विकलांग होना अभिशाप नहींः देवेन्द्र झाझरिया

विश्वनाथन आनंद, गीत सेठी, मैरीकॉम, सायना नेहवाल या देवेन्द्र झाझरिया ऐसे खिलाड़ी हैं जो कभी न कभी अपने-अपने खेलों में पूरी दुनिया में पहले स्थान पर रहे हैं. इनमें देवेन्द्र झाझरिया को छोड़कर ये सभी खिलाड़ी आज वरीयता क्रम में दूसरे, तीसरे या और भी नीचे के पायदान पर खिसक गए हैं. देवेन्द्र इकलौते ऐसे खिलाड़ी हैं जो अपने खेल में न सिर्फ दुनिया में पहले पायदान पर बने हुए हैं बल्कि पैरालम्पिक्स की भाला फेंक स्पर्धा में उन्होंने अपना ही पिछला रिकॉर्ड तोड़कर नया विश्व रिकॉर्ड बनाया. इसके बावजूद भी विश्वनाथन आनंद, सायना नेहवाल, मैरीकॉम आदि की तुलना में देवेन्द्र को बमुश्किल ही बच्चे और युवा जानते हैं. अब सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है?
पिछले 116 सालों में हुए 24 ओलम्पिक में भारत ने कुल नौ स्वर्ण पदक जीते हैं और दूसरी तरफ रियो के ही पैरालिम्पिक्स में भारतीय खिलाड़ियों ने देश को दो स्वर्ण पदक दिलाए. लेकिन विडम्बना देखिए कि पूरा देश इन नायक/नायिकाओं के नाम और शक्ल उस तरह से नहीं पहचानता जैसे ओलंपिक विजेताओं के! क्या यह महज इत्तेफाक है कि पैरालम्पिक्स में स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक विजेताओं की मीडिया में चर्चा, ओलम्पिक पदक विजेताओं से कहीं कम है?
क्या यह भी इत्तेफाक ही है कि ओलम्पिक में रजत पदक विजेता पीवी सिंधु (लगभग 13 करोड़ रुपये और एक बीएमडब्लू कार), और साक्षी मलिक (लगभग साढ़े आठ करोड़ रुपये और एक बीएमडब्लू कार) करोड़ों में खेल गए जबकि पैरालम्पिक्स के एक स्वर्ण पदक विजेता देवेन्द्र झाझरिया की ईनामी राशि कुछ लाख रुपये तक ही सिमटी रही. दूसरे स्वर्ण पदक विजेता थंगवेलू मरियप्पन (ऊंची कूद) और कांस्य पदक पाने वाले वरुण सिंह भाटी (ऊंची कूद) को मिलने वाली राशि बहुत कम है। हां, पैरालिम्पिक्स रजत पदक विजेता दीपा मलिक (गोला फेंक) को हरियाणा सरकार ने चार करोड़ रुपये जरूर दिए।
हालांकि खेल मंत्रालय ने ओलम्पिक और पैरालम्पिक्स, दोनों आयोजनों के पदक विजेताओं को समान पुरस्कार राशि देने की बात कही है लेकिन अब तक न तो उद्योग जगत और न ही कोई एनआरआई पैरालम्पियन्स को प्रोत्साहन स्वरूप कोई बड़ी धनराशि देने के लिए सामने आए हैं. पैरालम्पियन्स को भी बीएमडब्लू देने का ख्याल इस कार कंपनी के मन में नहीं आया. सवाल तो यह भी उठता है कि यदि ये दो गोल्ड मेडल पैरालम्पिक्स के बजाय ओलम्पिक में जीते गए होते, तब भी क्या यह ईनामी राशि ऐसी ही होती? बिल्कुल नहीं।
तब हर जुबान पर ओलम्पिक स्वर्ण पदक विजेताओं के नाम होते. हर अखबार में पहले पन्ने पर उनकी फोटो होती. उनके सम्मान में आयोजनों की भरमार होती. हर कोई उनके साथ फोटो खिंचवाने के लिए पागल हो रहा होता. विज्ञापन कंपनियां उनको अपना ब्रांड एंबेसडर बनाने के लिए लाइन में खड़ी होतीं. वे रातों-रात करोड़ और अरबपति बन जाते. लेकिन यह सब सिर्फ तब बरसता है जब आप एक सर्वअंग इंसान हों. विकलांग होने पर स्वर्ण पदक भी किसी की किस्मत वैसे नहीं चमका सकता, जैसे सर्वअंग होने पर एक कांस्य पदक चमका देता है!
किसी भी विकलांग व्यक्ति का रोजमर्रा का जीवन सर्वअंग व्यक्ति की अपेक्षा बेहद मुश्किल होता है. ऐसे में विकलांग व्यक्तियों द्वारा हासिल की जाने वाली उपलब्धि अन्य किसी भी सर्वअंग व्यक्ति की उपलब्धि से कहीं ज्यादा बड़ी होती है. जिन पैरालम्पियन को उनकी उपलब्धियों के कारण कहीं ज्यादा ऊंचा दर्जा मिलना चाहिए था, उन्हें सामान्य खिलाड़ियों जितना भी मान, पहचान और पुरस्कार राशि नहीं मिली. यह भेदभाव बताता है कि देश में विकलांगों की उपलब्धियों को समाज किस नजर से देखता है. इन विकलांग नायक/नायिकाओं की उपलब्धियों की उपेक्षा देखकर ही मिल्खा सिंह का कहना है कि पैरालम्पिक्स खिलाड़ियों को सबसे ज्यादा मान्यता, सम्मान और पुरस्कार मिलने चाहिए.
भारत जैसे देश में तो पैरालम्पियन्स की उपलब्धि और भी बड़ी हो जाती है क्योंकि, यहां तो सर्वअंग व्यक्तियों के लिए ही सुविधाओं के अभाव और राजनीति की अति के कारण खेलना बड़ी चुनौती है. ऐसे में विकलांगों का अपनी दैहिक चुनौतियों के पार जाकर, पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक उपेक्षा को अनदेखा कर पूरी दुनिया में अपना स्थान बनाना मिसाल दिये जाने लायक काम है।
पूरी दुनिया में देश का नाम रोशन करने वाले विकलांग खिलाड़ियों को ही जब समाज, मीडिया, कॉर्पोरेट और सरकार की तरफ से इतना भेदभाव और उपेक्षा झेलनी पड़ रही है तो समाज में सामान्य विकलांगों की स्थिति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. हाल-फिलहाल में मोदी सरकार ने विकलांगों को सामाजिक सम्मान देने और उनके सार्वजनिक जीवन को और ज्यादा सुविधाजनक बनाने की दिशा में कुछ पहल की है.
विकलांगों की सामाजिक प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री के सुझाव के बाद सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने विकलांग की जगह ‘दिव्यांग’ शब्द प्रयोग किए जाने की पहल की है. प्रधानमंत्री का कहना है कि ‘विकलांग व्यक्तियों में कोई अंग विशेष नहीं होता, लेकिन उनके बाकी अंगों में वह विशेषता होती है जो कि सामान्य व्यक्तियों के पास भी नहीं होती.’ उन्होंने यह भी कहा कि उनकी सरकार सभी सार्वजनिक बिल्डिंगों में रैम्प और दिव्यांग व्यक्तियों के लिए खास तरह के शौचालय बनाने के लिए पहल करेगी. लेकिन प्रधानमंत्री का यह वादा उन्हीं की सरकार के दौरान 2015 में संशोधित किए गए नेशनल बिल्डिंग कोड (एनबीसी) की हकीकत से उलट है.
2015 के नेशनल बिल्डिंग कोड में 14 ऐसी सार्वजनिक जगहों को शामिल नहीं किया गया है, जहां कि दिव्यांग सहयोगी शौचालय बनाए जाएं. हालांकि सभी एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशनों पर दिव्यांग सहयोगी शौचालय बनाना अनिवार्य कर दिया गया है. लेकिन ऑफिस बिल्डिंग, सिनेमा हॉल, सभागार, थियेटर, आर्ट गैलरी, पुस्तकालय, होटल, रेस्टोरेंट, स्कूल आदि सार्वजनिक जगहों पर दिव्यांग सहयोगी शौचालय बनाने की कोई बाध्यता नहीं है.
नेशनल बिल्डिंग कोड की यह छोटी-सी पहल भारत के 2.1 करोड़ दिव्यांगों के सार्वजनिक जीवन को सीधे तौर पर प्रभावित करती है. इस बारे में ‘विकलांग रोजगार प्रोत्साहन राष्ट्रीय केन्द्र’ (एनसीपीईडीपी) के निदेशक जावेद आबिदी का कहना है, ‘इससे पहले एनबीसी 2005 में संशोधित हुआ था. यानी इसमें अगला संशोधन 10 साल से पहले नहीं होगा. आने वाले तीन से पांच सालों में लाखों सार्वजनिक इमारतों का निर्माण होगा. अगर इसी समय हमने सार्वजनिक जगहों को विकलांगों के हिसाब से सहयोगी नहीं बनाया तो आने वाले कई दशकों तक यह भारत की विकलांग आबादी के विरूद्ध रहेगा. ऐसा करके हम विकलांगों को सुविधाजनक सार्वजनिक जीवन से वंचित करेंगे क्योंकि किसी भी इमारत के बन जाने के बाद उसमें बार-बार परिवर्तन संभव नहीं होता.’
दिव्यांगों को समाज की मुख्य धारा में लाने और सम्मानित जीवन जीने में सहयोग देने के लिए सिर्फ बिल्डिंगों में उनके अनुकूल शौचालय बनाना भर काफी नहीं होगा. समाज, सरकार, कॉर्पोरेट और मीडिया, सभी को एकजुट होकर इस दिशा में पहल करनी होगी. मीडिया और विज्ञापन कंपनियां मिलकर दिव्यांगों को न सिर्फ समाज की मुख्य धारा से जोड़ने में बल्कि, उनको समाज के असली नायक/नायिका के रूप में स्थापित करने में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
ऐसा क्यों है कि दुनिया में नंबर एक भाला फेंक होने के बावजूद भी, आज तक देवेन्द्र झाझरिया के पास न तो कोई विज्ञापन है और न ही किसी कंपनी ने उन्हें अपना ब्रांड एम्बेसडर चुना है? जबकि उनकी उपलब्धि महेंद्र सिंह धोनी, सायना नेहवाल या सानिया मिर्जा से कहीं कम नहीं है. यह शायद इसलिए है कि समाज इनको नायक मानने के लिए तैयार नहीं है. यह स्थिति बदले इसके लिए जरूरी है कि ऐसे खिलाड़ियों को पाठ्यपुस्तकों में नायक/नायिका के तौर पर पढ़ाया जाए. यह शायद एक सबसे बुनियादी और महत्वपूर्ण पहल होगी जिसके बाद धीरे-धीरे ही सही इन लोगों के प्रति समाज का रवैया बदलेगा।
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