हॉकी वीर बलबीर को खेलपथ का सलाम
यूं तो हॉकी के महान खिलाड़ी बलबीर सिंह सीनियर को उनके तीन ओलंपिक स्वर्ण पदकों और 1975 में विश्वकप जीत दिलवाने के लिए कृतज्ञ राष्ट्र उन्हें हमेशा याद रखेगा, मगर बलबीर सिंह सीनियर के नजरिये से उनके जीवन की सबसे बड़ी जीत स्वतंत्र भारत द्वारा सैकड़ों साल तक उपनिवेशवाद का दंश देने वाले ब्रिटेन को 1948 ओलंपिक में उसकी धरती पर हराने में थी। तब लंदन के वेंबले स्टेडियम में राष्ट्रगान की धुन के बीच तिरंगे का आसमान की ओर बढ़ना उन्हें आह्लादित कर गया। एक स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र होने तथा हथकड़ी पहनाकर पुलिस में भर्ती किये गये बलबीर सिंह के लिए यह गौरवशाली क्षण अविस्मरणीय रहा।
यूं तो देश के लिए सेंटर फॉरवर्ड खेलने वाले बलबीर सिंह के खेल की बदौलत भारत ने लंदन, हेलिंस्की और मेलबर्न ओलंपिक खेलों में हॉकी के स्वर्ण पदक जीते, मगर लंदन की जीत उनके दिल के करीब रही। लंदन जीत के बाद देश जश्न में डूब गया। आज़ादी की पहली वर्षगांठ उल्लास के साथ मनायी गयी। देश में जीत को लेकर जुनून इस कदर था कि जब लंदन से लौटने के बाद खिलाड़ियों का जहाज एक छोटे ज्वार-भाटे में दो दिन तक फंसा रहा तो प्रशंसक नौका लेकर उनके जहाज के पास उत्साह बढ़ाने पहुंच गये। देश ने जीत के नायकों का लाल कालीन बिछाकर स्वागत किया। यहां तक कि इस टीम का शेष भारत टीम के साथ एक प्रदर्शन मैच भी आयोजित किया गया, जिसे देखने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद तथा प्रधानमंत्री पं. नेहरू भी पहुंचे। विजयी गोल भी बलबीर सिंह ने किया। सबसे रोचक यह कि पहले लंदन जाने वाले 39 खिलाड़ियों में बलबीर सिंह का नाम नहीं था। फिर देश में उनके समर्थन में आवाज उठी। वे चुने गये बीस खिलाड़ियों में थे, फिर अभ्यास शिविर में दूसरे दिन उनकी पसली टूट गई थी। ऐसे ही वे मेलबर्न के ओलंपिक फाइनल में फ्रैक्चर के बाद उंगली पर प्लास्टर लगा और पेनकिलर इंजेक्शन लगाकर खेले।
लंबा स्वस्थ और गरिमामय जीवन जीने वाले बलबीर सिंह के ताज में तमाम चमकदार सितारे जड़े रहे। इनमें ओलंपिक के तीन स्वर्ण, विश्वकप जीतने वाली टीम का नेतृत्व, कोच और मार्गदर्शक की भूमिका भी शामिल है। उन्हें उत्कृष्ट खेल के लिए चौथा बड़ा नागरिक सम्मान पद्मश्री भी मिला और मेजर ध्यानचंद लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार भी। वे कभी मेजर ध्यानचंद के साथ नहीं खेले, मगर उनकी तुलना मेजर ध्यानचंद के खेल से होती रही। बलबीर सिंह 1956 के मेलबर्न ओलंपिक हॉकी टीम के कप्तान बने थे। इस ओलंपिक के पहले मैच में भारत ने अफगानिस्तान को 14-0 से हराया, लेकिन विडंबना यह कि इस मैच में बलबीर सिंह के दाएं हाथ की हड्डी टूट गई। वे कप्तान होने के नाते इस घटना से दबाव में आये, उनकी चोट टीम के मनोबल बनाये रखने के मकसद से गोपनीय रखी गई।
फाइनल में पाकिस्तान से मुकाबला था और टीम के खिलाड़ियों का जज्बा बनाये रखने के लिए वे उंगली पर प्लास्टर बांध कर मैदान में उतरे। भारत ने पाक को हराकर स्वर्णपदक जीता। इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद बलबीर सिंह सीनियर मन में एक टीस लेकर भी गये। दरअसल, 1985 में भारतीय खेल प्राधिकरण यानी साइ ने जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में प्रस्तावित राष्ट्रीय खेल संग्रहालय के लिए बलबीर सिंह की यादगार चीजें मांगी थीं, लेकिन न तो संग्रहालय बना और न ही उनकी विरासत वापस मिली। वे जीवन के अंतिम समय तक इसके लिए संघर्ष करते रहे।
स्वास्थ्य इजाजत नहीं दे रहा था, फिर भी खेल मंत्रियों व खेल संस्थानों में भटकते रहे। सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी गई, मगर गोलमोल जवाब मिलते रहे। इस धरोहर में उनके ओलंपिक ब्लेजर, दुर्लभ चित्र और कुछ पदक शामिल थे। लेकिन उनकी यह तमन्ना पूरी न हो सकी, वे अपनी धरोहर को देखे बिना ही इस दुनिया से चले गये। बहरहाल, उनका जज्बा व भारतीय हॉकी को दिये योगदान को देश कभी भुला नहीं सकता।