टीम इंडिया का ‘विलेन’

अपने रसूख़ के चलते कप्तान बना, मनमानियां कीं और टीम के दो हिस्से कर दिए
मशहूर अभिनेता के.के. मेनन ने एक बार कहा था - क्रिकेट या स्पोर्ट्स के साथ ख़ास बात ये है कि अगर आप ख़ेल में अच्छा प्रदर्शन करने में असफ़ल रहते हैं तो आपको टीम से बाहर कर दिया जाता है. बॉलीवुड से इतर, ख़ेल में रसूख़ या प्रभाव के कोई मायने नहीं है और अंत में परफ़ॉर्मेंस ही हमेशा आपके काम आती है.लेकिन भारतीय क्रिकेट इतिहास में एक ऐसा खिलाड़ी भी था जिसने के.के. की सभी बातों को धता बता दिया था. फ़र्स्ट क्लास क्रिकेट में भी लचर प्रदर्शन करने वाला ये शख़्स न केवल अपने रसूख़ के चलते ही भारतीय टीम का कप्तान बना बल्कि टीम में होते हुए जमकर मनमानियां की. ये वही क्रिकेटर था जिसे विज़डन ने दुनिया के सबसे खराब क्रिकेटर्स की सूची में शामिल किया था.

विजयनगरम के महाराजकुमार उर्फ़ विज़्ज़ी. भारतीय क्रिकेट इतिहास का सबसे विवादास्पद चेहरा. एक ऐसा खिलाड़ी जिसने अपनी पावर और पॉलिटिकल कनेक्शन के दम पर भारत की क्रिकेट टीम की मिट्टी पलीद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. घमंड में चूर दोयम दर्जे का ये खिलाड़ी भारतीय टीम का कप्तान बनना चाहता था और अपने प्रभाव के चलते वो कप्तान बना भी, लेकिन जिस इंग्लैंड दौरे पर उन्होंने कप्तानी की, वो भारतीय टीम के इतिहास का सबसे त्रासदी भरा दौरा साबित हुआ.
विज़्ज़ी का असली नाम विजय आनंद गजापति राजू था. उनका जन्म विजयनगरम के प्रिंसली स्टेट में हुआ था जिसे आज आंध्र प्रदेश कहा जाता है. वे पुसापति विजयराम गजापति राजू के छोटे बेटे थे और छोटा होने के कारण ही उन्हें अपने पिता के साम्राज्य को संभालने का मौका नहीं मिला. विज़्ज़ी की क्रिकेट में गहरी दिलचस्पी थी पर एक खिलाड़ी के तौर पर उनकी क्षमताएं बेहद सीमित थी.

मिहिर बोस अपनी किताब 'द हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन क्रिकेट' में लिखते हैं कि 18वीं शताब्दी में सर होराटियो मान और 20वीं शताब्दी में सर जूलियन कान की तरह ही अगर विज़्ज़ी भी क्रिकेट में एक स्पॉन्सर के तौर पर अपनी सेवाएं प्रदान करते, तो शायद उनका नाम क्रिकेट के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाता, पर विज़्ज़ी सिर्फ़ स्पॉन्सर या प्रशासक की भूमिका नहीं चाहते थे बल्कि उन्हें तो क्रिकेट खेलने का चस्का था और उनकी यहीं ख्वाहिश उस दौर में भारतीय क्रिकेट के पतन की वजह बनी थी. विज़्ज़ी के चलते सीके नायडू और वज़ीर अली के करियर पर फ़र्क पड़ा और लाला अमरनाथ जैसे महान खिलाड़ी को गंभीर विवाद का सामना करना पड़ा था.
भारत में क्रिकेट की शुरूआत 1929 में हुई थी. सन 1930 में भारत ने इंग्लैंड के खिलाफ़ चार टेस्ट मैच खेले थे. भारत में क्रिकेट की बढ़ती लोकप्रियता देख क्रिकेट प्रशासकों ने फ़ैसला किया कि देश में घरेलू चैंपियनशिप की शुरूआत होनी चाहिए.

महाराजा ऑफ़ पटियाला ने इस चैंपियनशिप के लिए एक ट्रॉफ़ी डोनेट करने की पहल की. वे खुद एक अच्छे क्रिकेटर थे और वे केएस रणजीत सिंह जी के नाम पर ये ट्रॉफ़ी डोनेट करना चाहते थे. 500 पाउंड की कीमत वाली इस ट्रॉफ़ी को डिज़ाइन कराया गया और महाराजा के इस फेवर के बाद कहीं न कहीं पटियाला ने भारतीय क्रिकेट बोर्ड पर मज़बूत पकड़ बना ली थी. महाराजा ऑफ़ पटियाला की क्रिकेट बोर्ड में बढ़ती कोशिशों को देखते हुए विज़्ज़ी ने खुद मैदान में उतरने का फ़ैसला किया. विज़्ज़ी ने इंग्लैंड से एक शानदार सोने की ट्रॉफ़ी भी बनवाई और बोर्ड को मनाने की कोशिश की थी कि घरेलू चैंपियनशिप के लिए इस ट्रॉफ़ी को आधिकारिक ट्रॉफ़ी की तरह इस्तेमाल किया जाए.

विज़्ज़ी ने यहां तक भी मांग की कि भारत की घरेलू चैंपियनशिप का नाम रणजी ट्रॉफ़ी से बदलकर विलिंगडन ट्रॉफ़ी कर दिया जाए. उनका तर्क था कि रणजी ने इंग्लैंड के लिए क्रिकेट खेला है और वो अपने आपको इंग्लिश क्रिकेटर मानते हैं, इसलिए रणजी ट्रॉफ़ी भारत में नहीं खेली जानी चाहिए. वे मानते थे कि लॉर्ड विलिंगडन ने रणजी से काफी ज़्यादा समय भारत में व्यतीत किया है और भारतीय क्रिकेट में उनका योगदान रणजी से ज़्यादा है. लेकिन उनके इन सभी कोशिशों का कोई फ़ायदा नहीं हुआ क्योंकि उनकी दलीलों से पहले ही रणजी ट्रॉफ़ी के दो मैच खेले जा चुके थे.
1932 में उन्होंने इंग्लैंड का टूर प्रायोजित किया था जिसकी वजह से उन्हें भारत की उप-कप्तानी मिल गई थी लेकिन स्वास्थ्य कारणों के चलते उन्होंने टीम से अपना नाम वापस ले लिया था. इसके चार साल बाद यानि 1936 में उनका प्रभाव इतना बढ़ चुका था कि इंग्लैंड के टूर के लिए उन्हें भारत का कप्तान बना दिया गया. ज़ाहिर है एक बेहद औसत दर्जे का कप्तान होने पर भारत इस सीरीज़ में बुरी तरह हारा.

विज़्ज़ी ने इंग्लैंड दौरे पर तीन टेस्ट मैच खेले. 6 इनिंग्स में महज 33 रन बनाए. इनमें से 5 पारियों में नंबर 9 पर बल्लेबाज़ी की और कोई गेंदबाज़ी नहीं की. हालांकि इंग्लैंड के टूर मैचों में उनका औसत थोड़ा बेहतर था यानि 16.25. 
लेकिन ये औसत भी कम विवादास्पद नहीं था क्योंकि विज़्ज़ी ने विरोधी टीम के कप्तान को एक सोने की घड़ी गिफ़्ट की थी ताकि बदले में वे उन्हें आउट न करें. काउंटी कप्तान के मुताबिक, 'मैंने उसे कुछ फ़ुल टॉस गेंदे और कुछ आसान सी शॉर्ट गेंदे फ़ेंकी थी. लेकिन आप इस तरह की गेंदें फ़ेंक कर पूरा दिन नहीं निकाल सकते, कम से कम इंग्लैंड में तो नहीं.' ज़ाहिर है, वो दुनिया के पहले स्पॉट फ़िक्सर थे.
विज़्ज़ी भले ही निम्न दर्जे के खिलाड़ी थे लेकिन ये उनकी दिली ख्वाहिश थी कि उन्हें नाइटहुड की उपाधि मिले. पॉलिटिकल पावर और अपने रसूख के चलते ऐसा संभव भी हो गया था और 15 जुलाई 1936 को उन्हें नाइटहुड की उपाधि मिलनी थी, इसी के चलते वे लंकाशायर के खिलाफ़ होने वाला मैच नहीं खेल रहे थे.

उनकी गैरमौजूदगी में सीके नायडू को भारतीय टीम की कमान सौंपी गई थी. विज़्ज़ी को पता लग चुका था कि लंकाशायर को मैच जीतने के लिए 199 रन चाहिए और उन्होंने मोहम्मद निसार को संदेश पहुंचाया कि इंग्लैंड के खिलाड़ियों को केवल फ़ुल टॉस डाली जाए. दरअसल विज़्ज़ी नहीं चाहते थे कि नायडू की कप्तानी में भारत कोई मैच जीते.
निसार की निराशाजनक गेंदबाज़ी देखते हुए फ़ील्ड कप्तान नायडू ने उसे गेंदबाज़ी से हटा दिया और उसकी जगह जहांगीर खान को गेंदबाज़ी का मौका दिया. भारत ने इस दौरे पर सिर्फ़ दो मैच जीते थे और ये मैच भी उनमें से एक था. भारतीय टीम में अब दो गुट बन चुके थे. टीम में एक तरफ़ नायडू कैंप था तो दूसरी तरफ़ विज़्ज़ी कैंप. विज़्ज़ी टीम में अपने समर्थक खिलाड़ियों को खूब ऐश कराते थे, जिसमें फ़्री पेरिस यात्रा भी शामिल थी. भारतीय टीम में फ़ूट इस कदर पड़ चुकी थी कि बाबा जिलानी नाम के एक खिलाड़ी को टेस्ट मैच खेलने का मौका सिर्फ़ इसलिए मिला था क्योंकि उसने ब्रेकफ़ास्ट के समय नायडू की बेइज़्ज़ती की थी जिसका ईनाम विज़्ज़ी ने उसे मैच खिलाकर दिया था. ये घटना ओवल में होने वाले तीसरे टेस्ट से पहले की थी. लाला अमरनाथ के साथ भी विज़्ज़ी का तगड़ा विवाद हुआ था. अमरनाथ टीम के सबसे भरोसेमंद खिलाड़ियों में से थे लेकिन विज़्ज़ी से उनकी नहीं बनती थी और यही कारण था कि उन्हें टीम से बाहर का रास्ता देखना पड़ा था. 

दरअसल इंग्लैंड टूर के दौरान मिडिलसेक्स के साथ हुए एक मैच में अमरनाथ गेंदबाज़ी कर रहे थे लेकिन अपनी गेंदबाज़ी के समय वो विज़्ज़ी की फ़ील्ड प्लेसमेंट से खुश नहीं थे. अमरनाथ इतने हताश हो चुके थे कि उन्होंने एक बार अपनी बॉलिंग के दौरान बॉल भी ज़मीन पर दे मारी थी. हालांकि उन्होंने अपना स्पेल ज़रूर खत्म किया था. विवाद के बावजूद अमरनाथ ने इस मैच में 29 रन देकर 6 विकेट लिए थे. माना जाता है कि विज़्जी और अमरनाथ का विवाद इतना बढ़ा था कि टीम मैनेजर ने अमरनाथ पर व्यभिचारी होने का आरोप मढ़ा था लेकिन आरोप साबित न होने के चलते उन पर कार्यवाई नहीं हुई थी.

इस घटना के बाद एक और मैच के दौरान मर्चेंट और मुश्ताक अली बल्लेबाज़ी कर रहे थे और 215 रन जोड़ चुके थे. अमरनाथ अपनी पारी का इंतज़ार कर रहे थे लेकिन विज़्ज़ी ने जानबूझकर उन्हें नायडू, अमर सिंह और वज़ीर जैसे खिलाड़ियों से नीचे भेजा. जब तक अमरनाथ की बारी आती, मैच में कुछ ही मिनट शेष थे. अमरनाथ हताश थे, गुस्से से भरे हुए थे और वे उस समय पंजाबी में गालियां देते हुए पवेलियन लौट रहे थे.

इस घटना के बाद अमरनाथ को अनुशासनहीनता के चलते टीम से निकाल दिया गया और वापस घर भेज दिया गया. अमरनाथ ने बहुत मिन्नतें की, माफ़ीनामा लिखा. अमरनाथ की तरफ़ से नायडू, वज़ीर, निसार और रामास्वामी तक ने विज़्ज़ी को अपना फ़ैसला वापस लेने के लिए कहा लेकिन विज़्ज़ी टस से मस नहीं हुए और अमरनाथ को दौरा बीच में छोड़कर वापस जाना पड़ा.

भारतीय टीम दो फ़ाड़ हो चुकी थी
अमरनाथ के जाने के बाद कुछ खिलाड़ियों ने अपनी मांग टीम बोर्ड के सामने रख दी.

1. टीम में नायडू या वज़ीर को उप कप्तान बनाया जाए

2. मैच की रणनीति को लेकर टीम के खिलाड़ियों से भी बातचीत की जाए.

3. टीम के सीनियर खिलाड़ियों के साथ सम्मान से पेश आया जाए.

4. टीम मैनेजमेंट किसी भी खिलाड़ी के साथ भेदभाव जैसा बर्ताव न करें.
विज़्ज़ी ने भले ही दबाव में आकर इन शर्तों को मान लिया था लेकिन वे अब भी अपनी मनमानी करने में ही व्यस्त थे और जिलानी वाला किस्सा इसकी एक बानगी भर थी.वहीं दूसरे टेस्ट मैच से पहले भी ऐसी स्थितियां बनी थी कि अमरनाथ के इंग्लैंड जाने की राह आसान हुई थी लेकिन अपनी राजनीतिक पकड़ के चलते विज़्जी ने एक बार फ़िर अमरनाथ का इंग्लैंड जाने का सपना तोड़ दिया था.
विजय मर्चेंट को किसी भी 'कैंप' के सदस्य नहीं माना जाता था. टीम में बढ़ते कलह को देखते हुए उन्होंने विज़्ज़ी को कप्तानी से हटने का आग्रह किया था. विज़्ज़ी ये सुनकर बेहद खफ़ा हुए थे और उन्होंने मर्चेंट को सबक सिखाने का फ़ैसला किया था.
दरअसल ओल्ड ट्रैफ़र्ड में होने वाले दूसरे टेस्ट से पहले दत्ताराम हिंडेलकर चोटिल हो गए थे और मुश्ताक अली को विजय मर्चेंट के साथ ओपनिंग करने का मौका मिला था. इस टेस्ट की दूसरी पारी शुरू होने से पहले विज़्ज़ी ने मुश्ताक को निर्देश दिए थे कि मर्चेंट को रन आउट करा दिया जाए. लेकिन मुश्ताक ने ये बात मर्चेंट को जाकर बता दी. दोनों इस बात पर खूब हंसे और दोनों ने ही इस पारी में शतक ठोंके. इन दोनों की 203 रनों की साझेदारी के कारण ही भारत ने अपने क्रिकेटीय इतिहास का पहला मैच ड्रा कराया था.
अमरनाथ-विज़्ज़ी विवाद में सितंबर में इस घटना की जांच के लिए Beaumont कमिटी का गठन किया गया. नवाब ऑफ़ भोपाल इस मामले की देख-रेख कर रहे थे. एक साल में इस पूरे मामले की रिपोर्ट आई. रिपोर्ट में विज़्ज़ी की कप्तानी को बेहद भयानक बताया गया. रिपोर्ट में ये भी लिखा था कि विज़्ज़ी को न तो फ़ील्ड प्लेसमेंट की कोई जानकारी थी और न ही बॉलिंग चेंज की. न ही वो एक अच्छे सेलेक्टर थे और न ही उन्हें किस बल्लेबाज़ को कब बल्लेबाज़ी के लिए भेजना है, इसके बारे में कोई आइडिया था. वे अच्छे खिलाड़ियों को निकालकर औसत खिलाड़ियों को मौका दे रहे थे और ये भारतीय क्रिकेट के लिए किसी भी हिसाब से आदर्श स्थिति नहीं कही जा सकती है. यही कारण था कि विज़्जी से कप्तानी छीन ली गई थी और उन्हें टीम से निकाल दिया गया था. इस मामले में अमरनाथ को निर्दोष घोषित किया गया था.
1936 की इस विवादास्पद सीरीज़ के बाद वे लो-प्रोफ़ाइल हो गए, हालांकि कुछ सालों बाद 50 के दशक में उन्होंने पॉलिटिक्स में हाथ आज़माया. यही नहीं उन्होंने प्रशासन अधिकारी और कमेंटेटर के तौर पर भी वापसी करने की कोशिश की. लेकिन एक कमेंटेटर के तौर पर भी वे बेहद बोरिंग साबित हुए. महान क्रिकेटर रोहन कन्हाई ने एक बार कहा था कि जब भी विज़्ज़ी कमेंटरी कर होते थे, ऐसा लगता था कि ट्रांज़िस्टर रेडियो को ऑन छोड़ दिया गया है और बोरियत से मौत होने ही वाली है.' विज़्ज़ी के बेटे ने भी 60 के दशक में तीन फ़र्स्ट क्लास मैच खेले थे और उन्होंने उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया था. अपने पिता की तरह ही वो भी दोयम दर्जे के क्रिकेटर थे और उन्होंने छह पारियों में सिर्फ़ 18 रन बनाए थे. 28 दिसंबर 1905 को पैदा हुए विज़्ज़ी का निधन 2 दिसंबर 1965 को हुआ था.

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