किस पर करें विश्वास, सबने किया निराश

टोक्यो में कौन भारतीय एथलीट बनेगा सरताज?

श्रीप्रकाश शुक्ला

अगले साल टोक्यो में होने वाले ओलम्पिक खेलों को लेकर कयासी बाजार गर्माने लगा है। हर बार की तरह इस बार भी एक मिथक टूटने का इंतजार हर भारतीय खेलप्रेमी के मन में है। एथलेटिक्स की बात करें तो भारत ओलम्पिक खेलों में 100 साल से भी अधिक समय से सहभागिता कर रहा है लेकिन आज तक इस विधा में उसे कोई पदक नहीं मिला है। हिमा दास, दुती चंद, नीरज चोपड़ा जैसे एथलीटों ने जूनियर स्तर पर जो कमाल दिखाए हैं, उससे उम्मीदें जरूर बंधती हैं लेकिन ओलम्पिक मेडल के लिए यह सब नाकाफी है। देखा जाए तो अभी बमुश्किल दो-चार एथलीटों ने ही ओलम्पिक खेलने की पात्रता हासिल की है। ओलम्पिक खेल अभी दूर हैं ऐसे में उम्मीद है कि अभी और एथलीट टोक्यो ओलम्पिक का टिकट कटा लेंगे लेकिन उनके पदक जीतने की सम्भावनाएं ना के बराबर हैं।

टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय एथलीटों से उम्मीद लगाने से पहले हमें अपने एथलीटों के मौजूदा प्रदर्शन पर नजर डालनी होगी। दोहा में हुई विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में भारतीय एथलीटों ने अपने अभियान का अंत मिश्रित सफलता के साथ किया। भारत की 27 सदस्यीय टीम से किसी पदक की उम्मीद नहीं थी लेकिन 3000 मीटर स्टीपलचेज फाइनल में जगह बनाने वाले स्टीपलचेज धावक अविनाश और मिश्रित चार गुणा 400 मीटर टीम ने टोक्यो ओलम्पिक 2020 के लिए क्वालीफाई कर भारतीय निराश चेहरों पर हल्की सी मुस्कान जरूर लौटा दी। एशियाई चैम्पियन गोपी थोनाकल पुरुष मैराथन में 21वें स्थान पर रहे तो भालाफेंक में अनू रानी आठवें स्थान पर रहीं। अनू रानी भाला फेंक के फाइनल में क्वालीफाई करने वाली पहली भारतीय महिला रहीं तो अविनाश ने तीन दिन में दो बार अपना ही राष्ट्रीय रिकार्ड तोड़ा। राष्ट्रीय रिकार्डतोड़ प्रदर्शन के बाद भी गोपी ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करने में नाकाम रहे। मैराथन का क्वालीफाइंग स्तर दो घंटे 11 मिनट और 30 सेकेंड था। इसी तरह से रांची में हुई 59वीं ओपन एथलेटिक्स में दुती चंद ने 100 और 200 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक जरूर जीते लेकिन ओलम्पिक क्वालीफाइंग मार्क से वंचित रहीं। यही हाल दूसरे नामवर एथलीटों का रहा।

दोहा में हुई विश्व चैम्पियनशिप में भारत की पुरुष और महिला चार गुणा 400 मीटर रिले टीमों ने निराश किया तो भाला फेंक खिलाड़ी शिवपाल सिंह भी कोई करिश्मा नहीं कर सके। विश्व चैम्पियनशिप में जिस्ना मैथ्यू, एमआर पूवम्मा, वीके विस्मया और वेंकटेशन सुभा की भारतीय महिला चौकड़ी भी तीन मिनट 29.42 सेकेंड के समय के साथ हीट एक में छठे और पहले दौर की हीट में 11वें स्थान पर रहते हुए फाइनल में जगह बनाने में विफल रही। भारतीय पुरुष चौकड़ी (अमोज जैकब, मोहम्मद अनस, के. सुरेश जीवन और नोह निर्मल टाम) भी तीन मिनट 3.09 सेकेंड के समय के साथ दूसरी हीट में सातवें और 16 टीमों में कुल 13वें स्थान पर रहते हुए प्रतियोगिता से बाहर हो गई। इससे पहले शिवपाल सिंह भी क्वालीफिकेशन दौर में कुल 24वें स्थान पर रहते हुए भालाफेंक के फाइनल में जगह बनाने में नाकाम रहे। चौबीस साल के शिवपाल ने 75.91 मीटर से शुरुआत की और फिर 78.97 मीटर का प्रयास किया। शिवपाल का तीसरा प्रयास फाउल रहा जिससे वह विश्व चैम्पियनशिप से बाहर हो गए। उनका सत्र का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 86.23 मीटर है। क्वालीफाइंग में 84 मीटर की दूरी तय करने वाले या कम से कम 12 सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों ने फाइनल में जगह बनाई। गत चैम्पियन जर्मनी के योहानेस वेटर 89.35 मीटर के साथ क्वालीफाइंग में शीर्ष पर रहे।

टोक्यो ओलम्पिक की जहां तक बात है भारत के स्टार भाला फेंक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा से सबसे अधिक उम्मीदें हैं। 21 वर्षीय नीरज कम उम्र में ही अनेकों झंझावातों का सामना कर चुके हैं। चोटों से जूझ रहे नीरज चोपड़ा की जहां तक बात है पानीपत के इस जांबाज ने 2016  में उस समय सुर्खियां बटोरी थीं जब उन्होंने विश्व जूनियर चैम्पियनशिप में 86.48 मीटर के विश्व रिकॉर्ड के साथ स्वर्ण पदक जीता था। नीरज गोल्ड कोस्ट राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीत चुके हैं। दोहा डाइमंड लीग में वह बेशक चौथे स्थान पर रहे लेकिन उन्होंने 87.43  मीटर के प्रयास के साथ नया राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाया। दो महीने पहले हिमा दास और दुती चंद भी कई प्रतियोगिताओं में स्वर्णिम प्रदर्शन के साथ देशवासियों की निगाहें अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहीं लेकिन ओलम्पिक ऐसा पड़ाव है जहां मेडल के लिए उन्हें विलक्षण प्रदर्शन करना होगा।

ओलम्पिक में भारतीय एथलीटों के अतीत पर नजर डालें तो फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह, गुरबचन सिंह रंधावा, श्रीराम सिंह, वालसम्मा, उड़नपरी पी.टी. ऊषा, अंजू बाबी जार्ज, ललिता बाबर जैसे एथलीट ही सुर्खियां हासिल कर सके। मिल्खा सिंह और गुरबचन सिंह रंधावा जहां 1960 दशक के हीरो थे वहीं 1970 का दशक श्रीराम सिंह के नाम था। श्रीराम 1970 के बैंकाक एशियाई खेलों में 800 मीटर का रजत पदक और 1974 में तेहरान में स्वर्ण लेकर वह 1976 के मॉन्ट्रियाल ओलम्पिक के लिए तैयार थे लेकिन जब दुनिया के बाकी एथलीट यूरोप और अमरीका में प्रतियोगिताओं में भाग लेने की तैयारी कर रहे थे, श्रीराम सिंह जुलाई की भरी बारिश के बीच दिल्ली के नेशनल स्टेडियम के बाहर पानी से भरे घास के मैदान पर प्रैक्टिस कर रहे थे। मॉन्ट्रियाल ओलम्पिक से पहले उन्होंने कभी टार्टेन ट्रैक पर पाँव भी नहीं रखा था लेकिन वह फाइनल में पहुँचे और 1:45.77 का समय निकाल कर सातवें स्थान पर रहे। उसी रेस में नया विश्व रिकॉर्ड बना था जिसका श्रेय रेस जीतने वेल आलबर्टू जुआंटोरना ने श्रीराम सिंह को दिया था। श्रीराम का एशियाई रिकॉर्ड 32 साल तक कायम रहा और भारत का राष्ट्रीय रिकॉर्ड तो अब भी कायम है। श्रीराम की ही तरह सेना के एक और एथलीट थे शिवनाथ सिंह। उन्होंने मॉन्ट्रियाल खेलों में हिस्सा लिया था। शिवनाथ सिंह मॉन्ट्रियाल ओलम्पिक की मैराथन दौड़ में दो घंटे 16 मिनट और 22 सेकेंड का समय निकालकर 11वें स्थान पर रहे। रेस में 60 एथलीटों ने हिस्सा लिया था। श्रीराम की तरह मॉन्ट्रियाल जाने से एक सप्ताह पहले शिवनाथ भी दिल्ली में भागने के लिए ठीक जगह ढूंढ़ रहे थे जबकि दुनिया के बाकी खिलाड़ी एक महीने पहले मॉन्ट्रियाल के मैराथन रूट का जायजा ले रहे थे, ऐसे में शिवनाथ का प्रदर्शन हर हाल में विश्वस्तरीय कहा जा सकता है।

देखा जाए तो भारतीय एथलीटों के लिए 1980 का दशक सबसे अहम था। नई दिल्ली में 1982 में हुए एशियाई खेलों में एम.डी. वालसम्मा ने महिलाओं की 400 मीटर बाधा दौड़ का स्वर्ण पदक जीता था। वालसम्मा कमलजीत संधू के बाद एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली दूसरी भारतीय महिला थीं। खास बात यह है कि वालसम्मा को देखकर ही पी.टी. ऊषा ने हर्डल्स में हिस्सा लेने का मन बनाया। वालसम्मा ने लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में भारत की 4x400 रिले को सातवाँ स्थान दिलवाने में अहम भूमिका निभाई। वैसे तो पी.टी. ऊषा ने ट्रैक एण्ड फील्ड प्रतियोगिताओं में काफी नाम कमाया लेकिन सही मायनों में भारतीय महिला एथलीटों की प्रेरणास्रोत वालसम्मा ही थीं।

भारतीय महिलाएं हर क्षेत्र में विजय पताका फहरा रही हैं। खेल के क्षेत्र में भी भारतीय बेटियों ने अपने प्रदर्शन से नए प्रतिमान गढ़े हैं। एथलेटिक्स में भारतीय महिलाओं की बात करें तो उड़न परी पी.टी. ऊषा, अंजू बॉबी जॉर्ज और ललिता बाबर ने जो करिश्मा किया है, उसके करीब भी कोई अन्य भारतीय महिला एथलीट नहीं पहुंची है। गौरतलब है कि ओलम्पिक के 100 साल से अधिक समय में भी कोई भारतीय एथलीट मेडल नहीं जीत सका तो विश्व एथलेटिक्स में अंजू बॉबी जॉर्ज ही एकमात्र कांस्य पदक जीत पाई हैं। इस नाकामयाबी के लिए खिलाड़ियों से कहीं अधिक भारतीय खेल सिस्टम को कसूरवार माना जा सकता है। अंजू बॉबी जॉर्ज भारत की सबसे सम्मानित एथलीटों में से एक हैं। उन्होंने भारत को एक ऐसी उपलब्धि दिलाई जो अब तक देश की कोई अन्य एथलीट नहीं कर सकी है। अंजू ने भारत को एथलेटिक्स में पहला अंतरराष्ट्रीय मेडल दिलाया। लांग जम्पर अंजू ने 2003 में पेरिस में हुई वर्ल्ड एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीता था। तब उन्होंने 6.70 मीटर की कूद लगाई थी। अंजू वर्ल्ड एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में पदक जीतने वाली एकमात्र भारतीय एथलीट हैं।

अंजू की आदर्श एथलीट कोई और नहीं बल्कि पी.टी. ऊषा हैं। पी.टी. ऊषा भारत की पहली महिला एथलीट हैं जोकि ओलम्पिक के फाइनल तक पहुंची थीं। ऊषा के बाद ललिता बाबर ही ऐसा करिश्मा कर सकीं। पुरुष एथलीटों की बात करें तो 1960 में मिल्खा सिंह ने रोम ओलम्पिक में वर्ल्ड रिकार्ड बनाने के बाद भी मेडल से चूक गए थे। साथ ही 1984 के लासएंजिल्स ओलम्पिक में पी.टी. ऊषा 0.6 सेकेंड्स से मेडल चूकी थीं। अंजू 2004 एथेंस ओलम्पिक की लम्बीकूद स्पर्धा के फाइनल तक जरूर पहुंचीं लेकिन पदक जीतने में नाकामयाब रहीं। भारत को रियो ओलम्पिक में ललिता बाबर के महिलाओं की 3000 मीटर स्टीपलचेज के फाइनल में पहुंचने से मेडल की बड़ी उम्मीद बंधी थी लेकिन वह दसवें स्थान पर रहीं। भारत ने आजादी के बाद से अब तक खेलों में बहुत तरक्की की है लेकिन आजादी के 72 साल बाद भी यह प्रयास विश्व स्तर पर खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए नाकाफी है। देश में उड़नपरी पी.टी. ऊषा और मिल्खा सिंह का नाम लोगों की जुबान पर इसलिए है क्योंकि ये मामूली अंतर से ओलम्पिक पदक जीतने से वंचित रहे। पी.टी. ऊषा को 1984, 1985, 1986, 1987 तथा 1989 में एशिया महाद्वीप की सर्वश्रेष्ठ महिला धाविक घोषित किया गया। इसके साथ ही साल 1985 और 1986  में उन्हें दुनिया की सर्वश्रेष्ठ महिला धावक के पुरस्कार से भी नवाजा गया। यह पुरस्कार हासिल करने वाली ऊषा पहली भारतीय एथलीट हैं।

पिछले रियो ओलम्पिक में बैडमिंटन स्टार पी.वी. सिन्धू के रजत की चमक और महिला पहलवान साक्षी मलिक के कांस्य की धमक के साथ भारत का अभियान दो पदकों के साथ समाप्त होना वाकई अखरने वाली बात थी क्योंकि तब भारत ने अपना सबसे बड़ा दल उतारा था। रियो में कई दिग्गजों के सुपर फ्लॉप प्रदर्शन से भारत की झोली में उम्मीदों से कहीं कम पदक ही आ सके थे। भारत ने 2012 के पिछले लंदन ओलम्पिक में दो रजत और चार कांस्य सहित छह पदक जीते थे जबकि 2008 के बीजिंग ओलम्पिक में भारत ने एक स्वर्ण और दो कांस्य पदकों पर कब्जा जमाया था। शटलर पी.वी. सिन्धू और साक्षी मलिक की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने अपने जांबाज प्रदर्शन से देश को शर्मसार होने से बचा लिया। रियो में भारतीय एथलीटों में गणपति कृष्णन और गुरमीत सिंह 20 किलोमीटर पैदल चाल में तो पुरुषों की चार गुणा 400 मीटर रिले टीम अयोग्य करार दी गई थी। सपना पूनिया 20 किलोमीटर पैदल चाल स्पर्धा भी पूरी नहीं कर सकी थीं। रियो में एथलीटों का प्रदर्शन काफी शर्मनाक रहा जबकि इन पर सरकार ने करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाया था।

एथलेटिक्स में दुती चंद 100 मीटर दौड़, श्रावणी नंदा 200 मीटर दौड़ और निर्मला श्योरण 400 मीटर दौड़ की हीट में ही बाहर हो गई थीं। मनप्रीत कौर को शॉटपुट में 23वां और सीमा पूनिया को डिस्कस थ्रो में 20वां स्थान मिला। महिला मैराथन में ओपी जैशा 89वें और कविता रावत 120वें स्थान पर रहीं। पुरुष एथलीटों में मोहम्मद अनस 400 मीटर दौड़ और जिनसन जॉनसन 800 मीटर दौड़ की हीट में ही बाहर हो गये। 20 किलोमीटर पैदल चाल में मनीष सिंह 13वें स्थान पर रहे। अंकित शर्मा लम्बी कूद में 24वें, रंजीत माहेश्वरी तिहरी कूद में 30वें और विकास गौड़ा डिस्कस थ्रो में 28वें स्थान पर रहे। टोक्यो ओलम्पिक खेलों को 10 महीने से भी कम समय बचा है। अधिकांश देशों के एथलीट जहां ओलम्पिक मेडल जीतने की तैयारी कर रहे हैं वहीं हमारे खेलनहार ओलम्पियन कहलाने की कवायद में जुटे हैं। एथलीटों के मौजूदा प्रदर्शन को देखते हुए टोक्यो ओलम्पिक में भी एथलीटों से पदक की उम्मीद नहीं की जा सकती।

 

 

रिलेटेड पोस्ट्स