मीडिया और खेलतंत्र का गठजोड़ खेलहित में नहीं

खिलाड़ी और 90 फीसदी प्रशिक्षक खेल एसोसिएशनों से लाचार

नई दिल्ली। विगत दिवस खेलों में बदलते भारत पर चर्चा के लिए मुझे अपने विचार व्यक्त करने को आमंत्रित किया गया। इस आयोजन से जुड़े लोगों को उम्मीद थी कि मैं अपने उद्बोधन में खेलतंत्र और खेल एसोसिएशनों की वाहवाही करूंगा लेकिन मैं देश में खेलों के उत्थान के लिए खेलतंत्र तथा मीडिया के गठजोड़ को उपयुक्त नहीं मानता, मेरी नजर में यह अभिशाप है।

हाल ही उत्तर प्रदेश के एक खेलनहार की करतूतों और मीडिया के रवैये ने मुझे पशोपेश में डाल दिया है। खिलाड़ी बेटियों के सौदागर उस उच्च खेल पदाधिकारी की तारीफ करनी होगी कि उसका मीडिया मैनेजमेंट बेजोड़ है। वह खुश हो सकता है लेकिन मेरा मानना है कि हर बुराई का अंत जरूर होता है, उससे वह भी नहीं बचेगा। सच कहें मैंने खेल-पत्रकारिता के लम्बे दौर में लोगों को पहली बार इतना नीचे गिरते देखा हूं। हमारा जमीर मर चुका है, हम सपनों के महल में जिला, राज्य और राष्ट्र को नहीं बल्कि खुद को धोखा दे रहे हैं।

मुझे यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं कि देश के 90 फीसदी खिलाड़ी, खेल प्रशिक्षक तथा शारीरिक शिक्षक खेल संगठन पदाधिकारियों की हिटलरशाही के सामने लाचार हैं। खिलाड़ियों का खेल संगठन पदाधिकारियों से मिलना बहुत कठिन बात है। कहने को हर खेल प्रतियोगिता से पहले सुयोग्य खिलाड़ियों को चयन प्रक्रिया के कठिन दौर से गुजरना होता है लेकिन चयन उन खिलाड़ियों का होता है जिन्हें संगठन पदाधिकारी चाहते हैं। यह बीमारी राष्ट्रीय संगठनों ही नहीं बल्कि जिलास्तरीय संगठनों तक में व्याप्त है। खिलाड़ियों की प्रतिभा का हनन हम सब स्कूल से लेकर हर मैदान में देखते हैं लेकिन प्रतिकार की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

शासकीय खेल तंत्र और राज्य से केन्द्र तक के खेल एवं युवा कल्याण मंत्री सिर्फ बजट को ठिकाने लगाने का ही काम करते हैं। खेल प्रतियोगिता के कुल बजट का 75 फीसदी पैसा उद्घाटन और समापन में खर्च हो जाता है। दुख की बात है कि रात-दिन मैदानों पर पसीना बहाने वाला खिलाड़ी 21-22 रुपये के बनावटी स्वर्ण, रजत तथा कांस्य फलक गले में डलते ही बावरा हो जाता है। हमारे प्रशिक्षक और शारीरिक शिक्षक आयोजकों की एक टीशर्ट या स्मृति-चिह्न पाकर ही धन्य हो जाते हैं। हम सरकार नहीं समाज की तारीफ करेंगे कि उसमें खेलों के प्रति अनुराग जागा है। हम ऐसे अभिभावकों के आभारी हैं जोकि अपने बच्चों को खेल मैदानों तक ले जाते हैं। स्वयं की आवश्यकताओं में कटौती कर स्वस्थ भारत के संकल्प को पूरा करने का अनूठा कार्य करते हैं। मित्रों मैं खराब खेल सिस्टम को अच्छा कतई नहीं कह सकता। मुझे गलत को गलत कहने से नहीं रोका जा सकता।      

 

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