कोरोना को मात देने वाले प्रवीण कुमार की टोक्यो में चांदी

इस जांबाज की जिन्दगी का एक-एक पन्ना है संघर्ष की दास्तां
खेलपथ संवाद
नई दिल्ली।
प्रवीण कुमार की कहानी है तो पूरी तरह फिल्मी, लेकिन इसका एक-एक पन्ना सच्चाई की कड़वी हकीकत से भरा है। बीते दो सालों में जो कुछ प्रवीण ने झेला उससे उनके पैरालम्पिक के रजत का मान और ज्यादा बढ़ जाता है। पहले उनके जन्म से छोटे और पूरी तरह बेजान पैर को आधा बेजान बता उनका वर्ग बदला गया।
तब उन्होंने एथलेटिक्स छोड़ ग्रेटर नोएडा स्थित गोविंदगढ़ गांव में खेती करने की तैयारी कर ली। कोच सत्यपाल सिंह के कहने पर अभ्यास शुरू किया तो उसके बाद कोरोना हो गया। 50 दिन घर पर रहने के बाद अभ्यास के लिए निकले तो नेहरू स्टेडियम बंद था।
लॉकडाउन में पार्क में अभ्यास शुरु किया तो पुलिस रोड़ा बनने लगी। नतीजन पार्क की दीवार तक फांदी। जून में पैरालम्पिक के ट्रायल से तीन सप्ताह पहले तक गद्दे पर अभ्यास नहीं किया। बावजूद इसके न सिर्फ टोक्यो का टिकट लिया बल्कि सबसे कम उम्र में पैरालम्पिक का रजत जीता।
प्रवीण कहते हैं कि 2019 की विश्व जूनियर पैरा चैम्पियनशिप के दौरान क्लासिफिकेशन में उनका वर्ग टी-42 से टी-44 कर दिया गया। उन्हें आधे बेजान पैर वाले टी-44 वर्ग में डाला गया। आज भी उनका पूरा पैर बेजान है, लेकिन वह आधे बेजान पैर वालों के साथ पैरालम्पिक में खेले और रजत जीते। वर्ग बदलने पर लगा कि वह अब आधे बेजान पैर वालों से मुकाबला नहीं कर पाएंगे। नतीजन उन्होंने एथलेटिक्स छोड़ गांव में खेती की तैयारी कर ली, लेकिन कोच ने कहा एक साल तक करो नहीं करने पर छोड़ देना।
प्रवीण के मुताबिक इस साल अप्रैल में उन्हें कोरोना हो गया। 50 दिन वह घर रहे। ठीक हुए तो दिल्ली का नेहरू स्टेडियम बंद था। वह नेहरू पार्क में शारीरिक मजबूती के लिए गए। उस वक्त लॉकडाउन था। पुलिस पार्क में कहती थी मास्क लगाओ। सैकड़ों सवाल होते थे। सुबह पुलिस की नाकेबंदी में उन्हें अभ्यास में जाने से रोका जाता था।
नतीजन उन्होंने सुबह साढ़े चार बजे सेंट्रल सेक्रेट्रिएट पार्क की दीवार फांदने का अभ्यास शुरू किया। सत्यपाल के मुताबिक प्रवीण का गद्दे पर अभ्यास नहीं हो पा रहा था। ट्रायल नजदीक थे लग रहा था कि प्रवीण पैरालम्पिक क्वालीफाई नहीं कर पाएगा। उन्होंने साई से तीन सप्ताह पहले स्टेडियम में गद्दे पर तैयारी की अनुमति मांग क्वालीफाई कराया।
सत्यपाल के मुताबिक प्रवीण की पांच फुट पांच इंच लंबाई के कारण उनका ऊंची कूद में रजत आश्चर्य से कम नहीं है। प्रवीण बांया पैर छोटा होने के कारण बचपन से दांए पैर से उछलकर चलते थे, जिससे यह पैर मजबूत हो गया। इसी का उन्हें फायदा मिला। पहले वह खड़े होकर कूदते थे, लेकिन उन्होंने उसे ओलम्पिक में ऊंची कूद के एथलीटों की ओर से लगाई जाने वाली फॉसबरी फ्लॉप तकनीकि लगवाई। इसमें पांच साल में महारत हासिल की जाती है, लेकिन प्रवीण ने तीन साल में पदक जीत लिया।

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