मणिपुर से नसीहत लें यूपी, एमपी, राजस्थान और बिहार

1984 से मणिपुर में निकले 19 ओलम्पिक स्तर के खिलाड़ी
मणिपुर की माताओं की लोरियों में छिपे होते हैं खेल के गुर
खेलपथ संवाद
नई दिल्ली।
हमारी हुकूमतें खेलों के उत्थान का बेसुरा राग तो अलापती हैं लेकिन जमीनी स्तर पर उन पर अमल कतई नहीं किया जाता। देश की सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश हो या मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार इन राज्यों के खेलतंत्र की कथनी और करनी में बहुत फर्क है। यही वजह है कि इन राज्यों से ओलम्पिक स्तर के तो क्या राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी भी नहीं निकल रहे। इन राज्यों को मणिपुर से नसीहत लेनी चाहिए जिसने 1984 से अब तक 19 ओलम्पिक स्तर के खिलाड़ी राष्ट्र को दिए हैं।
भारत की आबादी में केवल 0.24 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाला मणिपुर राज्य साल 1984 से अभी तक लगभग 19 ओलम्पिक स्तर के खिलाड़ियों को तैयार कर चुका है, जिन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया है। अकेले टोक्यो ओलम्पिक की बात करें, तो छह खिलाड़ी मणिपुर से ही चुने गए थे। इनमें मेरीकॉम (बॉक्सिंग), सुशीला चानू (महिला हॉकी खिलाड़ी), एस. नीलकांता (पुरुष हॉकी), मीराबाई चानू (भारोत्तोलन), देवेंद्रो सिंह (बॉक्सिंग) और एल. सुशीला देवी (जूडो) शामिल हैं। यही नहीं राष्ट्रीय खेलों में भी मणिपुर के खिलाड़ी अपना दम दिखाते रहते हैं। हाल ही गुजरात में सम्पन्न 36वें राष्ट्रीय खेलों में मणिपुर के खिलाड़ियों ने 20 स्वर्ण, 10 रजत तथा 20 कांस्य पदक सहित कुल 50 पदक जीते हैं। इन खेलों में मध्य प्रदेश ने 20 स्वर्ण, 25 रजत तथा 21 कांस्य पदक, उत्तर प्रदेश ने 20 स्वर्ण, 18 रजत तथा 18 कांस्य पदक, राजस्थान 03 स्वर्ण, 03 रजत तथा 23 कांस्य पदक तथा बिहार सिर्फ दो कांस्य पदक ही जीत सका।
मणिपुर की बात करें तो वर्ष 2017 में अंडर-17 फुटबॉल विश्व कप में हिस्सा लेने वाली भारतीय महिला और पुरुष टीम में कुल आठ खिलाड़ी मणिपुर के ही थे। टोक्यो ओलम्पिक में पहली पदक (रजत) विजेता मीराबाई चानू के छोटे से गाँव (नांगपोक काकचिंग) में हर युवा कोई न कोई खेल से जुड़ा हुआ है। यहां फ़ुटबॉल की लोकप्रियता तो देखते ही बनती है। मणिपुर में खेलों को लेकर विश्वस्तरीय व्यवस्था देखने को नहीं मिलती, तो फिर किस वजह से खेलों को लेकर मणिपुर इतना सहज है? खूबसूरत पहाड़ों और नदियों के बीच बसे इस राज्य में खेलों को लेकर इतनी गंभीरता कहाँ से आई? इस जिज्ञासा पर मणिपुर यूनिवर्सिटी में खेल के समाज शास्त्र पर पीएचडी कर रहे सनसम याइफबा सिंह बताते हैं कि यहां खेलों के प्रति जुनून के पीछे माँ की लोरी, मणिपुर का इतिहास और भूगोल जवाबदेह है।
याइफबा बताते हैं कि मणिपुर में प्राचीनकाल से ही खेलों को लेकर सक्रियता रही है। मणिपुर में मूल रूप से मेतई समुदाय के लोग रहते हैं और लगभग 29 क़बायली समुदाय हैं। राजा कांगबा और राजा खागेम्बा के समय में खेल को काफ़ी तरजीह दी गई। राजा कांगबा के समय मणिपुर के कुछ पारम्परिक खेलों की शुरुआत हुई, जैसे सगोल कांगजेई (जिसको वर्तमान में पोलो की तरह खेला जाता है)। ऐसे कई पारम्परिक खेल, जैसे मुकना कांगजेई (फुट हॉकी जिसमें मणिपुरी कुश्ती भी होती है), सगोल कांगजेई (जिसको वर्तमान में पोलो की तरह खेला जाता है), थांगटा (मार्शल आर्ट) आज भी मणिपुर में खेले जाते हैं।
वर्ष 1891 में आंग्ल-मणिपुर युद्ध के बाद जब मणिपुर में अंग्रेज़ों का शासन आया, तब अंग्रेज़ों ने नए ज़माने के खेलों जैसे फ़ील्ड हॉकी, क्रिकेट, फ़ुटबॉल से मणिपुर को रूबरू कराया। याइफबा बताते हैं कि अंग्रेज़ मणिपुर के लोगों की खेलने की क्षमता से बहुत प्रभावित हुए थे। ब्रिटिश सेना में अफ़सर रहे सर जेम्स जॉनस्टोन ने मणिपुर पर एक किताब लिखी, 'मणिपुर एंड नगा हिल्स' जिसमें उन्होंने मणिपुर के पारम्परिक खेलों का ज़िक्र करते हुए स्थानीय लोगों की खेलों में कुशलता की प्रशंसा की।
याइफबा के मुताबिक, क्योंकि मणिपुर की सीमा से म्यांमार देश भी सटा हुआ है, इसलिए युवाओं को खेलों में डाला जाता था, जिससे वह सीमा की रक्षा के लिए हमेशा तैयार रहें। मणिपुर एक छोटा राज्य है और अपनी सुरक्षा के लिए वह नागरिकों पर ज़्यादा निर्भर रहता है। इतिहास में खेलों को मणिपुर में बढ़ावा देने का ज़िक्र जब भी होता है, तो राजा चूरचंद्र सिंह का नाम ज़रूर आता है, जिन्होंने खेलों को बढ़ाने के लिए कई स्तर पर प्रतियोगिताओं का आयोजन किया और मुफ़्त में खेल के सामान भी बाँटे।
इसके अलावा मणिपुर में कई स्थानीय देवी-देवता हैं, जिनके नाम से जितने भी त्योहार मनाए जाते हैं, उन उत्सवों में भी खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है। यह त्योहार अब भी मनाए जाते हैं, जैसे होली के समय में मनाए जाने वाला पाँच दिनों का उत्सव 'याओसांग' आज भी खेल प्रतियोगिताओं को आयोजित कराने के लिए प्रसिद्ध है। याइफबा खेलों को प्रोत्साहन देने में मणिपुर की महिलाओं की भूमिका के बारे में भी जानकारी देते हैं। वह बताते हैं कि किसी भी नवजात बच्चे को सुलाते समय माँ की लोरियों में शरीर को मज़बूत रखने, खेल में रुचि बढ़ाने जैसे शब्दों का रस घुला होता है। इससे बच्चे के भीतर जन्म से ही खेलों के प्रति रुचि पैदा करने का प्रयास किया जाता है।
इसके साथ ही माँ नवजात बच्चे के साथ ऐसे खेल खेलती हैं जिससे उसका शरीर शुरू से लचीला, गठीला बने। जैसे केरेदा-केरेदा (जिसमें बच्चा अपना सिर दाएँ-बाएँ कैसे घुमाए वह सिखाया जाता है), टिंग-टिंग चौरो (जिसमें बच्चे को हवा में उछालकर फिर पकड़ा जाता है) और टेडिंग-टेडिंग जिसको खेलकर उंगलियों को लचीला बनाया जाता है। मणिपुर में चाहे महिला हो या पुरुष, सभी खेल प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेते रहे हैं। यही नहीं अगर मणिपुर की पहाड़ों से मिलने वाले मसालों, खाने के सामानों की बात करें तो वह भी खिलाड़ियों को मज़बूत बनाने और ताक़त देने में मदद करते हैं। मणिपुर का चावल विशेष तौर पर खिलाड़ियों के बीच प्रसिद्ध है।
भारत की आज़ादी के बाद, मणिपुर को जब साल 1972 में राज्य का दर्जा मिला तब राज्य स्तर पर स्पोर्ट्स एसोसिएशन का गठन हुआ। मणिपुर के स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के क्षेत्रीय निदेशक फ्रैंसिस मार्वे बताते हैं कि मणिपुर में राष्ट्रीय खेलों का आयोजन साल 1999 में हुआ था लेकिन उससे पहले ही मणिपुर के खिलाड़ी ओलम्पिक स्तर तक जा चुके थे। वह कहते हैं, ''इस राज्य में खेलों को लेकर व्यवस्था हो या नहीं, खेल को लेकर रुचि प्राचीनकाल से है।'' व्यवस्थित रूप से खेलों के ढाँचों के आने से पहले ही मणिपुर में कई छोटे-छोटे स्पोर्ट्स क्लब रहे हैं। आज के समय में ऐसे लगभग 1000 क्लब हैं। उदाहरण के तौर पर 2017 में अंडर-17 भारतीय फुटबॉल में तीन लड़कों का चयन हुआ था, वे ऐसे ही एक छोटे क्लब, द यूथ ऑर्गनाइज़ेशन स्पोर्टिंग क्लब में ट्रेनिंग कर नेशनल टीम में पहुँचे। दिलचस्प बात यह है कि कई ऐसे क्लबों को लोग स्वेच्छा से चला रहे हैं, चाहे राज्य या केंद्र सरकार पैसा दे या न दे।
स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया ने 1986-87 में मणिपुर में अपना सेंटर खोला, वहीं 1977 में मणिपुर ओलम्पिक एसोसिएशन का भी गठन हुआ। साल 1976 में कटक में आयोजित हुई नेशनल चैम्पियनशिप में मणिपुर की पहली हॉकी टीम ने हिस्सा लिया था। फ्रैंसिस मार्वे के मुताबिक़ मणिपुर की राजधानी में स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के फ़िलहाल तीन स्पोर्ट्स सेंटर हैं, जहाँ 600 खिलाड़ियों के लिए हॉस्टल की व्यवस्था है। मीराबाई चानू, मैरीकॉम इन्हीं सेंटर में ट्रेनिंग कर ओलम्पिक तक पहुँची हैं।
मणिपुर में कई बार विद्रोही संगठनों के कारण कर्फ़्यू भी लगता रहा है, तो ऐसे समय में खिलाड़ियों की तैयारियों और ट्रेनिंग पर क्या असर पड़ता है? इस पर खेल के समाज शास्त्र पर पीएचडी कर रहे सनसम याइफबा सिंह जवाब देते हैं कि मणिपुर के छोटे से छोटे ज़िले में स्थानीय स्तर पर जगह-जगह पार्क और ग्राउंड्स बने हैं। इसके कारण जब मुख्य शहर या मुख्य ट्रेनिंग ग्राउंड्स में खिलाड़ियों को कर्फ़्यू के कारण जाने का मौक़ा नहीं मिलता है, तो ये खिलाड़ी लोकल ग्राउंड्स में जाकर प्रैक्टिस करते हैं, जहाँ कर्फ़्यू नहीं होता।
मीराबाई चानू की पहली कोच रही अनीता चानू ने बताया कि जब भी कर्फ़्यू लगता है, तो राज्य सरकार ट्रेनिंग पर किसी तरह का प्रभाव न पड़े, इसकी पूरी कोशिश करती है।याइफबा बताते हैं कि अस्थिरता के कारण उस तरह से ट्रेनिंग नहीं हो पाती जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खिलाड़ी पहुँच सकें। जैसे कर्फ़्यू के दौरान दूसरे राज्यों में जाकर प्रतियोगिताओं में हिस्सा नहीं ले सकते, तो उतना अनुभव नहीं हो पाता। हालाँकि वह मानते हैं कि पहले के मुक़ाबले स्थिति काफ़ी बेहतर हुई है।
क्या है मणिपुर के खिलाड़ियों की मांग?
सनसम याइफबा और फ्रैंसिस मार्वे दोनों का यह मानना है कि केवल इम्फ़ाल में नहीं, बल्कि राज्य स्तर पर हर ज़िले में या कम से कम कुछ ज़िलों में अच्छे स्पोर्ट्स सेंटर खोलना ज़रूरी है। इम्फ़ाल में स्थित खुमान लम्पक स्टेडियम की स्थिति संतोषजनक नहीं होने के बाद भी युवा प्रशिक्षण लेते हैं। वहाँ ट्रेनिंग करवाते कोच का कहना है कि सुविधा है, लेकिन दुरुस्त नहीं है। उन्होंने कहा, ''यहाँ मणिपुर की राजधानी के अलावा और ज़िलों में भी स्पोर्ट्स सेंटर खुलने चाहिए। 'खेलो इंडिया' मिशन की तर्ज़ पर मणिपुर में 16 ज़िलों में 16 स्पोर्ट्स सेंटर खोलने की योजना है। मीराबाई चानू के जीतने के बाद मणिपुर के मुख्यमंत्री बिरेन सिंह ने वेटलिफ़्टिंग, जूडो, बॉक्सिंग के लिए ज़िलों में स्पोर्ट्स सेंटर खोलने का आश्वासन दिया है। मणिपुर के इतिहास और वर्तमान की उपलब्धियों को भविष्य में भुनाने से ही खेल की दुनिया में मणिपुर से और कई मणियाँ भारत के माथे पर सज सकती हैं।

रिलेटेड पोस्ट्स