खेल पत्रकारिता और भारत

आओ खेलों के विकास की खातिर खेल-पत्रकारिता को समृद्ध करें

श्रीप्रकाश शुक्ला

हर जीव जन्म से ही उछल-कूद शुरू कर देता है। हम कह सकते हैं कि खेलना हर जीव का शगल है। दुनिया पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि आम इंसान जब काम पर नहीं होता तो उसके जेहन में खेलने की लालसा बलवती हो जाती है। खेल बिना जीवन के कोई मायने भी नहीं हैं। जीत-हार हमारे लिए किसी प्रेरणा-पुंज से कम नहीं होती। असफलता ही हमें सफलता की राह दिखाती है। दो जुलाई को हम विश्व खेल पत्रकारिता दिवस मनाते हैं। भारत में खेल पत्रकारिता को कलमबद्ध कर पाना किसी चुनौती से कम नहीं है। सच यह है कि आज भी अधिकांश दैनिक समाचार पत्रों के सम्पादक खेल पत्रकारिता को अछूत मानते हैं जबकि यह विधा सबसे कठिन है।

बचपन से ही खेलों में अभिरुचि, खिलाड़ियों की उपेक्षा और भारतीय खेल तंत्र की निष्फलता ने हमें खेलों पर लिखने को प्रोत्साहित किया। तीन दशक से अधिक के खेल पत्रकारिता जीवन में मैंने कई तरह के उतार-चढ़ाव देखे हैं। 1980 के दशक में खेल की खबरों का सुर्खियां बनना आश्चर्य की तरह था। उस दौर में अखबार के पन्नों पर क्रिकेट, फुटबाल, टेनिस, हाकी तथा अन्य खेलों का प्रकाशन तो होता था लेकिन सूचना मात्र। तब खेल की खबरें राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर होने वाले खेलों से सम्बन्धित होती थीं। वर्तमान समय में जिस तरह से खेल की खबरों में क्रिकेट का वर्चस्व है, वह तब नहीं दिखता था। हम कह सकते हैं कि हाकी के अधोपतन ने ही भारत में क्रिकेट को पैर पसारने का मौका दिया है। समय बदला है। अब खेल पत्रकारिता को सुर-ख्वाब के पर लग चुके हैं। यह बात अलग है कि हम क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों को उतना महत्व नहीं दे रहे जितना उन्हें मिलना चाहिए।

खेल केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं बल्कि वह अच्छे स्वास्थ्य, शारीरिक दमखम और बौद्धिक क्षमता का भी प्रतीक है। यही कारण है कि पूरी दुनिया में प्राचीनकाल से खेलों का प्रचलन रहा है। मल्ल-युद्ध, तीरंदाजी, घुड़सवारी, तैराकी, गुल्ली-डंडा, पोलो, रस्साकशी, मलखम्भ, वॉल गेम्स, जैसे आउटडोर या मैदानी खेलों के अलावा चौपड़, चौसर या शतरंज जैसे इंडोर खेल प्राचीनकाल से ही लोकप्रिय रहे हैं। आधुनिक समय में इन पुराने खेलों के अलावा इनसे मिलते-जुलते खेलों तथा अन्य आधुनिक स्पर्धात्मक खेलों ने पूरी दुनिया में अपना वर्चस्व कायम कर रखा है। खेल आधुनिक हों या प्राचीन, खेलों में होने वाले अद्भुत कारनामों को जगजाहिर करने तथा उसका व्यापक प्रचार-प्रसार करने में खेल पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज पूरी दुनिया में खेल यदि लोकप्रियता के शिखर पर है तो उसका काफी कुछ श्रेय खेल पत्रकारिता को ही जाता है।

खेलों का मानव जीवन से काफी पुराना सम्बन्ध है। मनोरंजन तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से भी मनुष्य ने खेलों के महत्व को समझा है। आज शायद ही कोई दिन ऐसा हो जब राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी न किसी प्रतियोगिता का आयोजन नहीं हो रहा हो। अतः खेलों के प्रति जनरुचि को देखते हुए पत्र-पत्रिकाओं में खेलों के समाचार तथा उनसे सम्बन्धित नियमित स्तम्भों का प्रकाशन किया जाता है। आज स्थिति यह है कि समाचार-पत्रों या पत्रिकाओं के अलावा किसी भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का स्वरूप तब तक परिपूर्ण नहीं माना जाता जब तक उसमें खेलों का भरपूर कवरेज नहीं हो। खेलों के प्रति मीडिया का यह रुझान जनरुचि के चलते ही सम्भव हो सका।

भारत युवाओं का देश है, जिसकी पहली पसंद विभिन्न खेल स्पर्धायें हैं, शायद यही कारण है कि पत्र-पत्रिकाओं में अगर सबसे आधिक कोई पन्ने पढ़े जाते हैं तो वे खेल से सम्बन्धित होते हैं। प्रिंट मीडिया के अलावा टेलीविजन चैनलों का भी एक बड़ा हिस्सा खेलों के प्रसारण से जुड़ा होता है। खेल चैनल तो चौबीसों घंटे कोई न कोई खेल लेकर हाजिर ही रहते हैं। लाइव कवरेज या सीधा प्रसारण की बात तो छोड़िये रिकॉर्डेड पुराने मैचों के प्रति भी दर्शकों का रुझान कहीं कम नहीं दिखाई देता। अतीत की बात करें तो भारत में कबड्डी, खो-खो, कुश्ती, हाकी से लेकर आधुनिक खेल खेले और देखे जाते थे। आजादी के बाद भारत में हाकी को राष्ट्रीय खेल का दर्जा दिया गया, वजह पर गौर करें तो ओलम्पिक में 1928 से 1956 के बीच हमारे खिलाड़ियों का अपराजेय पौरुष रहा है।

खेलों के क्षेत्र में गुलाम भारत में यदि किसी खेल की दुनिया भर में विजय पताका फहरी तो वह हाकी ही थी। भारत का ओलम्पिक हाकी में लगातार छह स्वर्ण पदक जीतना आज भी इतिहास है। 1980 मास्को ओलम्पिक में आखिरी बार भारतीय टीम स्वर्ण पदक जीती थी। बाद के दशकों में हाकी इस कदर पिछड़ती चली गई कि 2008 के बीजिंग ओलम्पिक में हमें खेलने तक की पात्रता नसीब नहीं हुई। हाकी  में ऐसा पहली बार हुआ था लेकिन अखबारों में इस खेल की दयनीय स्थिति पर कोई विशेष टीका-टिप्पणी नजर नहीं आई। 1983 में कपिल देव की जांबाज टोली का क्रिकेट में दुनिया फतह करना इस खेल को चार चांद लगा गया। उस विजय ने क्रिकेट को न केवल गांव-गली, नुक्कड़-चौराहे तक जगह दिला दी बल्कि समाचार-पत्रों के सम्पादकों को भी अपना नजरिया बदलने को विवश कर दिया।

आज भारत में क्रिकेट अखिल भारतीय दर्जा प्राप्त है। आज जो भाव विराट कोहली को लेकर है वही भाव कुछ साल पहले तक सचिन तेंदुलकर को लेकर रहा है। क्रिकेट मैदानों में क्रिकेट इज आवर रिलीजन, सचिन इज आवर गाड के पोस्टर भारत में क्रिकेट खिलाड़ियों को मिलने वाली शोहरत और प्रतिष्ठा की ही तरफ इशारा करते हैं। हिन्दुस्तान में क्रिकेट की दीवानगी और सैटेलाइट टेलीविजनों के अभ्युदय ने इस खेल पर लिखने वालों की एक बड़ी पलटन तैयार कर दी है। जिन सम्पादकों की खेलों से अरुचि रही है, उन्होंने भी इस खेल पर लिखने की ठान ली। सम्पादकों की इसी रुचि ने एक तरह से खेल-पत्रकारिता को नई ऊर्जा प्रदान की है। आजादी के लगभग तीन दशक तक सम्पादकों ने खेल-पत्रकारिता को गरीब की लुगाई की ही तरह देखा। ऐसा नहीं कि तब अखबारों में खेल की खबरें नहीं होती थीं, लेकिन जिस तरह से हमारे समाज में खेलों को लेकर एक तरह की उदासीनता का भाव दिखाई पड़ता है उसी रूप में अखबारों ने भी खेलों की खबरों के साथ सलूक किया।

हिन्दीभाषी क्षेत्रों में पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे खराब यह जुमला आज भी सुनाई देता है। भारत में खेल-पत्रकारिता के अभ्युदय से पहले अज्ञेय के मन में दिनमान की कल्पना का भूत सवार हुआ और उन्होंने अपने ऊपर शोध करने वाले एक छात्र योगराज थानी को खेल डेस्क का प्रमुख बनाकर हिन्दी खेल-पत्रकारिता के भविष्य पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया। हिन्दी पत्रकारिता पर साहित्यकारों के हावी होने के कुछ दुष्परिणामों में से एक यह भी था। ऐसे साहित्यकार-सम्पादकों ने खेल पत्रकारिता को एक स्वतंत्र विधा के रूप में विकसित नहीं होने दिया। इसके विपरीत मैं स्वर्गवासी प्रभाष जोशी को हिन्दी खेल पत्रकारिता का पितृ पुरुष मानता हूं। 1984 में जब जनसत्ता का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तब बतौर सम्पादक प्रभाष जोशी जी ने खेलों के लिए अखबार में पर्याप्त जगह निकाली। इतना ही नहीं श्री जोशी जी ने सक्षम खेल पत्रकारों को चुनकर जनसत्ता की मजबूत खेल डेस्क बनाई और उन्हें वाहन भत्ता देकर हिन्दी में स्वतंत्र खेल रिपोर्टिंग की नींव डाली। उन्होंने दैनंदिन खेल पृष्ठ के साथ-साथ सप्ताह में एक पन्ने का खेल परिशिष्ट भी शुरू किया।

श्री जोशी जी स्वयं भी खेलों पर लिखते थे। लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा संस्थान देश का पहला ऐसा संस्थान है जिसने खेल-पत्रकारिता में शिक्षण की नींव डाली लेकिन संस्थान का यह प्रयास लम्बे समय तक नहीं चल सका। लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा संस्थान ने खेल-पत्रकारिता की तालीम हासिल करने वाले छात्र-छात्राओं को देश के वरिष्ठ खेल लेखकों के अनुभवों का लाभ दिलाने के प्रयास भी किए। यह अवसर प्रभाष जोशी के साथ ही मुझे भी नसीब हुआ। कुछ घण्टे की इस मुलाकात में मुझे भी अग्रज प्रभाष जोशी से बहुत कुछ सीखने को मिला। प्रभाष जोशी के खेल लेखन में भारतीयता कूट-कूट कर भरी थी।

मध्य प्रदेश की जहां तक बात है, मैं नई दुनिया समाचार-पत्र प्रबंधन का शुक्रगुजार हूं कि उसने खेलों और खिलाड़ियों के प्रोत्साहन के लिए न केवल समय-समय पर खेलों के बहुरंगी परिशिष्टों का प्रकाशन किया बल्कि पाक्षिक खेल-पत्रिका खेल-हलचल का प्रकाशन कर खेल पत्रकारिता की दिशा में एक नजीर पेश की। हालांकि इक्कीसवीं सदी के पहले ही दशक में इसका प्रकाशन बंद कर दिया गया लेकिन फिर भी विशेष खेल अवसरों पर नई दुनिया समाचार पत्र में विशेषांक निकलते रहे। खेल हलचल की हलचल समाप्त होने से पूर्व ही इंद्रजीत मौर्य जी ने खेलों की सम्पूर्ण पत्रिका नेशनल स्पोर्ट्स टाइम्स का प्रकाशन भोपाल से शुरू कर निराश खेल-खिलाड़ियों में आशा की किरण जगाई। सच कहें तो नेशनल स्पोर्ट्स टाइम्स पत्रिका इस समय देश की पहली ऐसी खेल पत्रिका है जिसमें सभी खेलों को पर्याप्त स्थान दिया जा रहा है। इस पत्रिका ने खेलों पर लिखने वालों को ऐसा प्लेटफार्म दिया है, जोकि अन्य पत्रिकाओं में सम्भव नहीं है। मौर्य जी दो दशक से पत्रिका के प्रकाशन का जो चुनौतीपूर्ण दायित्व निर्वहन कर रहे हैं, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है। दरअसल देश और प्रदेश में खेलों का पाठक वर्ग तो है लेकिन वह पैसा खर्च नहीं करना चाहता।

मध्य प्रदेश में इंदौर को खेल पत्रकारिता का गढ़ माना जाता है तो ग्वालियर में भी खेलों के प्रति लगाव कम नहीं है। ग्वालियर में खेल पत्रकारिता का प्रतिस्पर्धात्मक दौर न होने के वाबजूद मैंने 2009 में साप्ताहिक खेलपथ समाचार पत्र के प्रकाशन का निर्णय लिया। यह निर्णय मेरे लिए चुनौतीपूर्ण साबित हुआ। लाख किन्तु-परन्तु के बाद भी मैं हर रोज खेलों और खिलाड़ियों के प्रोत्साहन के लिए कुछ कर पा रहा हूं, यह मेरे लिए संतोष की बात है। देश की अन्य पत्र-पत्रिकाओं की बात की जाए तो आजकल खेल-खिलाड़ी, खेल युग, स्पोर्ट्स वीक, क्रिकेट सम्राट, क्रिकेट भारती जैसी अनेक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं जो विश्व भर की खेल हलचलों को अपने पत्र में स्थान देने का प्रयास कर रही हैं। खेलों की पत्र-पत्रिकाओं से इतर हर पत्रिका में खेलों का एकाध आलेख प्रकाशित होना खेल-पत्रकारिता के लिए सम्बल का ही काम कर रहा है। खुशी की बात है कि आज लगभग सभी अखबारों में एक अलग खेल डेस्क है तथा खेल पत्रकारों को अन्य पत्रकारों से कुछ अलग सुविधाएं मिलने लगी हैं।

पाठकों और दर्शकों की खेलों के प्रति दीवानगी का ही नतीजा है कि आज खेल की दुनिया में अकूत धन बरस रहा है। एक समय ऐसा भी था जब खेलों में धन-दौलत का कोई नामोनिशान नहीं था। प्राचीन ओलम्पिक खेलों जैसी प्रसिद्ध खेल स्पर्धाओं में भी विजेता को जैतून की पत्तियों के मुकुट बतौर पुरस्कार दिये जाते थे। खेलों में धन-वर्षा का प्रारम्भ कार्पोरेट जगत के प्रवेश से हुआ। कार्पोरेट जगत के प्रोत्साहन से कई खेल और खिलाड़ी प्रोफेशनल होने लगे और खेल-स्पर्धाओं से लाखों-करोड़ों कमाने लगे। आज टेनिस, फुटबॉल, बास्केटबॉल, बॉक्सिंग, स्क्वैश, गोल्फ जैसे खेलों में भी पैसे की बरसात हो रही है। खेलों की लोकप्रियता और खिलाड़ियों की कमाई की बात करें तो आज क्रिकेट ने, जो दुनिया के गिने-चुने देशों में ही खेला जाता है, लोकप्रियता की नई ऊंचाइयां हासिल की हैं।

क्रिकेट में कारपोरेट जगत के रुझान के कारण नवोदित क्रिकेटर भी अन्य खिलाड़ियों की तुलना में अच्छी खासी कमाई कर रहे हैं। खेलों में धनवर्षा में कोई बुराई नहीं है। इससे खेलों और खिलाड़ियों के स्तर में सुधार ही होता है, लेकिन उसका बदसूरत पहलू यह भी है कि खेलों में गलाकाट स्पर्धा के कारण इसमें फिक्सिंग और डोपिंग जैसी बुराइयों का प्रचलन भी बढ़ने लगा है। फिक्सिंग और डोपिंग जैसी बुराईयां न खिलाड़ियों के हित में हैं और न खेलों के। खेल-पत्रकारों की यह जिम्मेदारी है कि वह खेलों में पनप रहे ऐसे कुलक्षणों पर भी कलम चलाएं ताकि हर हाल में खेलभावना की रक्षा हो सके।

खेल पत्रकारों से यह उम्मीद भी की जाती है कि वे आम लोगों से जुड़े खेलों को भी उतना ही महत्व और प्रोत्साहन दें जितना अन्य लोकप्रिय खेलों को मिल रहा है। खेल पत्रकारिता किसी भी समाचार मीडिया संगठन का आज एक अनिवार्य अंग है। खिलाड़ियों के लिए खेल में करियर आज अपने उफान पर है तो खेल पत्रकारों के लिए भी यह सुखद अवसर से कम नहीं है। आज टेलीविजन, रेडियो, पत्रिकाएं, इंटरनेट लोगों के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गए हैं। हर कोई चाहता है कि उसे खेलों की नवीनतम जानकारी हासिल हो। पाठकों को खेल पत्रकारिता के इस अवसर का लाभ तब तक नहीं मिल सकता जब तक कि हर भाषा में खेल पत्रिकाएं नहीं प्रकाशित होतीं।

खेल पत्रकारिता कड़ी मेहनत और जुनून का कार्य है। हम अपने दफ्तर में बैठकर ही खेल-खिलाड़ियों के प्रोत्साहन के साथ न्याय नहीं कर सकते। जरूरत है हम हर खेल के तकनीकी पहलू को समझें। खेल पत्रकारिता का अभी शैशवकाल है, इसे हम ईमानदारी से ही समृद्ध कर सकते हैं। कालांतर में बेशक खेल-पत्रकारिता को कमतर आंका जाता रहा हो, आज यह सबसे दुरूह कार्य है। पत्रकारिता के क्षेत्र में खेल पत्रकारिता सबसे कठिन है। इस महती कार्य को हर कोई नहीं कर सकता। यह एक तरह से तपस्या है, जो जितना तपेगा उतना ही निखरेगा। आओ खेलों के विकास की खातिर खेल-पत्रकारिता को समृद्ध करें।

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