सीनियर महिला हॉकी खिलाड़ियों के संन्यास का सबसे उपयुक्त समय

हॉकी इंडिया को भी कुछ साहसिक फैसले लेने की दरकार

श्रीप्रकाश शुक्ला

ग्वालियर। हाल ही कई पुरुष हॉकी खिलाड़ियों के संन्यास की घोषणा से हॉकीप्रेमियों को बेशक निराशा हाथ लगी हो लेकिन उन्होंने हॉकी और देशहित में सही फैसला लिया है। मैं समझता हूं कि महिला हॉकी टीम की कई उम्रदराज खिलाड़ियों को भी स्वविवेक से नई खिलाड़ियों को मौका देने के वास्ते अब टीम से हट जाना चाहिए। ये उम्रदराज खिलाड़ी कौन-कौन सी हैं यह बताने की जरूरत नहीं है।

टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय पुरुष ही नहीं महिला हॉकी टीम ने भी बेजोड़ प्रदर्शन किया है। पहली बार ओलम्पिक के सेमीफाइनल में पहुंचना बड़ी बात है। हॉकी बेटियों के शानदार प्रदर्शन को देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित कई मुख्यमंत्रियों ने न केवल सराहा बल्कि उम्मीद से कहीं अधिक उन्हें आर्थिक प्रोत्साहन देकर एक नजीर स्थापित की है। अब इन हॉकी बेटियों में से टीम की कई उम्रदराज खिलाड़ियों को भी देश के लिए या यूं कहें अपनी छोटी बहनों के लिए हॉकी को अलविदा कर देना चाहिए। इससे न केवल उनकी तारीफ होगी बल्कि भारतीय टीम अगले ओलम्पिक में पदक जीतने के काबिल भी बन सकती है।

महिला हॉकी खेल की जहां तक बात है, सन् 1885 से ही महिलाएं हॉकी खेल रही हैं, लेकिन इन्हें प्रतिस्पर्धी हॉकी में कौशल दिखाने का 1970 के दशक में मौका मिला। 1974 में हॉकी का पहला महिला विश्व कप आयोजित किया गया तो 1980 में महिला हॉकी ओलम्पिक में शामिल की गई। टोक्यो ओलम्पिक से पहले भारतीय महिला टीम ने 1980 के मास्को तथा 2016 के रियो ओलम्पिक खेलों में शिरकत किया था।

किसी भी खिलाड़ी के जीवन में सबसे कठिन फैसला संन्यास का होता है। पिछले एक-दो महीनों में हॉकी बेटियों को देश का प्यार और पैसा जिस तरह से मिला है, वह कल्पना से परे है। ऐसे में किसी भी हॉकी बेटी के लिए संन्यास लेना आसान बात नहीं होगी बावजूद इसके उन्हें बिना डरे देश की युवा तरुणाई के लिए खेल को अलविदा कह देना चाहिए। हॉकी इंडिया को भी पता है कि भारतीय टीम की कौन-कौन सी खिलाड़ी उम्रदराज हैं, ऐसे में उसे भी बदलाव के लिए कुछ कड़े फैसले लेने चाहिए।

खेलों में अनुभव के महत्व को जहां नकारा नहीं जा सकता वहीं इस दौर के तीव्र खेल-कौशल को देखते हुए युवा दमदार खिलाड़ियों की उपयोगिता से भी इंकार नहीं किया जा सकता। भारतीय टीम की अधिकांश खिलाड़ी गरीब-मध्यम परिवारों से ताल्लुक रखती हैं। ये बेटियां भी देश के लिए खेलना चाहती हैं, ऐसे में सीनियर खिलाड़ियों का कर्तव्य है कि वे अपनी छोटी बहनों के लिए स्वेच्छा से खेल को अलविदा कह दें। ऐसी खिलाड़ियों के लिए संन्यास लेने का यह सबसे उपयुक्त समय है।   

देखा जाए तो 2016 के रियो ओलम्पिक में भारतीय महिला हॉकी टीम बिना कोई मुकाबला जीते अंतिम पायदान पर रही थी लेकिन बीते चार साल में उसने अपने आप में सुधार करते हुए एक लम्बी छलांग लगाई है। 2017 में इस टीम ने एशिया कप जीता तो 2018 विश्व कप में टीम क्वार्टर फाइनल तक पहुंचने में कामयाब रही। इसके बाद 2018 के इंचियोन एशियाई खेलों में टीम ने सिल्वर मेडल जीतने का कारनामा कर दिखाया। जाहिर है, भारतीय महिला हॉकी टीम लगातार चुनौतियों से पार पाती जा रही है।

2017 तक जो भारतीय महिला हॉकी टीम प्रतिद्वंद्वी टीमों के खिलाफ मुकाबले में डर-डर कर खेलती थी वह आज हर टीम को मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम हो गई है। अब भारतीय महिला हॉकी टीम बदल चुकी है और उसमें आत्मविश्वास पैदा हुआ है। यह बदलाव एक दिन या एक महीने में नहीं हुआ है। यह भारतीय प्रशिक्षकों की वर्षों की कड़ी मेहनत का सुफल है। भारतीय महिला हॉकी टीम कैसे बदली यह जानने के लिए जरूरी है कि हम 2017 की टीम का मूल्यांकन करें।

उस समय भारतीय हॉकी बेटियां प्रतिभाशाली और अनुशासित तो थीं लेकिन अपने विचार रखने में डरती थीं। बात केवल भाषाई अंतर की नहीं थी बल्कि एक तरह की अड़चन का मामला था। खिलाड़ियों में यह भाव कहीं अधिक था कि कहीं उनसे गलती न हो जाए। इसके अलावा सांस्कृतिक और सामाजिक संस्कार भी इन्हें खुलकर कुछ कहने से रोकते थे। उनके लिए बस यह बात अहम थी कि निर्देश सुनो और उसे मैदान में आजमाओ, कोई सवाल नहीं, कोई इनपुट नहीं।

प्रशिक्षक मारिजने ने भारतीय टीम से जुड़ने के बाद टीम की कप्तान रानी से बात की। रानी अनुभव और आत्मविश्वास से भरी खिलाड़ी रही हैं और उन्होंने महज 14 साल की उम्र से भारत का प्रतिनिधित्व किया है। रानी आधुनिक हॉकी की जरूरतों को बखूबी समझती भी हैं। इसके बाद प्रशिक्षक और कप्तान ने मिलकर टीम के खिलाड़ियों को कई गतिविधियों से जोड़ा। इसमें टीम के सभी खिलाड़ियों के लिए अनिवार्य बातचीत सेशन, साइकोलॉजी क्लासेज, टीम बिल्डिंग एक्टिविटीज, टीम के साथ लंच और डिनर शामिल था ताकि खिलाड़ियों के बीच आपसी समझदारी मज़बूत हो। डांस और कॉरियोग्राफी के सेशनों से भी हॉकी बेटियों को लाभ मिला। महीनों की लगातार कोशिश के बाद महिला हॉकी टीम की खिलाड़ी मैदान के अंदर और बाहर खुलकर अपनी बात रखने लगीं। रानी ने जल्द ही खुद को मेंटर के रोल में ढाल लिया और बेंगलुरु स्थित भारतीय खेल प्राधिकरण के हॉस्टल में लालरिमसियामी की रूममेट बन गईं।

भारतीय महिला हॉकी टीम की खिलाड़ियों को कभी पुरुषों की टीम जितनी लाइमलाइट नहीं मिली। उन्हें ज़्यादा एक्सपोजर भी नहीं मिला। खैर, भारतीय बेटियों ने 2017 में जापान में आयोजित एशिया कप में जीत हासिल की और इस जीत के साथ टीम को लंदन में होने वाले 2018 के वर्ल्ड कप के लिए टिकट मिल गया। रानी के अलावा इस कामयाबी में गोलकीपर सविता पूनिया टीम की जीत में कई बार 'हीरो' साबित हुईं। इनके अलावा ड्रैग फ्लिकर गुरजीत कौर, नवजोत कौर, वंदना कटारिया, नवनीत कौर और लालरिमसियामी जैसी स्टार खिलाड़ी भी टीम में मौजूद हैं। इनमें से ज़्यादातर खिलाड़ी साधारण परिवारों से यहां तक पहुंची हैं। जिन परिवारों में रोजमर्रा की जरूरतें पूरी नहीं हो रही हों वहां से कठिन मेहनत और लगन से ये लड़कियां इस मुकाम तक पहुंची हैं।

कोच मारजिने अब टीम के साथ नहीं हैं लेकिन वह कहते थे कि ये शानदार खिलाड़ियों का समूह है। उनका सपना ओलम्पिक में भारतीय हॉकी बेटियों को मेडल जीतते देखना था, जोकि पूरा नहीं हुआ। भारतीय बेटियों का टोक्यो ओलम्पिक के सेमीफाइनल तक पहुंचना पहला कदम है। भारतीय हॉकी बेटियों में फाइटिंग स्प्रिट आ गई है। इस टीम की सभी खिलाड़ियों को एक-दूसरे की अच्छाई और खामी पता हैं, ऐसे में कोई किसी को खेल छोड़ने के लिए नहीं कह सकता। अब संन्यास का फैसला उन हॉकी बेटियों को लेना है, जिन्हें पता है कि उनका शरीर अगले ओलम्पिक तक साथ नहीं देगा। अगले ओलम्पिक को होने में अभी तीन साल बाकी है, ऐसे में उम्रदराज बेटियां जितना जल्दी फैसला लेंगी, वह उनकी छोटी और प्रतिभाशाली बहनों तथा टीम के लिए अच्छा होगा।

 

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