रग्बी में चाय बागान की मजदूर बेटियों का कमाल

समाज का नज़रिया बदलना जरूरी
खेलपथ प्रतिनिधि
कोलकाता।
मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि सुदूर और पिछड़े चाय बागान इलाक़े में पैदा होकर एक खेल के सहारे मैं अपने गांव, परिवार, राज्य और देश का नाम रोशन करूंगी। यह सब एक सपने जैसा लगता है। खेल-खेल में खेले जाने वाले खेल से मेरी ही नहीं, इलाक़े की कई लड़कियों की क़िस्मत बदल रही है। इस खेल ने हमारे सपनों को पंख दिए हैं। जी हां रग्बी जैसे खेल में चाय बागान के मजदूरों की बेटियां देश-दुनिया में धमाल मचा रही हैं।
रग्बी खेल से पहचान बनाने वाली संध्या राई बताती हैं कि उन्होंने 13 साल की उम्र से ही खेल-खेल में रग्बी खेलना शुरू किया था। पश्चिम बंगाल के उत्तरी इलाक़े में सिलीगुड़ी के पास जंगल और चाय बागानों से घिरे सरस्वतीपुर गांव की संध्या के पिता एक बागान में दैनिक मज़दूर हैं। रग्बी के ज़रिए देश-विदेश के तमाम टूर्नामेंटों में अपनी प्रतिभा का झंडा गाड़ चुकी संध्या अब इस खेल के बढ़ावे को प्राणपण से जुटी हुई हैं।
पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग ज़िले की तराई में बसे चाय बागानों और उसमें काम करने वाले मज़दूरों की दुर्दशा और उन बागानों में कथित भुखमरी की ख़बरें अक्सर सुर्ख़ियाँ बटोरती रही हैं। लेकिन तमाम बाधाओं और अभावों को पार कर संध्या के अलावा आस-पास के गांवों की कम से कम चार लड़कियों ने रग्बी के ज़रिए वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाते हुए देश के लिए कई पदक जीते हैं।
रग्बी का खेल भारत में भले विदेशों की तर्ज़ पर उतना लोकप्रिय नहीं हो, लेकिन इसने पिछड़े माने जाने वाले चाय बागान इलाक़ों के आदिवासी समाज की लड़कियों की आंखों में नए सपने जगा दिए हैं। इनमें से कई लड़कियां रग्बी खेलने के लिए फ्रांस के अलावा दुनिया के कई देशों का दौरा भी कर चुकी हैं।
चाय बागान की इन बच्चियों की प्रतिभा को पहचाना सरस्वतीपुर चर्च में प्रार्थना कराने के लिए आए फ़ादर जॉर्ज मैथ्यू ने। उन्होंने कोलकाता में 'जंगल क्रोज' नामक संस्था चलाने वाले अपने दोस्त पॉल वाल्श को इन लड़कियों के बारे में बताया तो वह रग्बी को बढ़ावा देने इलाक़े में आए। वाल्श कोलकाता में ब्रिटिश हाई कमीशन में उच्चायुक्त थे। उन्होंने यहां पर कोच के रूप में रोशन खाखा को नियुक्त किया। वर्ष 2013 में पहली बार इलाक़े की लड़कियों ने चाय बागान के ही एक मैदान में रग्बी खेलना शुरू किया। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इनमें से संध्या राई, सुमन उरांव, स्वप्ना उरांव और चंदा उरांव अब स्कालरशिप की सहायता से कोलकाता में आगे की पढ़ाई कर रही हैं। संध्या बताती हैं, मैं खेल के क्षेत्र में ही कोई बढ़िया नौकरी करना चाहती हूं ताकि कच्ची प्रतिभाओं को निखार सकूं।
संध्या बताती हैं, "वह बचपन से बिरजू राय को रग्बी खेलते देख कर बड़ी हुई थीं। लेकिन गांव में इस खेल की कोई सुविधा नहीं थी और लोगों को इसकी कोई जानकारी भी नहीं थी। कोलकाता से स्थानीय चर्च में आने वाले फ़ादर मैथ्यू ने हमारे सपनों को राह दिखाई। उन्होंने स्थानीय लड़कियों में इस खेल को बढ़ावा देने के लिए कोलकाता के एक संगठन जंगल क्रोज के ज़रिए सरस्वतीपुर में खेलो रग्बी का प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया। "शुरुआत में स्थानीय लोगों ने लड़कियो के शार्ट्स पहन कर खेलने पर आपत्ति जताई। तब घरवाले सवाल करते थे कि अगर पैर टूट गए तो क्या होगा या फिर तुमसे शादी कौन करेगा? लेकिन धीरे-धीरे उनकी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं." हालांकि संध्या को दूसरी लड़कियों की तरह घरवालों की ओर से किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। वह बताती हैं, मैंने माता-पिता से पूछा तो उनका जवाब था, जाओ खेलो।
संध्या कहती हैं, "मज़दूरों की दुनिया चाय बागानों और आस-पास लगने वाले साप्ताहिक बाज़ारों तक ही सीमित है। लोग अपने दायरे से बाहर निकलना ही नहीं चाहते। लोगों के पास बाहर जाने के लिए पैसे भी नहीं होते। अब हमारी कामयाबी के बाद सरस्वतीपुर की सभी लड़कियां रग्बी खेलना चाहती हैं लेकिन कुछ लोग अब भी यह कहते हुए इसमें रोड़े अटकाते हैं कि यह लड़कियों का खेल नहीं है। गांव के लड़के भी अब रग्बी खेलते हैं।
संध्या बताती हैं कि चाय बागान इलाक़ों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। ज़रूरत है उनको तराशने और सही मौक़े मुहैया कराने की। मैं अपनी ओर से भरसक सबकी सहायता का प्रयास करती हूं। अभी तो मैं ख़ुद इस खेल के गुर सीख रही हूं। रग्बी ने मुझे इस गांव से निकाल पढ़ने के लिए कोलकाता पहुँचाया है। लेकिन संध्या का अब तक का सफ़र आसान नहीं रहा है।
वह बताती हैं, "एक बार क्लब के मैच के लिए ओडिसा जाने से पहले गांव वालों का कहना था कि यह लोग वहां ले जाकर तुम सबको बेच देंगे। लेकिन ज़िला और राज्य-स्तरीय प्रतियोगिताओं में लगातार खेलने के बाद लोगों की ज़ुबान पर लगाम लगी। वैसे कई लोग अब भी इसकी आलोचना करते हैं।
संध्या के मुताबिक़ एक बार जब वह अपनी टीम के साथ नागपुर से ट्राफ़ी जीत कर लौटीं तो गांव वालों का कहना था कि यह सब कहां से ख़रीदा है? लेकिन अब उन लोगों की सोच बदल रही है और कल तक हमारी आलोचना करने वाले ही अब हमारी उपलब्धियों पर गर्व करते हैं।
आगे क्या योजना है? इस सवाल पर वह कहती हैं, "रग्बी की खिलाड़ी के तौर पर पूरी दुनिया में नाम कमाना, देश के लिए तमाम टूर्नामेंट जीतना और ग्रामीण इलाक़ों में रग्बी खेलने वाली लड़कियों को बढ़ावा देना ही एकमात्र मकसद है। अगर मैं दो-चार लड़कियों को भी प्रोत्साहित कर सकूं तो यह मेरा सौभाग्य होगा। मैं चाहती हूं कि इस इलाक़े की लड़कियां खेल के साथ पढ़ाई पर भी ध्यान दें। अब अनस्पाटेबल में शामिल होकर मैं आसानी से यह काम कर सकती हूं। संध्या के मुताबिक़, रग्बी को बढ़ावा देने के लिए इस खेल के बारे में समाज का नज़रिया बदलना भी ज़रूरी है।

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