राजनीतिज्ञों के लिए सियासत के सिवा कुछ नहीं दद्दा ध्यानचंद

बाप के नाम स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी, बेटों को आमंत्रण भी नहीं
श्रीप्रकाश शुक्ला
ग्वालियर। ई
मानदारी क्या होती है कोई हॉकी के जादूगर दद्दा ध्यानचंद के परिवार से सीखे। जिस कालजयी को दुनिया याद कर आज भी सलाम करने से नहीं चूकती उस नाम का भारतीय राजनीतिज्ञ आज सिर्फ सियासत के लिए इस्तेमाल करते हैं। सियासत ही है कि विश्व रत्न दद्दा ध्यानचंद अपने ही मुल्क में भारत रत्न नहीं बन सके। दुःख की बात है कि दो जनवरी को मेरठ में जिस उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दद्दा ध्यानचंद के नाम पर स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी खोली जा रही है, उनके परिजनों को एक अदद आमंत्रण पत्र तक नहीं भेजा गया। 
यह दुख और शर्म की बात है कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दो जनवरी को मेरठ में मेजर ध्यानचंद स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी का शिलान्यास करने जा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी के स्वागत में 25 हजार खिलाड़ियों की भीड़ जुटाने में मस्त खेल निदेशालय लखनऊ दद्दा ध्यानचंद के पुत्रों को आमंत्रण पत्र देना ही भूल गया। 31 दिसम्बर की रात लगभग नौ बजे खेल निदेशक रामप्रकाश सिंह ने अशोक ध्यानचंद को फोन लगाकर उनसे कार्यक्रम में शामिल होने की रस्मअदायगी की। दोस्तों आप ही बताएं कि क्या एक महान खिलाड़ी के परिवार के साथ इस तरह का सलूक होना चाहिए। हम आपको बता दें कि दद्दा ध्यानचंद के पुत्र देवेन्द्र कुमार सपरिवार लखनऊ में ही रहते हैं, उन्हें ही कम से कम आमंत्रण पत्र दे दिया गया होता।
दद्दा ध्यानचंद के पुत्र उनकी यादों को संजोए उस दिन का इंतजार कर रहे हैं कि क्या भारतीय लोकतंत्र के प्रहरी कालजयी को भारत रत्न देंगे जोकि उनका पहला हक था। इस परिवार को मैं अपना परिवार समझता हूं क्योंकि इस परिवार का हर सदस्य चाटुकार और फरेबी नहीं है। दद्दा के बेटे अर्जुन एवं यश भारती अवॉर्ड से सम्मानित अशोक ध्यानचंद मेरे बड़े भाई समान हैं, वह बहुत कुरेदने पर ही अपनी व्यथा बयां करते हैं। उनकी ईमानदारी ही है कि उनका बेटा अपने सपनों को साकार नहीं कर सका। अशोक भाई बताते हैं कि दद्दा कच्चे कमरे में रहते थे। मजबूरी के कारण उनका परिवार छह साल तक बिना बिजली के अंधेरे में रहा, बच्चों को लालटेन जलाकर पढ़ाई करनी पड़ी।
हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का जन्मदिन हर 29 अगस्त को मनाया जाता है। उस दिन मुल्क में खेलप्रेम का ज्वार-भाटा देखने को मिलता है। राजनीतिज्ञ अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से खेलप्रेम का बखान करते हैं लेकिन यह तिथि निकलते ही दद्दा फिर बिसरा दिए जाते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से बड़ी उम्मीद थी कि वह दद्दा को भारत रत्न देकर पूर्ववर्ती सरकार के अपयश को धो डालेंगे, अफसोस मोदी भी सियासत के बड़े खिलाड़ी निकले।
हर साल झांसी ही नहीं देशभर में दद्दा की याद में बड़े-बड़े आयोजन होते हैं। उम्मीद जगती है और 29 अगस्त बीतते ही वह टूट जाती है। अशोक भाई कहते हैं शुक्ला साहब मांगकर यदि सम्मान मिला तो वह किस काम का। 
अतीत की चर्चा करते हुए अशोक भाई बताते हैं कि उनके भरे-पूरे संयुक्त परिवार में बुआ सूरजा देवी और चाचा-चाची सहित 30 लोग थे। महिलाएं घर में चकिया चलाकर गेहूं पीसती थीं। दद्दा अपनी पत्नी जानकी देवी का नाम नहीं लेते थे, वह हमेशा घूंघट में रहती थीं इसलिए उन्हें अरे सुनो.. कहकर बुलाते थे। सन् 1936 में जब ध्यानचंद ओलम्पिक खेलने जा रहे थे तो पत्नी जानकी ने घूंघट के अंदर से ही उन्हें निहारा और ध्यानचंद भी उन्हें निहारते हुए ओलम्पिक खेलने निकले थे। वह बताते हैं कि घर में कमाने वाला एक ही व्यक्ति था। मां और पिता जिस कमरे में रहते थे वह भी कच्चा कमरा था। उसे गोबर से लीपा जाता था।
अशोक ध्यानचंद बताते हैं कि झांसी में न्यू रायगंज के घर में पिताजी वर्ष 1956 में आए थे। तब इलाके में बिजली भी नहीं थी। घर के सामने बिजली का खंभा आने में छह साल लग गए। 1962 में बिजली आ सकी। मजबूरी में खाना-पीना, सोना-पढ़ना सब काम गैस बत्ती और लालटेन में करना पड़ता था। घर से दूर कुएं पर अम्मा जानकी देवी पानी खींचती थीं और हम सब भाई मिलकर पानी भरते थे। राशन की दुकान में लाइन लगाकर राशन लाते थे। वह बताते हैं कि पद्म भूषण से सम्मानित दद्दा बेहद अनुशासन प्रिय और सादगी पसंद थे।
अशोक ध्यानचंद बताते हैं कि दद्दा को अरहर की दाल तो इतनी पसंद थी कि वह इसे हर रोज खाते थे वहीं, मीट के अलावा आलू-प्याज की सब्जी और पराठे दद्दा की पहली पसंद थे। एक बड़ा गिलास दूध पीना उनकी रोज की आदत थी। सफेद टीशर्ट, पैंट और चमचमाते जूते ही वह पहनते थे। अशोक भाई बताते हैं कि पिताजी वर्ष 1928 में एम्सटर्डम ओलम्पिक में भारतीय हॉकी टीम से खेले थे। उस वक्त उन्हें 102 डिग्री बुखार था। उन्हें खेलने से मना किया गया तो उन्होंने कहा कि वह फौजी हैं, अपने देश के लिए जरूर खेलेंगे। मैच में उन्होंने नीदरलैंड के खिलाफ फाइनल में भारत को स्वर्ण पदक दिलाया। यहीं से लोग उन्हें हॉकी का जादूगर कहने लगे।
लखनऊ में रह रहे दद्दा के छोटे बेटे देवेन्द्र कुमार ध्यानचंद कहते हैं कि मेरे बाबूजी को किसी से कुछ भी मांगना पसंद नहीं था। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भारतीय हॉकी के गिरते स्तर से वह कभी-कभी बहुत दुखी हो जाते थे। देवेन्द्र भाई अपने चाचा कैप्टन रूप सिंह को भी बाबूजी के समकक्ष खिलाड़ी मानते हैं। वह कहते हैं कि चाचा बहुत आज्ञाकारी थे। दद्दा को भारत रत्न न दिए जाने पर वह कहते हैं कि शुक्लाजी उगते सूर्य को सलाम करना ही हमारी फितरत है। वह दिन भी दूर नहीं जब हमारी युवा पीढ़ी को अपने कालजयी खिलाड़ियों के नाम तक याद नहीं रहेंगे।

 

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