सिर्फ कागजों में बेटियों का प्रोत्साहन
बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ सिर्फ तमाशा
श्रीप्रकाश शुक्ला
समय तेजी से बदल रहा है लेकिन नारी शक्ति का तरफ नजर डालें तो उनकी प्रगति आज भी कछुआ चाल ही है। हमारी हुकूमतें बेटियों के प्रोत्साहन पर खर्च होने वाला पैसा सिर्फ कागजों पर जाया कर रही हैं। पिछले दो दशक में हर राज्य सरकार ने खेलों के बजट में बढ़ोत्तरी की है तो बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ पर अरबों रुपये खर्च किए गए लेकिन इससे बेटियों का कितना भला हुआ इस तरफ किसी सरकार ने संजीदगी से ध्यान नहीं दिया।
एक तरफ हम लड़के एवं लड़कियों की समान शिक्षा, समान अधिकार, नारी सशक्तीकरण की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं तो दूसरी तरफ महिला खिलाड़ियों के साथ होते सौतेला व्यवहार पर आंखें बंद रखते हैं। खेलों के क्षेत्र पर जहां आज बेटियां पुरुष खिलाड़ियों से बराबरी करती दिख रही हैं तो दूसरी तरफ इनकी मैच फीस और सुविधाओं में जमीन आसमान का अंतर देखा जा सकता है। यह भेदभाव क्रिकेट ही नहीं अमूमन हर खेल में देखा जा सकता है। खेलों में महिला खिलाड़ियों को पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में कम फीस, कम ईनामी राशि, कम भत्ते और अन्य सुविधाएँ भी कम ही मयस्सर होती हैं।
पुरुष क्रिकेट टीम के चैम्पियन बनने पर जहां देश में दिवाली मनाई जाती है वहीं महिलाओं की उपलब्धि समाचार-पत्रों में भी जगह नहीं बना पाती। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय महिला खिलाड़ियों ने अपने लाजवाब प्रदर्शन से जहां देश का मान बढ़ाया है वहीं ओलम्पिक तक में मुल्क की लाज बचाई है लेकिन प्रोत्साहन की दिशा में हीलाहवाली ही नजर आई। दुती चंद ने विश्व विश्वविद्यालयीन खेलों में जहां पहली बार स्वर्णिम सफलता हासिल की वहीं हिमादास ने आईएएएफ विश्व अंडर-20 एथलेटिक्स की 400 मीटर दौड़ में पहला स्थान हासिल किया, लेकिन यह बेटियां आज अपनी गरीबी पर आंसू बहा रही हैं।
21वें राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय महिला खिलाड़ियों ने कुल 31 पदक हासिल किए थे। इन जांबाज बेटियों में बैडमिंटन स्टार सायना नेहवाल, मुक्केबाज़ एमसी मैरीकाम, निशानेबाज़ मनु भाकर, शूटर हिना सिद्धू, तेजस्विननी सावंत, श्रेयसी सिंह, टेबल टेनिस खिलाड़ी मणिका बत्रा, भारोत्तोलक मीराबाई चानू, संजीता चानू, पूनम यादव, पहलवान विनेश फोगाट आदि शामिल थीं। रियो ओलम्पिक में साक्षी मलिक ने कुश्ती में कांस्य पदक जीतकर देश का गौरव बढ़ाया तो बैडमिंटन खिलाड़ी पी.वी. सिंधू ने बैडमिंटन में चांदी के पदक से अपना गला सजाया था। रियो में जिम्नास्ट दीपा कर्माकर ने चौथा स्थान प्राप्त कर इतिहास रचा था। भारत की दिव्यांग खिलाड़ी दीपा मलिक भी रियो पैरालम्पिक में गोला फेंक एफ-53 में रजत पदक जीतकर ऐसा करने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनी थीं। रियो ओलम्पिक के शानदार प्रदर्शन के बाद एशियाड में महिला पहलवान विनेश फोगाट ने कुश्ती का ऐतिहासिक स्वर्ण पदक जीतकर हमारे देश का नाम रोशन किया तो रानी सरनोबत ने निशानेबाज़ी में स्वर्ण पदक जीतकर देशवासियों का दिल जीता था।
एशियाड, राष्ट्रमण्डल और ओलम्पिक खेलों से इतर भारतीय खिलाड़ी बेटियां अन्य राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भी कमाल का प्रदर्शन कर रही हैं लेकिन उनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। हम अपने खिलाड़ियों से हर प्रतियोगिता में `स्वर्ण पदक की उम्मीद तो करते हैं लेकिन सुविधाएं देने के मामले में तंगहाली का रोना रोते नजर आते हैं। अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं को छोड़ दें तो देश में होने वाली बाकी राज्यस्तरीय और राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी महिला खिलाड़ियों के रुकने-ठहरने की व्यवस्था, नाश्ते और भोजन की व्यवस्था बद से बदतर ही होती है।
हम बेटियों को हर क्षेत्र में सफल होते देखना चाहते हैं लेकिन स्कूलों में छात्राओं के खेलकूद की ढांचागत व्यवस्थाएं मुंह चिढ़ाती नजर आती हैं। भारतीय महिला जूनियर हॉकी टीम की गोलकीपर खुशबू खान अपने परिवार के साथ झुग्गी झोपड़ी में रहती है तो भारतीय क्रिकेटर मिताली राज को ट्रेन में अनारक्षित सीट पर हैदराबाद से दिल्ली यात्रा करनी पड़ती है। उड़नपरी पी.टी. ऊषा को 1984 के ओलम्पिक में खेलगांव में खाने के लिए चावल के दलिये के साथ अचार पर निर्भर रहना पड़ा था। उस ओलम्पिक में ऊषा एक सेकेंड के सौवें हिस्से से पदक चूक गई थीं। सच कहें तो उन्हें उस दौर में पर्याप्त पोषक आहार नहीं मिलने से कांस्य पदक से हाथ धोना पड़ा था।
देखा जाए तो देश का प्रतिनिधित्व करने वाली अधिकांश महिला खिलाड़ियों को रोजमर्रा के जीवन में अनगिनत तकलीफों का सामना करना पड़ता है। वह अपने साथ होने वाले भेदभाव का जिक्र तक नहीं कर पातीं। लाख मुसीबतों के बाद भी भारतीय खिलाड़ी बेटियां कुछ कर गुजरने का जुनून कभी नहीं छोड़तीं। जमीनी हकीकत से अनजान भारतीय खेल मंत्री किरेन रिजिजू 2028 ओलम्पिक में भारत को पदक तालिका में 10वें स्थान पर लाने का दिवास्वप्न देखते हैं लेकिन प्रतिभाशाली खिलाड़ी बेटियों की तरफ न ही खेल मंत्रालय की नजर है और न ही भारतीय खेल प्राधिकरण मदद को हाथ बढ़ाता है। सच कहें तो अपने स्वयं के बलबूते पर ही भारतीय खिलाड़ी बेटियां दुनिया में मादरेवतन का मान बढ़ा रही हैं। खेलों में लैंगिक भेदभाव जब तक कायम रहेगा भारत खेल महाशक्ति कभी नहीं बन सकेगा।