मोदीजी हटाना है तो खेलों से भ्रष्टाचार हटाएं

खिलाड़ियों के नाम हों सभी खेल मैदान

श्रीप्रकाश शुक्ला

टोक्यो ओलम्पिक में भारत के अब तक के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बाद समूचा देश खेल महोत्सव मना रहा है। खिलाड़ियों की बलैयां ले रहा है लेकिन आबादी और भारतीय रुतबे को देखते हुए यह प्रदर्शन सभी भारतीयों के लिए चिन्तन-मनन का विषय होना चाहिए। टोक्यो जाने से पहले भारतीय ओलम्पिक संघ और हमारे खेलनहारों ने एक दर्जन से अधिक पदकों का भरोसा देश की आवाम को दिया था। खैर, कोरोना संक्रमण के चलते जब सारी खेल गतिविधियां विराम ले चुकी थीं ऐसे में भारतीय प्रदर्शन को ठीक-ठाक कहने में हर्ज नहीं लेकिन तमाशा करने की कतई जरूरत नहीं है।

टोक्यो में 41 साल बाद मिले हॉकी के कांसे से प्रधानमंत्री मोदी इतना खुश हो गए कि उन्होंने राजीव गांधी खेल रत्न का नाम ही बदल दिया। मोदीजी के इस अजूबे खेलप्रेम पर हॉकीप्रेमी बेशक ताली पीट रहे हों लेकिन मुझे इससे जरा भी खुशी नहीं हुई। मोदीजी को यदि हॉकी के जादूगर से इतना ही अनुराग था तो उन्हें दद्दा को भारत रत्न देने की सिफारिश करनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इस बात का भान होना चाहिए कि देश के 95 फीसदी खेल मैदान राजनीतिज्ञों के नाम हैं, एक मैदान तो अब उनके खुद के नाम का भी हो गया है, ऐसे में बेहतर होता देश के सभी खेल मैदान खिलाड़ियों के नाम से आबाद होते, लेकिन ऐसा करने के लिए साहस होना चाहिए, जिसका हर राजनीतिज्ञ में अभाव है। मोदीजी खेल अवॉर्डों के नाम बदल देने से देश खेलों की महाशक्ति नहीं बन सकता हटाना ही है तो खेलों से भ्रष्टाचार हटाएं।

नेहरू-गांधी परिवार यूं तो पिछले लगभग 80 वर्षों से ही विरोधियों की नफरत भरी राजनीति का शिकार होता आया है। यहां फिलहाल महात्मा गांधी की बात नहीं हो रही है। 1920 में उनके द्वारा छेड़े गये असहयोग आंदोलन के पहले से ही उनका विरोध हमारी अंदरूनी राजनीति ने प्रारम्भ कर दिया था। बापू के लिये देशवासियों का एक ओर असीम प्यार और आदर था (आज भी है), वहीं ऐसे भी लोग रहे जो उनसे बेइंतिहा घृणा करते थे (आज भी हैं)। उसकी परिणति उनकी हत्या से हुई थी। अगर उसके कारणों पर जाएं तो अखबार के कॉलम ही नहीं वरन पन्ने भी कम पड़ जाएंगे।

बहरहाल, गांधीजी की मौत के बाद भी उनके लिये समाज के एक वर्ग का हिस्सा नफरत करता रहा। उसकी परिधि में पहले उनके राजनीतिक शिष्य जवाहरलाल नेहरू शामिल हुए, बाद में उनकी पुत्री इंदिरा गांधी, तदुपरांत राजीव गांधी, उनकी पत्नी सोनिया, बेटा-बेटी यानी राहुल-प्रियंका भी आ गये हैं। सबके अपने-अपने कारण हैं। उसके विवरण में जाने की जरूरत नहीं है क्योंकि वह अब सर्वज्ञात है। इस परिवार के प्रति घृणा का इजहार हमें मुख्यत: भारतीय जनता पार्टी (पहले भारतीय जनसंघ) एवं उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रमों, उनके सदस्यों के भाषणों-लेखों, बैठकों, सभाओं या बातचीत में होता रहता है। इसका प्रमुख कारण है संघ परिवार के हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के समक्ष सबसे बड़ी दीवार के रूप में इस परिवार का खड़ा होना। इस परिवार के कई सदस्यों की अनेक कमियों एवं गलतियों के बाद भी इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उसका देश के स्वतंत्रता संग्राम में अभूतपूर्व योगदान है और आजाद भारत में अतुलनीय योगदान भी। देश को आधुनिक एवं वैज्ञानिक बनाने के साथ इसी परिवार ने मुल्क को लोकतांत्रिक, संविधानसम्मत और धर्मनिरपेक्ष बनाये रखा है। यही वह ताकत है जिससे वे सारी पार्टियां व संगठन भय खाते हैं जो भारत पर एक मत विशेष के जरिये शासन करना चाहते हैं।

2014 में भाजपा को मिले बहुमत एवं 2019 में प्राप्त उससे भी बड़े जन समर्थन के साथ कांग्रेस सहित कमजोर होते समग्र विपक्ष के कारण नेहरू-गांधी परिवार के प्रति घृणा, क्रोध, तिरस्कार एवं उपहास के फलसफे लगातार बढ़ते जा रहे हैं। संघ व भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के प्रश्रय व समर्थन के साथ सोशल मीडिया के इसके लिये किये जा रहे सुनियोजित व संगठित उपयोग ने इस नफरत को घर-घर फैला दिया है। इस घृणा के प्रसार के लिये ये संगठन इस बात की भी चिंता नहीं कर रहे हैं कि वे देश की आजादी के गौरवपूर्ण इतिहास पर कालिख पोत रहे हैं। नफरत को लोगों, खासकर नई पीढ़ी के गले से नीचे उतारने की प्रक्रिया में तथ्यों को बदलने से लेकर निजी तौर पर झूठे आरोप तक लगाने में ये परहेज नहीं करते। इसके उलट कांग्रेसियों से गलबहियां कर सत्ता में काबिज होना इनका फितूर बन गया है।

करीब 30 वर्षों से जारी राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार का नाम बदलकर मेजर ध्यानचंद पुरस्कार करना इसी घृणा की परिणति है। सब जानते हैं कि ऐसा करने में भाजपा सरकार का खेलों, हॉकी या ध्यानचंद के प्रति प्रेम नहीं बल्कि गांधी परिवार के प्रति घृणा-भाव प्रेरक तत्व है। खेल बजट में 230 करोड़ रुपये की कटौती करने वाली भाजपा सरकार एवं विशेषकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हॉकी टीम को प्रायोजित करने में योगदान तो नहीं दिया, अलबत्ता टोक्यो ओलम्पिक में हॉकी टीम की जीत का फायदा उठाकर राजीव गांधी का नाम हटा दिया। झांसी (उत्तर प्रदेश) के स्वर्गीय ध्यानचंद वैसे भी देश के दुलारे खिलाड़ी रहे हैं। उनके नाम पर पहले ही एक बड़ा पुरस्कार दिया जाता है चूंकि इस प्रदेश में अगले साल विधानसभा के चुनाव हैं इसलिये हार से घबराए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इसमें भी आशा दिखी, सो उन्होंने इस पर खुशी भरा ट्वीट जारी कर दिया।

नफरत की आग में जल रही भाजपा व संघ नहीं जानते कि इस नाम परिवर्तन के बाद भी 1982 के एशियाई खेलों के भव्य आयोजन, उसके बहाने रंगीन टेलीविजन के आने, दिल्ली को नये रूप में ढालने और देश को कम्प्यूटर युग में लाने का श्रेय राजीव गांधी को मिलता रहेगा। कृतघ्नता व क्षुद्रता का परिचय देकर भाजपा-संघ और भी बौने हुए हैं। वैसे 120 साल के ओलम्पिक इतिहास में एथलेटिक्स में भारत के लिये पहला स्वर्ण पदक जीतने वाले नीरज चोपड़ा को देशवासियों की बधाई तो बनती ही है। इससे एथलेटिक्स का भला होगा क्योंकि मदर गेम तो यही है।

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