दीपी तोमर की जांबाजी को नारी शक्ति का सलाम

अपनी एकेडमी के माध्यम से इटावा को खेलों का हब बनाने का संकल्प

श्रीप्रकाश शुक्ला

इटावा। मेरी मंजिल की उड़ान अभी बाकी है, मेरे इरादों का इम्तिहान अभी बाकी है। अभी तो मापी है  मुट्ठी भर जमीं, मेरे हौसलों की उड़ान अभी बाकी है। यह बुलंद इरादे किसी और के नहीं बल्कि उस जांबाज दीपी तोमर के हैं जिसने खेलों में एक ऐसी पटकथा लिखी जिसे गांव की बेटियों के लिए लोग नामुमकिन मानते हैं। दीपी तोमर को अपने जांबाज पिता पर गर्व है तो खेलों में व्याप्त भाई-भतीजावाद तथा बेटियों की उपेक्षा का बेहद मलाल भी है। दीपी अपने अधूरे सपनों को अपनी खुद की एकेडमी से पूरा करने को दिन-रात एक कर रही हैं।

दीपी तोमर ने एथलेटिक्स में जो शोहरत हासिल की है, वह उनके जोश और जज्बे का जीवंत उदाहरण है। पी.टी. ऊषा को अपना आदर्श मानने वाली दीपी तोमर ने बेशक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन जैसा प्रदर्शन न किया हो लेकिन वह जब-जब ट्रैक पर उतरीं कोई न कोई मेडल जरूर जीता। दीपी तोमर का जन्म ऐसे गांव में हुआ जहां प्रकाश की व्यवस्था और खेलों की सुविधा बिल्कुल नहीं थी। दीपी ने श्री सुन्दर सिंह इण्टर कालेज रामगढ़, औरैया से हाईस्कूल, तोमर रघुनाथ सिंह इण्टर कालेज अरियारी, औरैया से इण्टर, बीजीएमपीजी महाविद्यालय दिबियापुर से स्नातक तथा परास्नातक तो बीपीएड और एमपीएड की तालीम सीएसजेएम यूनिवर्सिटी कानपुर से पूरी की।

एक बिल्कुल पिछड़े गांव से ताल्लुक रखने वाली शरारती दीपी तोमर ने अपनी स्कूली शिक्षा ऐसे हालातों में पूरी की जोकि आज के बच्चों के लिए हम नजीर मान सकते हैं। पढ़ाई के लिए प्रतिदिन 12 किलोमीटर साइकिल से आना-जाना आसान बात नहीं कही जा सकती। दीपी की हिम्मत को दाद देनी होगी कि इन्होंने अपनी मंजिल हासिल करने के लिए हर कष्ट को हंसते हुए स्वीकारा। अपने पुराने दिनों को याद कर दीपी भावुक हो जाती हैं। वह कहती हैं कि मुझे खेलने का बेहद शौक था लेकिन तब हमारे पास 200 मीटर का मैदान भी नहीं था जिस पर मैं मनचाहे तरीके से अभ्यास कर पाती। दीपी कहती हैं कि मेरे पिताजी आर्मी में थे, सिर्फ वही चाहते थे कि मैं खेलों में शिरकत करूं। अफसोस मुझे खेलों की बारीकियां बताने वाला तब कोई प्रशिक्षक भी नहीं था।

खेलपथ से बातचीत करते हुए दीपी तोमर कहती हैं कि मुझे खेलों की तरफ प्रेरित करने का काम वीरेन्द्र कुशवाह सर ने किया। वह मुझे अपनी बच्ची की तरह ध्यान रखते थे। खेलों में मेरे जोश और जुनून को बढ़ाने का काम डा. अजब सिंह यादव सर ने किया। खेलों में मेरी सफलता को देखते हुए मुझे स्कूल से एक लीटर दूध और खाने को पेड़े मिलते थे। मैं प्रायः स्पोर्ट्स कालेज के बच्चों से मेडल छीन लिया करती थी। मेरी खेलों में दिलचस्पी तब और बढ़ गई जब मैंने 1999 से 2001 तक लगातार व्यक्तिगत चैम्पियनशिप जीतने में सफल हुई। तब मैंने 100 मीटर हर्डिल, 400 मीटर हर्डिल तथा भालाफेंक में कानपुर, वाराणसी तथा फैजाबाद के एथलीटों को पछाड़कर विजय वरण करने में कामयाब हुई थी। दीपी तोमर 2002 से 2004 तक कानपुर यूनिवर्सिटी की अजेय खिलाड़ी रहीं। उस दौर में दीपी को 100 मीटर हर्डिल, 400 मीटर हर्डिल, भालाफेंक तथा गोलाफेंक में परास्त करने वाला उत्तर प्रदेश में कोई खिलाड़ी नहीं था। तीन बार आल इण्डिया यूनिवर्सिटी खेलों में हिस्सा लेने वाली दीपी तोमर उस दौर में पांच गोल्ड मेडल जीतने में सफल रहीं।       

एक नामचीन विद्यालय में पीटीआई के पद पर पदस्थ दीपी तोमर ने अपनी खेल प्रतिभा के बल पर न केवल अपने गांव और परिवार का नाम रोशन किया बल्कि वह आज अपनी एकेडमी से जांबाज एथलीट तैयार करने का सपना देख रही हैं। दीपी के पति भी अपने समय के शानदार खिलाड़ी रहे हैं। वह पुलिस की नौकरी छोड़कर अपनी पत्नी के अधूरे सपनों को पूरा करने में प्राणपण से जुट गए हैं। दीपी कहती हैं कि मुझे बचपन में खेलों को लेकर जो परेशानियां उठानी पड़ी हैं, मैं चाहती हूं कि ऐसी परेशानियां मेरे इटावा जनपद की प्रतिभाओं को न उठानी पड़ें। दीपी कहती हैं कि उनकी सफलता में फौजी पिता का विशेष योगदान है। मेरा जीवन खेल के प्रति समर्पित है सो मैं खेलों के माध्यम से ही अपने जनपद और प्रदेश की सेवा करना चाहती हूं। दीपी कहती हैं देश में खेल संस्कृति लाने के लिए महिलाओं को खेलों में आगे आना चाहिए।

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