दीपा को एक ताने ने बना दिया ‘वंडर गर्ल’

खुद को ‘भैंस’ और कोच को ‘गधा’ कहे जाने से आहत थीं दीपा कर्माकर
तब पदक जीतने का किया था वादा
खेलपथ संवाद
नई दिल्ली।
कई बार एक पल इंसान की जिंदगी बदल देता है और दीपा कर्माकर के जीवन में वह पल कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 में आया। तब वे मेडल जीतने में नाकाम रहीं और किसी साथी खिलाड़ी ने उन्हें ‘भैंस’ और उनके कोच बिश्वेश्वर नंदी को ‘गधा’ तक कह दिया।
दीपा ने तब खुद से वादा किया कि वे एक दिन इस खेल में अपना मुकाम बनाकर रहेंगी। दीपा कर्माकर 2016 में रियो ओलम्पिक में चौथे स्थान पर रहीं। वे पदक नहीं जीत सकीं, लेकिन इस प्रदर्शन से वे भारतीय जिम्नास्टिक में सबसे सुनहरा अध्याय लिख चुकी थीं। आज वे जिम्नास्टिक में भारत की ‘वंडर गर्ल’ कही जाती हैं।
दीपा कर्माकर नई दिल्ली में 2010 में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में फाइनल में पहुंचीं, लेकिन पदक नहीं जीत सकीं। उनके आंसू थम नहीं रहे थे और ऐसे में एक साथी पुरुष जिम्नास्ट ने कहा डाला, ‘यह भैंस है और इसका कोच गधा।’ इस ताने ने दीपा को भीतर तक आहत कर दिया, तब अर्जुन की तरह उनके सामने एक ही लक्ष्य था, पदक जीतना।
रियो में दीपा की कामयाबी सभी ने देखी, लेकिन दिल्ली में मिले उस ताने से रियो तक के सफर के पीछे की उनकी मेहनत और त्रिपुरा जैसे पूर्वोत्तर के छोटे से राज्य से निकलकर अंतरराष्ट्रीय खेल मानचित्र पर अपनी पहचान बनाने के उनके सफर की गाथा भी उतनी ही दिलचस्प है। इसे लिखा है कोच बिश्वेश्वर नंदी, खेल पत्रकार दिग्विजय सिंह देव और विमल मोहन ने अपनी किताब ‘दीपा कर्माकर : द स्माल वंडर’ में।
अपनी होनहार शिष्या को ओलम्पिक पदक पहनते देखने का सपना कोच नंदी की आंखों में भी पल रहा था। दिल्ली में मिले ताने ने दीपा की नींद उड़ा दी थी और खेल ने ही उसके जख्मों पर मरहम लगाया, जब रांची में 2011 में हुए राष्ट्रीय खेलों में उन्होंने पांच पदक जीते। इसके बावजूद उन्हें पता था कि शीर्ष जिम्नास्टों और उसमें अभी काफी फर्क है।
ग्लास्गो कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले नंदी ने यूट्यूब पर प्रोडुनोवा के काफी वीडियो देखे और दीपा से पूछा कि क्या वह यह खतरनाक वोल्ट करेगी। ओलम्पिक में पांच-छह महीने ही रह गए थे, लेकिन दीपा को अपनी मेहनत और कोच के भरोसे पर यकीन था, लिहाजा उसने हामी भर दी।
टीम प्रबंधन और साथी खिलाड़ियों में भी उसके यह ‘वोल्ट आफ डेथ’ करने को लेकर मिश्रित प्रतिक्रिया थी। दीपा ने ट्रायल में प्रोडुनोवा किया और पहला टेस्ट पास कर गईं। उसने छह से आठ घंटे रोज मेहनत की और आखिरकार वह दिन आ गया जिसका वह दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स से इंतजार कर रही थीं।
स्कॉटलैंड में क्वालीफाइंग दौर के लिए अभ्यास के दौरान ही उनकी एड़ी में चोट लग गई। उसने चोट के साथ ही सारी एक्सरसाइज की। कोच नंदी को लगा कि कॉमनवेल्थ मेडल जीतने का सपना खेल शुरू होने से पहले ही टूट गया, लेकिन दीपा ने क्वालीफाई किया। फाइनल तीन दिन बाद था और चोट के कारण वे अभ्यास नहीं कर सकीं।
फाइनल में दर्द की परवाह किए बिना दीपा की नजरें सिर्फ पदक पर थीं। यह उनके लिए तत्कालिक सम्मान नहीं, बल्कि हुनर पर सवालिया उंगली उठाते आ रहे लोगों को जवाब देने का जरिया था। यह उनके साथ सपना देख रहे कोच नंदी को उसकी गुरुदक्षिणा थी। यह भारतीय जिम्नास्टों को उनका सम्मान दिलाने की उसकी जिद थी।
दीपा ने ग्लास्गो में महिलाओं के वोल्ट में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रच डाला। वे इन खेलों में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला जिम्नास्ट और आशीष कुमार के बाद दूसरी भारतीय बनीं। उसके गले में पदक था, आंखों में आंसू थे और नजरें मानों कोच से कह रही थीं कि ‘सर आज भैंस और गधा जीत गए।’ आंख बंद करके उसने कहा ‘थैंक्यू येलेना प्रोडुनोवा ’. वही जिम्नास्ट जिनके नाम पर प्रोडुनोवा बना और जिसने दीपा को नई पहचान दिलाई।

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