भूखे पेट स्वस्थ राष्ट्र की संकल्पना
भारत में चोरों के हाथ खेल प्रबंधन
नीति निर्धारकों में प्रतिबद्धता का अभाव
श्रीप्रकाश शुक्ला
हमारे खेलनहार इन दिनों भारतीय खेलप्रेमियों को टोक्यो ओलम्पिक में अधिक से अधिक पदक जीत लेने का सपना दिखा रहे हैं तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने मन की बात में स्वस्थ राष्ट्र की संकल्पना को फलीभूत होते देखना चाहते हैं। सपनों के सौदागरों की कथनी-करनी के अंतर पर नजर डालें तो इन दिनों शारीरिक शिक्षक-प्रशिक्षक आर्थिक तंगहाली के चलते खून के आंसू रो रहे हैं और तमाशबीन तमाशा देख रहे हैं। फिलवक्त देश में खेलों के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है, वह ताली पीटने लायक नहीं कहा जा सकता। कोरोना तो एक बहाना है, हमारे यहां आजादी के बाद से ही खेलों के सिस्टम को सुधारने के माकूल प्रयास नहीं हुए।
हर बड़े आयोजन से पूर्व हमारे खेलनहार खेलप्रेमी जनमानस से बड़े-बड़े वादे करते हैं लेकिन उन वादों और उम्मीदों की कसौटी पर हमारे खिलाड़ी कभी खरे नहीं उतरते। संयोग ही सही, आबादी के लिहाज से दुनिया के दो बड़े देश चीन और भारत एशिया में ही हैं, लेकिन खेल के मैदान में इन दोनों के बीच कितना बड़ा फासला है, यह हर बड़े खेल आयोजन के बाद हम देखते आ रहे हैं। चीन ही नहीं, दक्षिण कोरिया और जापान के अलावा थाईलैंड, ईरान और कजाकिस्तान सरीखे देशों के मुकाबले भी हम पदक तालिका में जहां खड़े नजर आते हैं, उस पर गर्व तो हरगिज नहीं किया जा सकता।
सवा अरब से अधिक आबादी वाले भारत के कमजोर प्रदर्शन पर अन्य देश चुटकियां लेते हैं तो हमारे बेशर्म खेलनहार फिर देख लेने का रटा-रटाया वाक्य बोलकर चार साल के लिए चैन की नींद सो जाते हैं। निराशाजनक प्रदर्शन के लिए हमेशा खिलाड़ियों को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। खिलाड़ियों को तराश कर विजेता बनाना एक दीर्घकालीन सुनियोजित प्रक्रिया है, जिसके लिए पहली अनिवार्यता खेल प्रबंधन और नीति निर्धारकों में वैसी प्रतिबद्ध सोच है, जो हमारे यहां दूर-दूर तक नजर नहीं आती।
दो साल पहले की बात है जब तीन बच्चों की मां मैरीकॉम ने एशियाई खेलों में मुक्केबाजी में स्वर्ण पदक जीतकर पहली भारतीय महिला बनने का गौरव हासिल किया था। उस समय हमारे मुक्केबाजी संघ के मठाधीश मैरीकॉम को एशियाई खेल दल से ही बाहर रखने पर आमादा थे। तीसरे बच्चे के जन्म और फिर खुद पर बनी फिल्म के प्रचार में व्यस्तता के चलते वह लंदन ओलम्पिक खेलों के बाद अभ्यास से दूर क्या रहीं, खेल मठाधीशों ने उनके खेल जीवन पर पूर्ण विराम लगाने का ही पूरा प्रबंध कर लिया था। तब मैरीकॉम के साथ-साथ देश की खुशकिस्मती रही कि वे अपने षड्यंत्रों में कामयाब नहीं हो पाये। एक और मुक्केबाज सरिता के प्रकरण से भी हमारे खेल प्रबंधन का कुप्रबंधन उजागर हुआ था।
जटिल नियम-प्रक्रिया वाले खेल मुक्केबाजी में दक्षिण कोरिया हमेशा बदनाम रहा है। दक्षिण कोरिया के अलावा शायद सभी मानेंगे कि सरिता द्वारा जीता गया स्वर्ण पदक जजों की बेईमानी से छीन कर मेजबान देश की मुक्केबाज को दिया गया और सरिता को कांस्य पदक से संतोष करने को कहा गया। ऐसी जगजाहिर बेईमानी किसी भी खिलाड़ी का दिल तोड़ सकती है। इसलिए प्रथम दृष्ट्या सरिता की आक्रोश-अभिव्यक्ति को अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता, लेकिन पदक वितरण कार्यक्रम में उसने जो कुछ किया, वह नहीं होता—यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी तो खेल प्रबंधन की ही थी। भारतीय दल के साथ इंचियोन गये खेल अधिकारियों ने न सिर्फ सरिता के साथ नाइंसाफी का आधिकारिक विरोध दर्ज कराने में सुस्ती दिखायी बल्कि उसे यह समझाने में भी नाकाम रहे कि पदक वितरण कार्यक्रम में पदक का अनादर अशालीनता ही नहीं, अनुशासनहीनता के दायरे में आता है।
हर मुल्क खेलों में आगे बढ़ा है लेकिन जिन खेलों में हम कभी दुनिया की ताकत थे, कुप्रबंधन के चलते हम आज उनमें बहुत पीछे हैं। हॉकी और फुटबाल जैसे खेल इसका सबसे बड़ी उदाहरण हैं। हॉकी में आठ बार का ओलम्पिक चैम्पियन भारत 40 साल से कोई पदक नहीं जीत पाया है तो फुटबाल में हम श्रेष्ठ सौ टीमों में भी नहीं हैं। हम खुश हो सकते हैं कि हॉकी में हमारी दोनों टीमें टोक्यो ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई कर चुकी हैं लेकिन हम इनसे पदक की उम्मीद नहीं कर सकते। पुरुष टीम ने विश्वास जगाया है कि अगर हॉकी संघ से लेकर खिलाड़ियों तक सभी अपना फोकस ठीक रखें तो भारतीय हॉकी फिर गौरवशाली पहचान और स्थान हासिल कर सकती है।
हमारे देश में अक्सर विदेशी कोचों की आलोचना की जाती रही है, लेकिन यह गलत है। विदेशी खेल गुरुओं ने हमारे खिलाड़ियों को फिटनेस, लय और मनोबल को वापस पाने में काफी मदद की है। हमारे देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन यहां जमीनी स्तर पर कोई ठोस सिस्टम नहीं होने के चलते खिलाड़ी अपने अभिभावकों के भरोसे बमुश्किल मैदानों तक पहुंचते हैं। जिस देश में काबिल खेल प्रशिक्षकों और शारीरिक शिक्षकों के साथ बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार होता हो वहां भला खेल संस्कृति कैसे पल्लवित-पोषित हो सकती है। खेलों में हमें महाशक्ति बनना है तो अधिकाधिक खेल नर्सरियां खोलनी होंगी तथा घरेलू स्पर्धाओं के सिस्टम को बदलना होगा। बड़ी संख्या में प्रतिभाशाली तथा क्षमतावान खिलाड़ी निकल कर आएं इसके लिए जमानी स्तर पर सुविधा और प्रोत्साहन पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। देखा जाए तो भारत जैसे देश में गरीब परिवारों के बच्चे ही खिलाड़ी बनना चाहते हैं जिन्हें दो वक्त का भोजन भी बमुश्किल नसीब होता है।