भावी पीढ़ी को हेडफोन गेमिंग से बचाएं

आवश्यक बना मोबाइल समाज को दे रहा बहरेपन की सौगात
श्रीप्रकाश शुक्ला
हर माता-पिता अपने बच्चे को खुश देखना चाहता है। वह बच्चे की हर इच्छा पूरी करना अपना धर्म समझता है। उसका यही लाड़-प्यार बच्चे के स्वास्थ्य का दुश्मन बन जाता है। हेडफोन-गेमिंग का चलन बच्चों को बहरा बना रहा है बावजूद हम उस पर ध्यान नहीं दे रहे। बच्चों के सुखद और स्वस्थ जीवन के लिए हम उन्हें हेडफोन-गेमिंग से रोकें ताकि उन्हें बहरेपन से बचाया जा सके।
यह आशंका अक्सर जतायी जाती रही है कि लगातार कानों पर मोबाइल व ईयरफोन लगाने का बच्चों की श्रवण शक्ति पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। हाल में हुए अध्ययन से अब इसकी पुष्टि भी हो चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय भी इस खतरे की पुष्टि कर रहे हैं। इसीलिए अभिभावकों को चेताया गया है कि बहुत अधिक स्क्रीन टाइम और गैजेट्स की तेज ध्वनि से बच्चों की रक्षा करें।
दरअसल, विश्व स्वास्थ्य संगठन की दक्षिण पूर्व एशिया की निदेशक साइमा वाजेद ने कहा है कि दुनिया में 1.40 अरब लोग इस संकट से प्रभावित हुए हैं। जिसमें 40 करोड़ लोग दक्षिण पूर्व एशिया में बधिरता से ग्रस्त हो रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2050 तक 1.6 अरब लोग बधिरता से प्रभावित हो सकते हैं। जिनमें अधिकांश लोग मध्यम व कम आय वर्ग के होंगे। यूं तो साठ साल के बाद सुनने की क्षमता प्राकृतिक रूप से कम हो जाती है, लेकिन हाल के वर्षों में लगातार कानों में ईयरफोन आदि लगाने से यह संकट बच्चों में बढ़ता जा रहा है। खासकर वे बच्चे जो लगातार लेपटॉप व मोबाइल पर गेमिंग व अन्य कार्यक्रम तेज आवाज में घंटों सुनते रहते हैं।
पहले कम सुनने की समस्या दिखायी देती है और कालांतर समस्या बहरेपन में तब्दील हो जाती है। दरअसल, कानों पर तकनीकी शोर का इतना अधिक दबाव बढ़ गया है कि बच्चे अपनी सुनने की प्राकृतिक क्षमता खोने लगे हैं। जो एक आसन्न गंभीर संकट को ही दर्शाता है। दरअसल, सबसे बड़ा संकट यह है कि आज मोबाइल फोन एक आवश्यक बुराई बन चुका है। आज नई पीढ़ी इस सम्बन्ध में मां-बाप की नसीहत पर ध्यान कम ही देती है। ऐसे में स्कूल-कॉलेजों में शिक्षकों व सामाजिक अभियानों से जुड़े लोगों को जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है।
विभिन्न सूचना माध्यमों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों से बच्चों को जागरूक करने के लिये मुहिम चलाने का कुछ लाभ जरूर मिल सकता है। प्रयास किया जाए कि न टाले जा सकने वाले कार्यक्रमों को कम आवाज के साथ सुना जाए। लेकिन विडम्बना यह है कि हरदम कानों पर मोबाइल व ईयरफोन तथा बड्स आदि लगाना स्टेटस सिम्बल बन गया है। व्यक्ति खुद व्यस्त होने का दिखावा करता रहता है। विडम्बना यह है कि जीवनशैली में आए बदलावों तथा शिक्षा कार्यों के लिये ऑनलाइन रहने की दलील देकर बच्चे भी मोबाइल-लेपटॉप आदि से चिपके रहने का बहाना ढूंढ़ ही लेते हैं।
तेज आवाज का संगीत व कंसर्ट बच्चों को लुभाते हैं। ऐसे में अभिभावक बच्चों को इस संकट की भयावहता से अवगत कराएं तथा समय-समय पर उनके कानों का चेकअप कराते रहें। कोशिश हो रचनात्मक तरीके से उनकी इस आदत को बदलने का प्रयास किया जाए। वैसे भी महानगरों व भीड़भाड़ वाले इलाकों में ध्वनि प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है। जिसके खतरों को लेकर समाज में जागरूकता के प्रचार-प्रसार की सख्त जरूरत होती है। बच्चों को लेकर अभिभावकों व शिक्षकों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है, क्योंकि उनके लम्बे जीवन पर बहरेपन का संकट मंडराने का खतरा बढ़ता ही जा रहा है।