारी कार्यालय में क्रीड़ा अधिकारी रहे तब उन्होंने सम्भाग भर में बास्केटबाल, कबड्डी, खो-खो, एथलेटिक्स की अलख जगाकर एक नजीर पेश की थी। उन्होंने खेलों में कभी पद की लालसा नहीं पाली क्योंकि खेल ही उनका धर्म था और खिलाड़ी सच्चा दोस्त। सच कहें तो दद्दा ताउम्र खिलाडिय़ों के लिए ही जिए। खिलाडिय़ों के मददगार राजपाल सिंह चौहान को शत-शत नमन।
1958 में ग्वालियर का नव युवक क्लब बना था सिंधिया स्वर्ण कप हॉकी विजेता
ग्वालियर की हॉकी ने मुल्क को कई सलाका खिलाड़ी दिये तो अतीत में खेलती 30 से अधिक टीमें इस बात की तरफ इशारा करती हैं कि हॉकी यहां के जन-जन की प्राणवायु है। अतीत की बात करें तो 1958-59 में ग्वालियर का नव युवक क्लब अखिल भारतीय सिंधिया स्वर्ण कप हॉकी जीत चुका है। इसे दुर्भाग्य कहें या कुछ और आज शहर में हॉकी के शानदार क्रीड़ांगन होने के बावजूद प्रतियोगिता जीतने की कौन कहे ग्वालियर की टीमें खिताबी दौर तक भी जगह नहीं बना पा रहीं। 1958 की विजयी टीम के राजपाल सिंह दद्दा भी सदस्य थे, जिनके शानदार खेल कौशल की आज भी वाहवाही होती है। 1958-59 की विजेता टीम के गवाह आज भी जिन्दा हैं, पर सबकी राय एक ही है कि तब की बात कुछ और थी। तब जीत के अलावा खिलाडिय़ों को कुछ भी नहीं सुहाता था। 1958 में ग्वालियर ने राजनांदगांव को नंगे पांव खेलते हुए परास्त किया था।
हॉलैण्ड के खिलाफ भी दिखाया था जलवा
राजपाल सिंह चौहान दद्दा ने 1969 में ग्वालियर आई हालैण्ड टीम के खिलाफ शानदार हॉकी कौशल दिखाकर खेलप्रेमियों ही नहीं प्रतिद्वन्द्वी टीम की वाहवाही लूटी थी। दद्दा उस मैच में मेयर एकादश की तरफ से खेले थे।
भाई कुंवरपाल सिंह चौहान बास्केटबाल को समर्पित
सूबेदार ज्ञान सिंह चौहान के दो बेटे और छह बेटियां हुए। छह फुट तीन इंच के राजपाल सिंह दद्दा ने जहां शहर को हॉकी और फुटबाल में राष्ट्रीय पहचान दिलाई वहीं उनके अनुज कुंवर पाल सिंह चौहान (छह फुट चार इंच) बास्केटबाल को समर्पित रहे। कुंवरपाल सिंह चौहान भिलाई स्टील प्लांट में आज भी खिलाडिय़ों का खेल-कौशल निखारने में मदद कर रहे हैं। दद्दा राजपाल सिंह चौहान के बेटे सत्यपाल सिंह चौहान बेशक अपने पिता की तरह राष्ट्रीय खिलाड़ी न हों लेकिन वह 1987 से नगर निगम ग्वालियर में खेल की पहचान जरूर हैं। नगर निगम खेल अधिकारी बतौर उन्होंने अनगिनत राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं का सफल आयोजन कर अपनी कुशल प्रशासकीय क्षमता का परिचय जरूर दिया है।

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