खेल हुकूमतें नजर नहीं, नजरिया बदलें

भारत अपनी आजादी के 73 जश्न मना चुका है लेकिन हमारे खिलाड़ी आज भी खेलतंत्र की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। खराब प्रदर्शन पर हम उन खिलाड़ियों को भला-बुरा कहते हैं जोकि अपना सब कुछ दांव पर लगाकर देश का गौरव बढ़ाने की कोशिश करते हैं। हर बड़ी खेल प्रतियोगिता के बाद हमारा खेलतंत्र उन खिलाड़ियों के प्रदर्शन का विश्लेषण करता है जिनके प्रोत्साहन में उसका लेशमात्र भी योगदान नहीं होता। खिलाड़ियों की समीक्षा करने की बजाय हमारे निठल्ले खेलतंत्र को मनन-मंथन करना चाहिए कि आखिर वह प्रतिभावान नौनिहालों की क्षमता को वैश्विक खेलों में पदक जीतने वाले कौशल में बदलने वाला तंत्र 73 साल बाद भी क्यों विकसित नहीं कर पाया? हमारा देश प्रतिभा का मोहताज नहीं है। हमारी युवा तरुणाई भी अवसर, सुविधाएं व संसाधन मिलने के बाद वैश्विक खेल मंचों पर अपने कौशल का जयकारा लगा सकती है।  

देखा जाए तो आजाद भारत में खिलाड़ी हुकूमतों के प्रयासों से नहीं बल्कि त्यागी अभिभावकों की वजह से निकलते हैं। खिलाड़ी की हर सफलता में उनके माता-पिता और परिवार का त्याग समाहित होता है। वास्तव में ऐसा हर परिवार नहीं कर सकता और न ही इन प्रयासों में सरकारी तंत्र का विकल्प बनने की क्षमता होती है। हम बढ़ती आबादी का रोना रोते हैं जबकि हमारा पड़ोसी राष्ट्र चीन अपनी खिलाड़ी हितैषी नीतियों, संकल्प और प्रतिबद्धता से खेल मैदानों में एशियाई देशों ही नहीं समूची दुनिया को ललकारता है। खेलों के लिहाज से देखें तो लोकतांत्रिक भारत के कुछ राज्य खेलों में अच्छा कर रहे हैं। इस मामले में हम हरियाणा को पहले स्थान पर रख सकते हैं।

हरियाणा के खिलाड़ियों के प्रदर्शन की जितनी प्रशंसा करें, वह कम है। देश की प्रतिष्ठा को चार चांद लगाने में हरियाणा के खिलाड़ियों ने बड़ी भूमिका अदा की है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्य यह भूल चुके हैं कि आज के प्रतिस्पर्धी हालातों में बड़ी भूमिका निभाने का अर्थ है, बड़ी चुनौतियों का सफलतापूर्वक मुकाबला करना। पिछले जकार्ता एशियन खेलों में जहां भारत ने कुल 15 स्वर्ण समेत 69 पदक जीते वहीं हरियाणा के खिलाड़ियों ने छह स्वर्ण, पांच रजत, सात कांस्य सहित 18 पदकों का बड़ा योगदान दिया था। देश की लगभग तीन फीसदी आबादी वाले राज्य के लिए अकेले चौथे हिस्से से अधिक स्वर्ण व कुल पदकों का 38 प्रतिशत निश्चित रूप से एक तरह की असाधारण उपलब्धि कही जा सकती है। एक पहलू यह भी कि मेडल जीतने वाले हरियाणा के कुल 26 खिलाड़ियों में महिलाओं की संख्या 11 थी जोकि खुद में महिलाओं के स्तर पर एक बड़ी क्षमता होने का प्रमाण है।

हरियाणा की संस्कृति कृषि प्रधान होने की वजह से यहां मेहनती लोगों की संख्या काफी है। असल में यह हरियाणा-पंजाब की साझी विरासत है। अच्छी कद-काठी और छोटी-छोटी जोत होने की वजह से यहां की युवा तरुणाई शुरुआत से ही सशस्त्र बलों में सेवा को वरीयता देती रही है। पिछले कुछ वर्षों में हरियाणा ने अपनी युवा पीढ़ी को खेलों में जैसे ही बेहतर दर्जे की खेल सुविधाएं और प्रोत्साहन दिया, खिलाड़ियों ने अंतरराष्ट्रीय खेल मंचों पर भारतीय तिरंगा लहरा दिया। खिलाड़ियों के जोश और जज्बे को हतोत्साहित करने की बजाय इस राज्य के खेल हितैषी राजनेताओं ने उनका करियर संवारने की भी पुरजोर कोशिश की है।

आजाद भारत में हुकूमतों ने खेल नीतियां तो बनाईं लेकिन उन पर ईमानदार प्रयास नहीं हुए। दरअसल,  हमारे देश में खेलों में विफलता की मुख्य वजह मार्गदर्शक नजरिये का अभाव और खेल सुविधाओं की कमी मानी जा सकती है। भारत में खेल संस्कृति को पल्लवित-पोषित करने की बजाय हर सरकार ने खिलाड़ियों की लोकप्रियता को भुनाने के ही प्रयास अधिक किए हैं। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, हमारा खेलतंत्र खेल-नीति को जनोन्मुखी बनाते हुए देश में लोकप्रिय जनपक्षीय खेल-संस्कृति को प्रश्रय दे सकता है। खेल साधन हैं एक स्वस्थ समाज निर्माण का, वह साध्य नहीं हैं। याद रहे शारीरिक व मानसिक रूप से विकसित राष्ट्र ही अंतरराष्ट्रीय स्तर का खेल-पावर बन सकते हैं।

यह खुशी और सौभाग्य की बात है कि आज हमारे युवाओं में खेलों के प्रति आकर्षण और दिलचस्पी तो है लेकिन सरकारी खेल सुविधाएं उनके लिए छोटी पड़ रही हैं। कई पूर्व खिलाड़ियों, खेल संगठन पदाधिकारियों तथा प्रशिक्षकों ने युवा पीढ़ी के कौशल को निखारने के लिए खेल एकेडमियां तो खोल दी हैं लेकिन इनकी फीस देना साधारण परिवारों के प्रतिभाशाली बच्चों के बूते से बाहर है। देखा जाए तो खेलों की व्यवस्था को लेकर हुकूमतों की आत्मतुष्टि और खिलाड़ियों की सामूहिक प्रतिवेदना के बीच परस्पर विरोधाभास है। इस विरोधाभासी स्थिति का सकारात्मक निराकरण जब तक नहीं किया जाता मैदान खिलाड़ियों की किलकारियों से नहीं गूंजेंगे। हम खेल-पथ के माध्यम से खिलाड़ियों को प्रोत्साहित तो कर सकते हैं लेकिन खेलतंत्र के मिजाज को तभी बदला जा सकता है जब खेल-मंत्री भी सही को सही और गलत को गलत मानने की हिम्मत जुटाएं।

 

रिलेटेड पोस्ट्स