भारतीय उम्मीदों का बोझ ढोती खिलाड़ी बेटियां
टोक्यो ओलम्पिक में बेटियों से बढ़ी उम्मीद
श्रीप्रकाश शुक्ला
नई दिल्ली। आज बेटियां हर क्षेत्र में मादरेवतन का मान बढ़ा रही हैं। पिछले ओलम्पिक को ही लें जब हमारे पुरुष खिलाड़ी देश को लजा रहे थे ऐसे मुश्किल समय में शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान साक्षी मलिक ने अपने दमदार खेल से न केवल मेडल जीते बल्कि हिन्दुस्तान की कटती नाक को भी बचा लिया। कोरोना संक्रमण के बाद एक-एक कर खेल गतिविधियां रफ्तार पकड़ रही हैं ऐसे में हर भारतीय खेलप्रेमी के मन में टोक्यो ओलम्पिक में बेटियों से पदक की उम्मीदें बढ़ गई हैं। आओ दुआ करें कि इस बार बेटियां ही नहीं हमारे खिलाड़ी बेटे भी पोडियम तक पहुंचें।
इस साल होने वाले टोक्यो ओलम्पिक खेलों के दौरान भारतीय महिला एथलीटों पर रियो ओलम्पिक की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव है। 2016 के रियो ओलम्पिक में भारतीय महिला एथलीटों को दो पदक हासिल हुए थे- बैडमिंटन में पी.वी. सिंधू ने रजत पदक जीता था जबकि कुश्ती में साक्षी मलिक ने कांस्य पदक दिलाया था। इन खेलों में परम्परागत तौर पर भारतीय दल का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है, इसलिए सफलता भी कुछ खास नहीं मानी जाएगी।
2019 में वर्ल्ड बैडमिंटन चैम्पियनशिप का खिताब जीतने वाली पी.वी. सिंधू इस बार भी पदक की सबसे तगड़ी दावेदार हैं। बावजूद इसके, बीते कुछ सालों में महिला एथलीटों ने अपने प्रदर्शन से बेहतर संकेत दिए हैं। निशानेबाज़ी, तीरंदाज़ी, कुश्ती, बैडमिंटन, जिम्नास्टिक और ट्रैक एण्ड फील्ड जैसे खेलों में ओलम्पिक की तैयारी के लिहाज से महिला एथलीट, पुरुषों की तुलना में कहीं ज्यादा सशक्त दावेदार लग रही हैं।
एक ऐसे देश में जहां परम्परागत तौर पर पुरुषों की प्रधानता रही है, जहां महिलाओं पर सामाजिक और सांस्कृतिक पाबंदियां लगी रही हों और खेल के लिए आधारभूत ढांचे का अभाव हो, वहां अगर महिलाएं पुरुषों के साथ या उनसे आगे खड़ी हैं तो इसकी बड़ी वजह महिला खिलाड़ियों का पिछले कुछ वर्षों में लगातार जोरदार प्रदर्शन रहा है।
आंकड़े कई बार पूरी कहानी नहीं कहते। उदाहरण के लिए, दो दशक पहले भारत ने सिडनी ओलम्पिक के लिए 72 खिलाड़ियों का दल भेजा था, तब दल को एक कांस्य पदक हासिल हुआ था। तब भारोत्तोलक कर्णम मलेश्वरी ने देश को कांस्य पदक दिलाया था। रियो ओलम्पिक में 15 खेल प्रतियोगिताओं में भारत की ओर से 117 सदस्यीय दल शामिल हुआ था। इनमें 54 महिला एथलीट शामिल थीं जिन्होंने कुल मिलाकर दो मेडल हासिल किए। खेलकूद प्रतियोगिताओं में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की भागीदारी कई फैक्टर्स पर निर्भर करती है।
एथलीट के माता-पिता कितने प्रोग्रेसिव हैं, एथलीट का धर्म क्या है? वे शहर में रह रहे हैं या ग्रामीण इलाकों में, कौन सा खेल उन्होंने चुना है और उनके परिवार की सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि कैसी है? हरियाणा में प्रति हज़ार लड़कों पर लड़कियों की संख्या कम है। 2018 में राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक़ हरियाणा में प्रति हज़ार लड़कों पर 924 लड़कियां ही जन्मती हैं। राज्य में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध दर भी ज़्यादा है लेकिन हरियाणा की बेटियों का खेलों में प्रदर्शन सबसे जुदा है। इनमें फोगाट बहने भीं शामिल हैं। गीता, बबिता और विनेश ने कुश्ती में कई इंटरनेशनल पदक जीते हैं और इनकी ज़िंदगी पर बॉलीवुड में फिल्म भी बन चुकी है। दूसरी ओर, महाराष्ट्र एक लिबरल स्टेट है वहां के मुंबई महानगर में महिला निशानेबाज़ी को लेकर बदलाव का दौर 1990 से शुरू हुआ था, जिसका फल अब जाकर मिलना शुरू हुआ है। हालांकि महाराष्ट्र में स्कूली स्तर पर कितनी महिला खिलाड़ी हिस्सा लेती हैं, इसका पता लगाना मुश्किल है लेकिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं से तस्वीर का अंदाजा सहज हो जाता है। खेल मंत्रालय की पहल पर 10 से 22 जनवरी के बीच असम के गुवाहाटी में आयोजित खेलो इंडिया यूथ गेम्स में महाराष्ट्र ने 591 एथलीटों का दल भेजा था, जिनमें 312 लड़कियां थीं। महाराष्ट्र ने इस टूर्नामेंट में पदक तालिका में हरियाणा को पीछे छोड़ते हुए पहला स्थान हासिल किया।
बेटियों की सफलता इस बात का संकेत है कि उनमें आत्मविश्वास पैदा हुआ है और पालकों ने भी खेलों में रुचि दिखाई है। पिछले साल लगातार तीसरी बार टाटा मुंबई मैराथन रेस जीतने वाली सुधा सिंह बताती हैं कि दिल्ली में 2010 में आयोजित कॉमनवेल्थ खेलों के बाद स्थिति में बदलाव हुआ है। हमारे समय से काफी कुछ बदल चुका है। हम पर सवाल उठाने वाले वही लोग, वही पड़ोसी अब ज्यादा सवाल नहीं करते हैं। एक अहम बदलाव ये भी हुआ है कि अब खेलकूद में लड़कियां कहीं कम उम्र में पहुंच रही हैं, दूसरी महिला एथलीटों की कामयाबी को देखकर माता-पिता अपनी बच्चियों का उत्साह भी खूब बढ़ा रहे हैं।
देखा जाए तो हर जगह महिलाओं के लिए बराबरी के अवसर हैं लेकिन सरकारी और निजी क्षेत्रों में खेल कोटे से मिलने वाली नौकरियों में महिलाओं के लिए बराबरी के अवसर नहीं हैं, कई पद पुरुषों के लिए आरक्षित होते हैं। 2010 के दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन के बाद आधारभूत सुविधाओं की स्थिति थोड़ी बेहतर जरूर हुई है लेकिन अभी भी यह अंतरराष्ट्रीय स्तर के मामले में कमतर है।
एक्सपोजर और लोकप्रियता, दोनों लिहाज से क्रिकेट सबसे प्रभावी खेल है। कुछ विश्लेषकों के मुताबिक इससे दूसरे खेलों को नुकसान होता है। यहां तक कि भारतीय महिला क्रिकेट टीम को भी न तो मीडिया से न ही फैंस से वह समर्थन मिलता है जो पुरुषों की टीम को मिला हुआ है। देखा जाए तो आज भारतीय खिलाड़ी बेटियों का रोल मॉडल पीटी ऊषा, शाइनी विल्सन, सानिया मिर्जा, पी.वी. सिंधू, फोगाट बहनें, मैरीकॉम, महिला क्रिकेट टीम की सितारा खिलाड़ी हैं।
17 साल की उम्र में कई इंटरनेशनल मेडल जीत चुकी हरियाणवी निशानेबाज मनू भाकर के पिता रामकिशन भाकर कहते हैं, "क्रिकेट पूरी तरह से खेल संस्कृति को निगल चुका है। हमारे एशियाई, कॉमनवेल्थ और वर्ल्ड चैम्पियनों को क्रिकेटरों जैसी पहचान नहीं मिलती। युवा लड़कियां खेलो इंडिया गेम्स में मेडल जीत रही थीं लेकिन अखबारों में हार्दिक पांड्या की अधनंगी तस्वीरें छप रही थीं।"
भारत जैसे विशाल देश की चुनौतियां अपनी जगह हैं लेकिन अगर ग्रामीण स्तर तक खेल की सुविधाएं पहुंचती हैं तो बड़े पैमाने पर महिला एथलीट सामने आ सकती हैं। कई विश्लेषकों का मानना है कि खेल अभी भी शहरी संस्कृति के संरक्षण में है क्योंकि यहां कोचिंग और पोषण की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हैं।
सुधा सिंह बताती हैं, "कुछ गांव तो बहुत ही छोटे हैं, वहां कोई जागरूकता नहीं पहुंची है। उन ग्रामीणों को प्रतियोगिताओं के बारे में कोई जानकारी नहीं है क्योंकि वे अपने खेतों में मजदूरी करते हैं, घरों तक सीमित हैं। अगर हम उन लोगों तक पहुंचें तों हमें अच्छे एथलीट जरूर मिलेंगे। सच कहें तो कामयाबी के लिए अब हमारी बेटियों को सांस्कृतिक परम्पराओं और तौर-तरीकों की बेड़ियों को तोड़ना होगा। हम क्रिकेट को गाली देने की बजाय उससे नसीहत लें तो बेहतर होगा।