बेचारा खिलाड़ी क्या करे?

जमीनी खिलाड़ियों को मूलभूत सुविधाएं क्यों नहीं
श्रीप्रकाश शुक्ला
ग्वालियर।
आप खेलप्रेमी हैं। आप चाहते हैं कि मैदानों में भारतीय जांबाज खिलाड़ी जीत का परचम फहराएं ताकि दुनिया में देश का माथा गर्व और गौरव से ऊंचा रहे। हम इतराएं, यह जताएं कि भारत शक्ति-सम्पन्न है। आपकी अपेक्षा जब खिलाड़ी पूरा नहीं करते तो आप उन्हें भला-बुरा कहते हो। मैं भी कहता हूं। अनाप-शनाप लिखता हूं लेकिन क्यों। हम या हमारी हुकूमतों ने आजादी के सात दशक में खिलाड़ियों को क्या दिया है। हमने कभी सोचा है कि खिलाड़ी किन हालातों से गुजर कर भारत का प्रतिनिधित्व करता है। मैदानों और इससे बाहर किन-किन मुसीबतों से गुजरता है, शायद नहीं।
हम खेलप्रेमियों को सिर्फ जीत से वास्ता है। हमारा खिलाड़ी से नहीं उसकी यशगाथा से लगाव है। उसे सुविधाएं मिलें या नहीं वह सिर्फ जीते। हमने कभी यह सोचने की कोशिश नहीं की कि अमेरिकी तैराक माइकल फ्लेप्स ने सिर्फ तीन ओलम्पिक में अजूबा कैसे कर दिया। भारत ने अपने सौ साल के ओलम्पिक इतिहास में जहां 33 पदक जीते हैं वहीं फ्लेप्स ने तरणताल से 27 पदक निकाले हैं। सोचो जो काम हमारे हजारों ओलम्पियन नहीं कर सके वह फ्लेप्स कैसे कर सका। दरअसल हमारी किसी भी सरकार ने आजादी के बाद से खेलों को प्राथमिकता सूची में रखा ही नहीं। हमारे सरकारी तंत्र ने स्वस्थ भारत का राग तो खूब अलापा लेकिन इस दिशा में दिल से काम नहीं किया। देश में जितने भी सफल राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी हैं उन पर सरकार का योगदान सिर्फ पांच फीसदी है। खिलाड़ियों के प्रोत्साहन में सबसे बड़ा त्याग गरीब-मध्यम परिवारों का है। देश में कई खिलाड़ियों के उदाहरण हैं, जिनके माता-पिता ने अपना सारा जीवन होम किया है। बेटा-बेटी खिलाड़ी के रूप में देश का मान बढ़ाएं, इसके लिए अपना आशियाना और उदरपूर्ति का जरिया जमीन तक बेच दी।
खिलाड़ियों की जीत में तालियां पीटने से पहले हमें विषबेल की तरह बढ़ी दुश्वारियों और सरकारी तंत्र के निकम्मेपन को दूर करने की कसम खानी चाहिए। केन्द्र और राज्य सरकारें खेल के नाम पर खेल आजादी के समय से ही करती आ रही हैं। आयोजनों पर तो अनाप-शनाप खर्च हुआ लेकिन खिलाड़ियों की सुध नहीं ली गई। हर चाल साल बाद एशियन खेल और ओलम्पिक खेलों के नाम पर पैसे की बंदरबांट होती है लेकिन खिलाड़ी यहां भी हाथ मलते रह जाता है। खेल एसोसिएशनों की जहां तक बात है वे कब्जा जमाए सफेदपोशों के हाथ की कठपुतली हैं। सफेदपोशों के जितने लम्बे हाथ हैं उसी अनुपात में उनके खेल संगठन को सरकारी लाभ मिल जाता है। छोटे स्तर पर खेलों की अलख जगाने वाली स्वनाम-धन्य शख्सियतों में कुछ जहां खिलाड़ियों के नाम पर चंदा वसूली करती हैं तो ईमानदार हितचिन्तक हाथ फैलाये ही रह जाता है। खिलाड़ी कुछ चंद रुपयों के सोने और चांदी के फलकों के लिए दिन-रात पसीना बहाता है। जिला, राज्य और राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में दमखम दिखाने के लिए खिलाड़ियों को उनके पैर छूने पड़ते हैं जिन्हें खेलों के बारे में कुछ पता ही नहीं है। खिलाड़ियों के चयन में भी पारदर्शिता की गारंटी कभी नहीं रहती। कई खिलाड़ी प्रतिभाशाली होने के बावजूद चरण-वंदना की आदत न होने के कारण भी नहीं खेल पाते। मेरे खेलप्रेमियों जब तक खिलाड़ी की तकलीफ और उसकी बेचारगी का निदान नहीं होगा तब तक खेलों की गंगा मैया मैली ही रहेंगी।

रिलेटेड पोस्ट्स