आसान नहीं सुशील बनना

पहलवानों का मंदिर है नई दिल्ली का छत्रसाल अखाड़ा

श्रीप्रकाश शुक्ला

नई दिल्ली। आज के समय में जहां थोड़ी सी सफलता मनुष्य का मिजाज बदल देती है वहीं कुछ ऐसी शख्सियतें भी हैं जिन पर शोहरत का नशा चढ़ने की बजाय वे सिर्फ अपने काम से वास्ता रखती हैं। ऐसी ही शख्सियतों में शुमार हैं दो बार के ओलम्पिक पदक विजेता खेल रत्न सुशील कुमार। गत दिवस नई दिल्ली प्रवास पर पहलवानों के मंदिर छत्रसाल अखाड़े में सुशील कुमार से सौजन्य मुलाकात हुई। सुशील कुमार से लगभग एक घण्टे की मुलाकात के बाद मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि अप्रतिम सफलता के बाद भी सुशील का सुशील बना रहना ही इनकी सफलता का राज है।

पहलवान सुशील कुमार भारत का गौरव ही नहीं बल्कि एक नेक इंसान भी हैं। इनके आतिथ्य और सम्मान के तरीके ने मुझे इतना प्रभावित किया जिसे शब्दों से बयां करने की बजाय सिर्फ महसूस किया जा सकता है। 1982 में अस्तित्व में आए छत्रसाल स्टेडियम में सिर्फ सतपाल जी का अखाड़ा ही नहीं चलता बल्कि एथलेटिक्स, बास्केटबाल, वालीबाल जैसे खेलों में भी युवा तरुणाई अपना कौशल निखारती है। यहां दर्जनों खेल प्रशिक्षकों द्वारा न केवल युवा पीढ़ी को जीत का गुरमंत्र दिया जाता है बल्कि सुशील कुमार जैसे लोग अपने आचरण से खिलाड़ियों के सामने एक नजीर भी पेश करते हैं। सुशील कुमार हर प्रशिक्षक का न केवल सम्मान करते हैं बल्कि उसके चरण भी स्पर्श करते हैं।

महाबली सतपाल के छत्रसाल अखाड़े की बात करें तो यहां से देश को तीन ओलम्पिक पदक विजेता, दो राजीव गांधी खेल रत्न तथा चार द्रोणाचार्य मिल चुके हैं। छत्रसाल स्टेडियम सिर्फ एक क्रीड़ांगन ही नहीं बल्कि खेलों का ऐसा पवित्र मंदिर है जहां खेल का आगाज करने से पूर्व युवा पीढ़ी भगवान तुल्य प्रशिक्षक की पूजा करती है। छत्रसाल अखाड़ा इस समय देश में कुश्ती का सबसे बड़ा केन्द्र बन चुका है। कोरोना संक्रमण के बावजूद भी यहां हर आयु वर्ग के सैकड़ों युवा पहलवान देश के गौरव को बढ़ाने की खातिर सुबह-शाम पसीना बहाते हैं। इस अखाड़े के पहलवान सुशील कुमार ने बीजिंग ओलम्पिक में कांस्य पदक तो लंदन ओलम्पिक में चांदी का पदक जीतकर नया इतिहास रचा है जबकि उनके साथी पहलवान योगेश्वर दत्त के नाम कांस्य पदक दर्ज है।

बीजिंग ओलम्पिक की शानदार उपलब्धि के बाद महाबली सतपाल को द्रोणाचार्य पुरस्कार से नवाजा गया तो उसके बाद इसी अखाड़े के रामफल को भी द्रोणाचार्य पुरस्कार मिला। छत्रसाल अखाड़े के ही यशवीर सिंह का यश भी किसी से कम नहीं रहा। महाबली सतपाल छत्रसाल अखाड़े की शानदार उपलब्धियों पर कहते हैं कि हमने कई वर्ष पहले एक पौधा लगाया था जो अब वट वृक्ष बन बन गया है और उससे ओलम्पिक पदक रूपी फल आने शुरू हो गए हैं। इस अखाड़े से केवल सीनियर स्तर पर ही नहीं बल्कि जूनियर और कैडेट स्तर पर भी स्वर्ण विजेता खिलाड़ी निकले हैं और निकल रहे हैं। इस अखाड़े से चार अर्जुन अवॉर्डी निकल चुके हैं और सुशील ने तो दो ओलम्पिक पदक जीतने के अलावा विश्व चैम्पियनशिप में पहले भारतीय विजेता पहलवान होने का भी गौरव हासिल किया है। विश्व कैडेट चैम्पियनशिप, एशियाई खेल और एशियन कैडेट कुश्ती के पदक विजेताओं की बात करें तो यह संख्या सैकड़ों में है।

किसी एक ही अखाड़े से तीन ओलम्पिक पदक निकलना और लगातार दो पदक निकलना एक बड़ी उपलब्धि है। महाबली सतपाल कहते हैं कि मैंने जब दिल्ली सरकार में खेल विभाग ज्वाइन किया था, तब उन्होंने अपनी अंतररात्मा की आवाज से यह अखाड़ा शुरू किया था। दो ट्रक मिट्टी में आठ-दस बच्चों के साथ शुरू हुआ छत्रसाल अखाड़ा आज देश का नम्बर एक अखाड़ा है। महाबली सतपाल के इस अखाड़े का मूलमंत्र युवा पहलवानों में तकनीक और स्पीड को प्रमुखता देने के साथ कुश्ती के दांव-पेचों का आधुनिकीकरण किया जाना है। इस अखाड़े को दिल्ली सरकार, भारतीय खेल प्राधिकरण तथा कुश्ती फेडरेशन का भी पूरा समर्थन मिला। अपना सब कुछ कुश्ती के लिए समर्पित कर देने वाले महाबली सतपाल ने अखाड़ा शुरू कर देने के बाद रामफल और यशवीर जैसे कोचों को ढूंढ़ा जिन्होंने छोटे-छोटे पहलवानों पर मेहनत कर उन्हें भविष्य का चैम्पियन बनने के लिए तैयार किया।

सतपाल कहते हैं कि जब हम मिट्टी में प्रैक्टिस करते थे तब भी हमारे पहलवान राकेश कुमार, अनिल मान, रविन्दर कुमार और जोगिन्दर सिंह वर्ल्ड कैडेट में स्वर्ण पदक जीतकर लाए थे। अब तो सुशील तथा योगेश्वर ने कुश्ती को उन ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है, जिसके बारे में हमने कभी सोचा भी नहीं था। खुद दो ओलम्पिक खेल चुके महाबली सतपाल ने कहा मैंने एशियाड और कामनवेल्थ चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीते थे लेकिन मेरा सपना था कि हमारे पहलवान ओलम्पिक में पदक जीतें और वह सपना पूरा हो चुका है।

महाबली सतपाल उम्र के अंतिम पड़ाव में होने के बावजूद सुबह के सत्र में अखाड़े में आते हैं। सुशील कुमार सुबह-शाम पहलवानों को न केवल जीत के तौर-तरीके बताते हैं बल्कि स्वयं भी अभ्यास करते हैं। प्रायः सफलता हासिल होने के बाद लोग खेल को मनोरंजन के तौर पर लेने लगते हैं लेकिन यहां युवा तरुणाई की ट्रेनिंग को लगातार पुख्ता किया जाता है। सतपाल के गुरु और भारतीय कुश्ती के पितामह गुरु हनुमान का हमेशा सपना था कि कोई भारतीय पहलवान ओलम्पिक में पदक हासिल करे। सुशील कुमार ने 2008 के बीजिंग ओलम्पिक में कांस्य पदक जीतकर अपने गुरु सतपाल और उनके गुरु हनुमान का सपना पूरा कर दिया था लेकिन इनका लंदन में उससे भी एक कदम आगे निकलना यह सिद्ध करता है कि मेहनत व लगन कभी अकारथ नहीं जाती।  

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