खिलाड़ी शक्तिवर्द्धक दवाओं से बचें

स्कूल-कालेजों तक पहुंचे डोपिंग के तार

श्रीप्रकाश शुक्ला
हर कोई सफलता का शार्टकट ढूंढ़ने में माहिर होता जा रहा है। अभी तक नामचीन खिलाड़ी ही शक्तिवर्द्धक दवाओं के बूते खेलों में सफलता हासिल करने की कोशिश करते रहे हैं पर यह खोट अब छोटे खिलाड़ियों को भी अपनी जद में लेने लगी है। वैसे तो हर खिलाड़ी का सपना होता है कि वह शिखर चूमे। कोई मेहनत के बूते कामयाबी हासिल करता है तो कोई गलत तरीके से। जो भी युवा मैदान में पसीना बहाता है, उसे एक आस होती है कि उसकी मेहनत एक दिन उसे उस खेल में सर्वोच्च स्थान पर पहुंचा देगी। जीत की यही लगन उसे पूरी मेहनत करने पर मजबूर करती है। लेकिन इस सफलता के लिए कुछ लोग आसान रास्ते भी तलाशने लगे हैं। खिलाड़ियों की इसी सोच ने उन्हें नशीले पदार्थों की ओर धकेल दिया है।

विश्व स्तर से लेकर पंचायत स्तर तक के खेल मुकाबलों में शक्तिवर्द्धक व नशीले पदार्थों का सेवन आम हो गया है। इस मामले में नामचीन खिलाड़ियों के साथ अब स्कूल-कॉलेज स्तर के एथलीट व खिलाड़ी भी पकड़े जा रहे हैं। भारतीय भारोत्तोलकों के तो इस प्रकार के कई मामले सामने आए हैं। शक्तिवर्द्धक दवाओं की शुरूआत 1960 या 1970 के दशक से भी पहले हो चुकी थी। देश के एक प्रमुख शॉटपुटर ने 1970 के दशक में बताया था कि विदेशी खिलाड़ी दवाओं का सेवन करने के कारण ही हम से आगे रहते हैं। उस समय इस आरोप पर विश्वास करना जरा कठिन था, लेकिन कालान्तर में यह बात साफ हो गई कि यूरोप, अमेरिका और अफ्रीकी उप महाद्वीपों के खिलाड़ी इस प्रकार की दवाओं का सेवन करते रहते हैं। भारतीय खिलाड़ी भी इससे अछूते नहीं रहे।

यदि भारतीय धावकों या थ्रो करने वालों के बारे में देखें तो साफ हो जाता है कि जो प्रदर्शन वे घरेलू प्रतियोगिताओं या ओलम्पिक और विश्व प्रतियोगिताओं के लिए आयोजित क्वालीफाइंग मुकाबलों में करते हैं, उसे वे कभी नहीं दोहरा पाते। ओलम्पिक या किसी भी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में खराब प्रदर्शन के बाद भी जब ये खिलाड़ी वापस आते हैं तो कहीं यह सवाल नहीं उठाया जाता कि प्रदर्शन में गिरावट का कारण क्या है। इसका परिणाम यह होता है कि खिलाड़ी दवाएं वगैरह लेकर न केवल राष्ट्रीय दल का हिस्सा बन जाता है बल्कि इसी चयन के भरोसे वह अच्छी नौकरी व अर्जुन पुरस्कार जैसा ईनाम भी अपनी झोली में डाल लेता है, फिर उम्र भर उसे कुछ और करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
चिन्ता की बात यह है कि दवाओं का प्रचलन स्कूलों और कॉलेजों में होने वाले खेल मुकाबलों में भी दिखना शुरू हो गया है। ऐसा नहीं है कि इसकी जानकारी स्कूल या कॉलेज के शिक्षकों या संबंधित अधिकारियों को नहीं होती लेकिन वे भी अपनी संस्थानों के लिए पदक जीतने के लिए उन्हें नहीं रोकते। वे यह नहीं देखते कि इन दवाओं का युवाओं के शरीर पर कितना विपरीत प्रभाव पड़ता है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ कई खिलाड़ी तो नशे के आदी हो जाते हैं और कई जानलेवा बीमारियों के शिकार भी बन जाते हैं।
हमारे गांवों में पारंपरिक तौर पर अफीम या भुक्की के नशे का सेवन होता रहा है। लोगों से ज्यादा से ज्यादा काम कराने के लिए उन्हें नशे के चक्कर में डाल देते हैं। ये नशे गांवों में बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। ग्रामीण खेलों में भाग लेने वाले खिलाड़ी अक्सर इनका उपयोग करते रहते हैं। इसी वजह से स्कूल और कॉलेज या विश्वविद्यालय स्तर के मुकाबलों में इनका प्रचलन जारी है। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के मुकाबलों में तो फिर भी अब पकड़े जाने का भय है लेकिन अंतर स्कूल या अंतर कॉलेज मुकाबलों में तो पकड़ने वाला भी नहीं है। जिस स्थान पर इन टीमों को ठहराया गया होता है उसके आसपास या कूड़ा-करकट के ढेर में से दवाओं के रैपर, इस्तेमाल की गई सीरिंजें मिल जाती हैं। कई बार अखबारों में इसके बारे में छपता भी रहता है । यह मामला निजी स्कूलों में ज्यादा देखा गया है क्योंकि वे लोग संस्थान का नाम चमकाने के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाते हैं।
बच्चों को इन नशों से बचाने के लिए उन खेल प्रतियोगिताओं पर पैनी नजर रखी जाए जिनमें बच्चे भाग लेते हैं। जरूरत पड़ने पर उनके डोप टेस्ट किए जाएं और यदि दवा लेना साबित होता है तो न सिर्फ खिलाड़ियों पर बल्कि पूरे स्कूल प्रशासन पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। यह काम थोड़ा कठिन जरूर है पर नामुमकिन नहीं है। सरकार चाहे तो सब सही हो सकता है। शक्तिवर्द्धक दवाओं का प्रचलन बंद न हुआ तो सच मानिए देश की युवा पीढ़ी बर्बाद हो जाएगी।

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