महिला प्रशिक्षकों पर भारत को भरोसा नहीं

35 साल में सिर्फ हंसा, सुनीता और पूर्णिमा ही बनीं द्रोणाचार्य

खेलपथ विशेष

ग्वालियर। हमारे देश की बेटियां आज हर क्षेत्र में अपनी सफलता का नया अध्याय लिख रही हैं। पिछले कुछ वर्षों में बेटियों की अपार सफलता ने समाज का विश्वास तो जीता है लेकिन वे पुरुष प्रधान भारतीय खेल तंत्र का भरोसा अभी तक नहीं जीत सकी हैं। भारत में बेटियां खिलाड़ी के रूप में तो स्वीकार्य हैं लेकिन उनके प्रशिक्षण पर खेलनहारों को संदेह है। यह मैं नहीं देश में पिछले 35 वर्षों से रेवड़ी की तरह बांटे जा रहे द्रोणाचार्य पुरस्कारों की लिस्ट बयां कर रही है। 1985 से 2020 के बीच भारत ने 123 खेल प्रशिक्षकों को द्रोणाचार्य अवार्ड से नवाजा है लेकिन इनमें सिर्फ तीन महिला द्रोणाचार्य ही शामिल हैं।

भारत में द्रोणाचार्य पुरस्कार की शुरुआत 1985 से हुई लेकिन महिलाओं को यह सम्मान 15 साल बाद मिला। 2000 में पहली बार राष्ट्रीय खेल पुरस्कार समिति द्वारा वेटलिफ्टिंग में देश को कई महिला वेटलिफ्टर देने वाली उत्तराखण्ड की हंसा शर्मा को द्रोणाचार्य पुरस्कार देने की अनुशंसा की गई थी। हंसा के बाद 2004 में दिल्ली की सुनीता शर्मा को क्रिकेट तो 2013 में झारखण्ड की पूर्णिमा महतो को तीरंदाजी में द्रोणाचार्य अवार्ड प्रदान किया गया। इस साल भी राष्ट्रीय खेल दिवस को 13 खेल प्रशिक्षकों को द्रोणाचार्य पुरस्कार हासिल करने का सौभाग्य मिल रहा है लेकिन इनमें कोई महिला प्रशिक्षक शामिल नहीं है।

भारत में खेल पुरस्कारों की बंदरबांट और द्रोणाचार्य पुरस्कारों में महिला खेल प्रशिक्षकों की अनदेखी कई तरह के सवाल खड़ी करती है। एक तरफ बेटियां खेल के क्षेत्र में भारत की अंतरराष्ट्रीय खेल मंचों पर इज्जत बचा रही हैं तो दूसरी तरफ हमारे खेलनहार उनकी योग्यता पर संदेह कर रहे हैं। हमारे देश में राष्ट्रीय खेल पुरस्कार हमेशा विवादों में रहे हैं, इनमें कोई ऐसा साल नहीं रहा जब द्रोणाचार्य पुरस्कार को लेकर नाराजगी न व्यक्त की गई हो। दरअसल, खेल मंत्रालय द्वारा हर राष्ट्रीय खेल पुरस्कार की गाइड लाइन तो बना दी गई लेकिन उसका अनुपालन कतई नहीं हो रहा है। कहने को द्रोणाचार्य पुरस्कार के लिए किसी प्रशिक्षक की दो दशक से अधिक की प्रशिक्षण सेवाओं को प्रमुखता दी जाना चाहिए लेकिन यहां 30-35 साल के लोग भी द्रोणाचार्य बन रहे हैं।

हमारे समाज को हंसा शर्मा, सुनीता शर्मा और पूर्णिमा महतो के अनुभव और योग्यता की तारीफ करनी होगी जिन्होंने पुरुष प्रधान खेल तंत्र को द्रोणाचार्य पुरस्कार देने के लिए मजबूर किया। देखा जाए तो भारत की प्रथम भारोत्तोलक महिला कोच हंसा शर्मा ने गुरु की महिमा के अनुरूप प्रशिक्षण कार्यों को संपादित कर आजाद भारत में महिलाओं के लिए द्रोणाचार्य पुरस्कार हासिल करने का रास्ता दिखाया। उत्तरांचल में जब कभी भी किसी महिला खिलाड़ी का जिक्र होता है तो हंसा शर्मा का नाम सबसे पहले लिया जाता है। हंसा 17 मई, 1957 को एक सामान्य परिवार में जन्मीं। महेन्द्र सिंह मनराल-लक्ष्मी देवी की लाड़ली हंसा अपने चार भाई बहनों, चतुर सिंह, भगवान सिंह, विक्रम सिंह, कमला देवी में सबसे छोटी हैं। हंसा में बचपन से ही साहस व कर्मठता कूट-कूट कर भरी थी। वेटलिफ्टिंग में द्रोणाचार्य अवार्ड हासिल हंसा अपने खिलाड़ी जीवन में लाजवाब एथलीट रही हैं।  इन्होंने 1979 से 1985 तक राष्ट्रीय खेलों में गोला, चक्का और भाला फेंक प्रतियोगिताओं में 12 स्वर्ण, चार रजत तथा पांच कांस्य पदक जीतकर अपने कुशल खिलाड़ी होने का संकेत दिया था। इन्हें 15 मार्च, 1980 को स्पोर्ट्स कोटे से एफसीआई में नौकरी मिली।

हंसा अपनी सफलता का श्रेय अपने एथलेटिक्स प्रशिक्षक दीवान सिंह को देती हैं। 1983 में  गम्भीर चोट व अन्य शारीरिक परेशानियों के कारण हंसा ने एथलेटिक्स से नाता तोड़ लिया।  इसी बीच अपने को स्वस्थ रखने के लिए गुरु गोविन्द सिंह स्पोर्ट्स कॉलेज लखनऊ के मैदान में जाना प्रारम्भ कर दिया। इसे सौभाग्य कहें कि वहां इन्हें राष्ट्रीय कोच गोविन्द प्रसाद शर्मा का सहारा मिला और उन्हीं के निर्देशन में हंसा ने भारोत्तोलन के गुर सीखकर वह कार्य कर दिखाया जिसकी देश में दूसरी मिसाल नहीं मिल सकती।  देश की पहली महिला द्रोणाचार्य अवार्डी हंसा शर्मा का मानना है कि उत्तरांचल में असंख्य प्रतिभाएं छिपी हैं लेकिन गरीबी, अशिक्षा के कारण उन्हें आगे जाने का मौका नहीं मिल पाता। आज उत्तरांचल के कई खिलाड़ी खेल जगत में देश मान बढ़ा रहे हैं, उन्हीं खिलाड़ियों में हंसी की बिटिया भूमिका शर्मा भी शामिल है। देहरादून निवासी हंसा की पुत्री भूमिका वेनिस में हुई विश्व बाडीबिल्डिंग चैम्पियनशिप जीतकर समूची दुनिया में भारत का गौरव बढ़ा चुकी है।

भारत की दूसरी और क्रिकेट की पहली महिला द्रोणाचार्य अवार्डी सुनीता शर्मा में क्रिकेट प्रशिक्षण का ऐसा जुनून है जिसे शब्दों से बयां करना कतई आसान नहीं है। सुनीता दिन-रात क्रिकेट की बेहतरी को ही जीती हैं। देश की तीसरी महिला द्रोणाचार्य अवार्डी पूर्णिमा महतो तीरंदाजी में झारखण्ड की पहचान हैं। यह योग्य प्रशिक्षक ही नहीं कुशल खेल प्रशासक भी हैं।

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