हिमा दास के जज्बे को सलाम

अभावों के ट्रैक से निकली ‘उड़नपरी’

खेलपथ प्रतिनिधि

ग्वालियर। फिनलैंड में हिमा दास को गोल्ड मेडल मिलने के बाद जब राष्ट्रगान गूंज रहा था तो उसका चेहरा खुशी के आंसुओं से सराबोर था। जो उसकी उद्दात राष्ट्र प्रेम भावनाओं का ही परिचायक था। अभावों की तपिश में दमककर कुंदन बनकर उभरी हिमा दास की चर्चा देश-दुनिया के नक्शे में खूब हो रही है। मगर हमें उसके श्रमसाध्य प्रयासों और उन विषम परिस्थितियों को भी इस मौके पर याद करना चाहिए, जिससे गुजरकर उसने यह मुकाम हासिल किया। वह पुरुष व महिला वर्ग के एथलीटों में विश्व स्पर्धा में सुनहरी सफलता हासिल करने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी है। अब तक हमने सिर्फ चौथे-पांचवें स्थान में पहुंचे खिलाड़ियों के ही गुणगान किये हैं।
धान के खेतों में दौड़ लगाकर फिनलैंड तक सुनहरा सफर हासिल करने वाली हिमा की कामयाबी सही मायनो में किसी बॉयोपिक फिल्म सरीखी है। भरपेट गुजारा कर सकने वाले एक संयुक्त किसान परिवार में जन्मी हिमा की सफलता मुश्किलों के रास्तों से होकर गुजरती है। एक लड़की होकर लड़कों के बीच खेलने वाली लड़की को भी अच्छी नजर से नहीं देखा गया। यहां तक कि एक बार जब खेल-खेल में एक लड़के को चोट लगी तो उसके परिवार ने बवाल कर दिया। उसके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट की गई। उसे थाने ले जाया गया, बावजूद इसके कि उसके ताऊ ने उस लड़के के घर वालों को कुछ पैसे भी दिये। बाद में दारोगा ने किशोरी हिमा को बच्ची जानकर थाने से लौटा दिया।
असम के नौगांव जिले के कांदुलीमारी गांव में जन्मी हिमा में बचपन से खिलाड़ी बनने के गुण थे। पिता रंजीत दास ने इस गुण को समझा और उसे प्रोत्साहन भी दिया। वह धान के खेतों में काम भी करती और मौका मिलने पर खेलने भी जाती। मगर दिक्कत यह थी एक लड़की किसके साथ खेले, कौन-सा खेल खेले। वहां तो कोई स्टेडियम भी नहीं था और न ही दौड़ने का ट्रैक। वह धान के खेतों में दौड़ती थी। मगर उसके गांव का इलाका ऐसा था कि बरसात के दो -तीन महीने खेतों में पानी भर जाता था। फिर वह कहां दौड़े? कभी-कभी तो वह सड़क पर दौड़ती कारों के साथ दौड़ पड़ती थी। कई मौके ऐसे आए कि उसने तेज गति की कार तक को पछाड़ा। उसे न कोई सिखाने वाला था और न उसके साथ खेलने वाला।
फिर हिमा ने सोचा क्यों न फुटबाल खेली जायी। मगर उसे लड़के खिलाने को तैयार नहीं थे। महिला फुटबालरों की कोई टीम न थी। एक बार उसकी फुटबाल टीम के लड़कों के साथ खूब लड़ाई भी हुई। लड़के कहते-इस लड़की को नहीं खिलाएंगे। मगर उसके हृदय का खिलाड़ी उफान मारता। उसने जब फुटबाल टीम में खेलना शुरू किया तो दनादन गोल दागे। फिर तो वह फुटबाल टीम का हिस्सा हो गई। वह आसपास के जिलों में फुटबाल खेलने जाती। जीतकर आती तो जो दो-चार सौ रुपये मिलते, मां के हाथ पर रख देती। हिमा की मां जोनाली दास इस बात को बड़े गर्व से बताते हुए कहती है कि जब उसे पैसे की जरूरत होती तो वह सिर्फ पिता से मांगती। उसके घर वालों को मलाल इस बात का है कि जब उसे फिनलैंड में मैडल दिया गया तो लाइट न होने से उस कार्यक्रम को नहीं देख पाये।
दरअसल, हिमा के जीवन में टर्निंग प्वाइंट तब आया जब वह कोच निपुण दास की नजर में आई। जनवरी 2017 में हिमा गुवाहाटी में एक कैंप में हिस्सा लेने आई थी। निपुण दास ने ट्रैक पर दौड़ते हुए हिमा को देखा तो उन्हें लगा कि यह तो लंबी रेस की खिलाड़ी है। इसके बाद निपुण दास ने उसे ट्रैक पर निपुण बनाने का संकल्प लिया। वे उसके गांव पहुंचे और माता-पिता से कहा कि उसे बेहतर ट्रेनिंग के लिये गुवाहाटी भेजें। माता-पिता बेटी को आगे बढ़ना तो देखना चाहते थे मगर उनकी ऐसी स्थिति नहीं थी कि वे हिमा का गुवाहाटी में रहने का खर्चा उठा सकते। निपुण दास ने कहा-आप इसे बाहर भेजिए, खर्चा मैं उठाऊंगा। फिर उनकी मेहनत व मदद फिनलैंड में सुनहरी सफलता के रूप में सामने आई।
फिनलैंड में संपन्न अंतर्राष्ट्रीय ट्रैक एंड फील्ड चैंपियनशिप के अंडर-20 के 400 मीटर मुकाबले में पहले 35 सेकेंड में हिमा शीर्ष तीन में नहीं थी। आखिरी 100 मीटर में चौथे स्थान पर चल रही हिमा की दौड़ को देखकर कोच निपुणदास ने अंदाजा लगा लिया कि वह आज मेडल लेकर लौटगी। उन्हें पता था कि वह पहले तीन सौ मीटर में धीमी रहती है और फिर आखिरी सौ मीटर में पूरी जान लगा देती है। दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षण के अभाव में वह ट्रैक के कर्व पर अच्छी तरह नहीं दौड़ पाती, मगर जब आखिरी 100 मीटर में ट्रैक सीधा हो जाता है तो पिछली कसर पूरी करते हुए सबसे आगे निकल जाती है।
आज उसके गांव कांदुलीमारी में गजब का उत्साह है। गांव वालों को एहसास है कि उनकी बेटी ने कुछ खास किया है जो भारत का मीडिया गांव में पहुंच रहा है। हिमा आज लाखों अभावग्रस्त उदीयमान खिलाड़ियों की प्रेरणा पुंज बन गई है। उम्मीद करनी चाहिए कि हिमा टोक्यो ओलंपिक में भारत के लिये कुछ खास जरूर करेगी।

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