खिलाड़ी बेटियों पर सिर्फ दो दिन का लाड़-दुलार

श्रीप्रकाश शुक्ला

इस समय समूचे देश में खेलों का माहौल बनाने की कोशिशें की जा रही हैं। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा। हर चार साल में हमारे देश में खेलों के प्रति अनुराग जागता है, कुछ दिन के तमाशे के बाद खेलों की चर्चा बंद हो जाती है। भारतीय महिला हॉकी टीम का आस्ट्रेलिया को हराना और नीरज चोपड़ा का एथलेटिक्स में स्वर्ण पदक जीतना टोक्यो ओलम्पिक का सबसे बड़ा आश्चर्य कहा जा सकता है। तीन बार की चैम्पियन आस्ट्रेलिया पर जीत के बाद हमारी टीम सदस्यों पर जो लाड़-दुलार बरस रहा है, वह अपेक्षित भी है। खेलों में हर कोई जीतना चाहता है।

महिला हॉकी टीम के कोच नीदरलैंड के श्योर्ड मारिने ने इस जीत पर जो कहा, वह बड़ी मार्के की बात है जो हर किसी को नोट करनी चाहिये। उन्होंने कहा- 'हम सोच रहे थे कि महिलाओं के लिए बड़ा लक्ष्य क्या है और यह केवल पदक जीतने को लेकर नहीं है। यह भारत में महिलाओं, खासकर युवा लड़कियों को प्रेरित करने और उनकी स्थिति में सुधार के बारे में है।

'स्थिति में सुधार', सम्भवत: यही वह बात है जो इस समय सर्वाधिक विचारणीय है। क्या श्योर्ड केवल खेल में महिलाओं की स्थिति में सुधार की बात कर रहे हैं? या वे भारत में महिलाओं की समग्र हालत की ओर इशारा कर गए। सम्भवत: लम्बे समय से लड़कियों को प्रशिक्षण देते हुए कोच को पहले उनकी निजी जिंदगियों, परिवारों और फिर समग्र भारतीय समाज में औरतों के स्थान को लेकर काफी कुछ पता चला होगा। लैंगिक समानता के मामले में एक अग्रणी मुल्क से आए प्रशिक्षक ने यह पाया होगा कि इन लड़कियों को गैरबराबरी के चलते हॉकी के मैदानों तक पहुंचने या स्टिक पकड़ने के लिये जमाने भर से दुश्मनी लेनी पड़ी है। अगर उनका संकेत उस ओर न भी हो, तो जो भी स्त्रियों की दशा पर चिंता करते हैं उनके लिए यह अवसर जरूर है कि इस मुद्दे पर बात करें।

जैसा घटनाक्रम टोक्यो ओलम्पिक में महिला हॉकी टीम के साथ हुआ, उसका नजारा करीब डेढ़ दशक पहले आई एक फिल्म 'चक दे इंडिया' में था। वह कल्पित था, यह यथार्थ है। टूर्नामेंट में पहुंचने से लेकर पहले के तीन मैच हारने वाली टीम की ज्यादातर सदस्य भारत के लोगों के लिए गुमनाम सी थीं। लोग तो यह भी नहीं जानते थे कि इन टीमों को किसी राज्य ने स्पॉन्सर किया है। अनजान सी इन लड़कियों ने जब महिला हॉकी की बड़ी ताकत आस्ट्रेलिया को हराया तो अब उनकी एक-एक सदस्य की जानकारी गूगल से खोजकर निकाली जा रही है। कोई किसान की बेटी है तो कोई टूटे-फूटे छप्पर वाले घर में बड़ी हुई है। किसी ने हॉकी के लिये घर छोड़ा तो किसी ने समाज से टक्कर ली। फिर वही 'चक दे इंडिया' का संदर्भ, जिसमें कोच कबीर खान कहता है कि 'तुम्हारा मुकाबला हर उस शख्स से है जिसने तुम्हें हॉकी खेलने से रोका था'।

2007 में आई इस फिल्म को पुरुष वर्चस्व के खिलाफ जो कहना था, वह तो उसने कह दिया परन्तु आज यह साफ है कि महिलाओं की चयन की आजादी के मामले में हम आज भी वहीं खड़े हैं, जहां 'चक दे इंडिया' की लड़कियों का समाज खड़ा था। इस खेल की खिलाड़ी ज्यादातर उन राज्यों से आती हैं जो लैंगिक अनुपात के मामले में सबसे खराब समाज हैं। वहां उन्हें दोयम दर्जा हासिल है। अब 'चक दे...' फिल्म चाहे सुपर-डुपर हिट रही हो पर सच्चाई तो यही है कि भारत का समाज तकरीबन उसी स्थान पर खड़ा है। आज भी टोक्यो स्पर्धा में दो मेडल जीतने वाली पीवी सिंधु की जाति उसकी उपलब्धियों के मुकाबले गूगल पर अधिक सर्च की जाती है और भारतीय टेनिस की महारानी सानिया मिर्जा का खेल नहीं उसके कपड़े देखे जाते हैं।

इसलिए अब बात उससे आगे की करनी चाहिये। जब तक जीत और खेल का मैदान है, वे देश की बेटियां हैं, शक्तिस्वरूपा हैं, देवियां हैं। यह सब कुछ वे तभी तक हैं, जब तक कि समाज द्वारा निर्धारित एक रेखा के भीतर विचरण करती हैं। ऐसी बड़ी जीतों या उपलब्धियों के कारण उनका संघर्ष सामने आ जाता है। शेष समय वे स्कूल जाने, ऊंची तालीम पाने, पढ़ने, खेलने या अपना सपना पूरा करने के लिए दूसरे शहर जाने, नौकरियां करने, अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने या छोड़ने के लिए आजीवन जद्दोजहद करती हैं।

महिलाओं का अगर हमारे समाज में स्थान देखना हो तो हमारी राजनीति और समाज के शीर्ष पुरुषों के विचारों को सुन लेना काफी होता है, जो अब भी मानते हैं कि 'औरत का जीवन चारदीवारी में है' या 'बेरोजगारी बढ़ने का कारण महिलाओं द्वारा नौकरियां करना है।' समाज का संवाहक समाज ही गौरी लंकेश को गोलियां एवं बरखा दत्त को गालियां देता है। वह समाज जो लड़कियों को छोटे कपड़ों में नहीं देखना चाहता और महिला आरक्षण बिल को दशकों तक रोके रखता है। खेलकूद में हार या जीत से आगे बढ़कर औरतों से सम्बन्धित अन्य मुद्दों को देखने की जरूरत है  और उसका यह माकूल अवसर भी।

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