निरंकुश खेल संगठनों का सरकार पर अंकुश

कंगाली में आटा गीला करने का प्रयास
श्रीप्रकाश शुक्ला

कोरोना संक्रमण के चलते टोक्यो ओलम्पिक एक साल के लिए आगे बढ़ा दिए गए हैं। सम्भावना तो यह भी है कि अगले साल 23 जुलाई से होने वाला खेलों का महाकुम्भ भी नहीं होने वाला। कोरोना महामारी अब तक दुनिया भर के एक दर्जन से अधिक खिलाड़ियों को अपना ग्रास बना चुकी है। भारत सहित अधिकांश देशों में खेल गतिविधियां विराम लेने के चलते खिलाड़ियों का ओलम्पियन बनने का सपना चूर-चूर होता दिख रहा है। मैदानी खेल बेशक नहीं हो रहे लेकिन निरंकुश खेल संगठन खिलाड़ियों की सुविधाओं के नाम पर लगातार भारतीय खेल मंत्रालय से नूरा-कुश्ती का खेल खेल रहे हैं। खेल संगठनों के दबाव के चलते जहां ईमानदार केन्द्रीय खेल सचिव राधेश्याम जुलानिया को पद से हटना पड़ा वहीं खेल मंत्रालय को विदेशी प्रशिक्षकों का कार्यकाल बढ़ाने का निर्णय भी लेना पड़ा है। पाठकों को हम बता दें कि इस साल भारत में अक्टूबर से पहले कोई खेल गतिविधि परवान चढ़ने वाली नहीं है। अधिकांश खिलाड़ी रूखी-सूखी खाकर जहां अपने घरों में दण्ड पेल रहे हैं वहीं खेलनहार लॉकडाउन के दौरान आनलाइन खेल गतिविधियों के नाम पर सरकारी खजाने को खाली करने में लगे हुए हैं।
भारत युवाओं का देश है लेकिन यहां क्रिकेट के अलावा अन्य खेल गतिविधियां मौसमी हैं। हर चार साल बाद एशियाई खेल, राष्ट्रमण्डल खेल और ओलम्पिक खेलों के नाम पर बड़े-बड़े खेल खेले जाते हैं। इन खेलों में खिलाड़ियों के शिरकत करने से पहले खेल मंत्रालय के पदाधिकारियों को खेलनहारों (खेल संगठनों के पदाधिकारी) के हाथ नाचना पड़ता है। हम यहां साफ कर दें कि हमारा खेल मंत्रालय भी ईमानदार नहीं है। खिलाड़ियों की सुविधाओं के नाम पर अरबों रुपये के खेल बजट का प्रावधान हर साल किया जाता है लेकिन इस बजट का 60 फीसदी पैसा सिर्फ अधिकारियों और खेलनहारों की आरामतलबी पर खर्च हो जाता है। भारत में क्रिकेट ही एक ऐसा खेल है जिसे सरकारी मदद नहीं मिलती लेकिन भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड आज दुनिया का सबसे धनवान खेल संगठन है। सच कहें तो यह संगठन चाहे तो खेलों में भारत की तस्वीर बदल सकता है लेकिन हमारे खेलनहार ऐसा कभी नहीं चाहेंगे। भारत के सारे के सारे खेल संगठनों पर सफेदपोशों और अनाड़ियों का कब्जा है। खेल-खिलाड़ी भाड़ में जाएं इन्हें सिर्फ कुर्सी और सरकारी खजाने से इश्क है। 
आजादी के बाद से राष्ट्रीय खेल हॉकी जहां काफी पीछे छूट गया वहीं भारतीय सरजमीं से फुटबॉल गुम सा हो गया है। फुटबॉल के अलावा एथलेटिक्स, जिम्नास्टिक, तैराकी आदि में भी भारत का नाम कहीं भी शीर्ष पर नहीं आता। भारतीयों की फुटबॉल देखने में रुचि तो है लेकिन हमारे खिलाड़ी ओलम्पिक तो क्या एशियाई स्तर पर भी कुछ खास नहीं हैं। भारत क्रिकेट के बाद निशानेबाजी, कुश्ती, बैडमिंटन, मुक्केबाजी तथा कबड्डी में कुछ हद तक मजबूत है। हॉकी में भारत ने 1980 में मास्को ओलम्पिक में आखिरी बार मेडल जीता था। कर्णम मल्लेश्वरी, मैरीकाम, साइना नेहवाल, पी.वी. सिंधु, साक्षी मलिक, अभिनव बिंद्रा, राज्यवर्धन सिंह राठौर,  सुशील कुमार जैसे कुछ ऐसे नाम हैं जिनके नाम का यदा-कदा भारतीयों ने जयकारा लगाया है। जानकर हैरानी होती है कि एथलेटिक्स में सबसे अधिक पैसा खर्च करने के बाद भी आज तक कोई भारतीय ओलम्पिक में पोडियम तक नहीं पहुंचा है। एथलेटिक्स महासंघ के आलाधिकारियों का रौब और आलम यह है कि इनसे कोई एथलीट सहजता से नहीं मिल सकता।  
भारत में खेलों की इस दुर्दशा का मुख्य कारण राजनीतिज्ञों, दलालों और नौकरशाहों की दखलंदाजी है। इन लोगों की दखलंदाजी से खिलाड़ियों के चयन में भी काफी धांधलेबाजी होती है। जो खिलाड़ी आर्थिक रूप से मजबूत हैं या चयनकर्ताओं तथा रसूकदार लोगों के रिश्तेदार हैं उन्हें आगे बढ़ने का मौका सहजता से मिल जाता है जबकि लाखों प्रतिभावान खिलाड़ी जो आर्थिक रूप से मजबूत नहीं हैं वे देश का प्रतिनिधित्व करने से वंचित रह जाते हैं। अगर भारत में खेलों का स्तर बढ़ाना है तो खेलों से राजनीति को दूर करना होगा। खेलों के प्रमुख पदों पर ऐसे ईमानदार लोगों को जगह देनी होगी जिनमें खिलाड़ियों की पीड़ा दूर करने की इच्छाशक्ति तथा खेल की समझ हो। 
देखा जाए तो दुनिया के बाकी देशों में बच्चों को छोटी उम्र से ही खेलों की ट्रेनिंग दी जाती है वहां अभिभावक नहीं खेल विशेषज्ञ तय करते हैं कि कौन सा खिलाड़ी किस खेल के लिए उपयुक्त है। हमें भी  ऐसा ही कुछ करना होगा। बच्चों को अगर शुरूआती उम्र से ही बढ़िया ट्रेनिंग दी जाये तो वे आगे चलकर काफी बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। खेलों में टेक्नोलॉजी काफी आगे बढ़ गई है लेकिन इनका प्रयोग क्रिकेट, टेनिस जैसे बड़े-बड़े खेलों में ही किया जाता है बाकी खेलों में भी खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों को पर्याप्त टेक्नोलॉजी उपलब्ध कराई जानी चाहिए ताकि खिलाड़ियों को बेहतर ट्रेनिंग मिल सके। 
सरकार देश में खेलों के लिए नए टैलेंट और सुविधाओं के लिए स्पोर्ट्स बजट देती है लेकिन भ्रष्टाचार और धांधलियों के चलते स्पोर्ट्स बजट का दुरुपयोग होता है जिससे प्रतिभावान खिलाड़ी उभरकर नहीं आ पाते। स्पोर्ट्स बजट का सही उपयोग भी बेहद जरूरी है। खेलों में यदि सुधार करना है तो सबसे पहले नपुंसक खेल-तंत्र को पारदर्शी बनाना होगा। सवाल यह उठता है कि आखिर जब सबके सब चोर-चोर मौसेरे भाई हैं तो आखिर बिल्ली के गले में घण्टी बांधेगा कौन? 

 

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