शतरंज की बिसात पर हम्पी का राज
बदलते वक्त में बाजार की सूचना माध्यमों में दखल देखिए कि क्रिकेट के अलावा किसी अन्य खेल को अपेक्षित तरजीह मिलती ही नहीं। अपना परिवार संवारने के लिये दो साल के अंतराल के बाद मोहरों के खेल खेलने निकली भारतीय ग्रैंडमास्टर कोनेरू हम्पी विश्व रैपिड शतरंज चैंपियनशिप जीतने वाली पहली भारतीय महिला बन गई हैं। उसकी इस बड़ी उपलब्धि का जिक्र चंद अखबारों के खेल पन्नों में सामान्य खबरों के साथ जरूर हुआ, मगर जो श्रेय इस उपलब्धि के लिये उसे दिया जाना चाहिए था, वो हमने नहीं दिया। खैर, हम्पी जैसी प्रतिभाएं इन चीजों से ऊपर निकल चुकी हैं और निरंतर अपना खेल संवारने में जुटी रहती हैं।
बीते साल के अंतिम दिनों में कोनेरू हम्पी ने मास्को में आयोजित महिला विश्व रैपिड शतरंज चैंपियनशिप में चीन की लेई टिंगजी के खिलाफ गेम को ड्रा कराने के बाद खिताब अपने नाम किया। हम्पी ने इस प्रतियोगिता में पहला गेम गंवाने के बाद शानदार वापसी की। इसके बाद निर्णायक मैच में खिताब हासिल किया। दरअसल, मां बनने के बाद साल 2016 से 2018 तक ब्रेक लेने वाली हम्पी की वैश्विक शतरंज स्पर्धाओं में यह शानदार वापसी थी। इस अप्रत्याशित कामयाबी को लेकर हम्पी भी आश्वस्त नहीं थी। मगर जहां चाह हो वहां राह निकल ही आती है। उल्लेखनीय है कि भारत के ही शतरंज स्टार विश्वनाथन आनंद ने वर्ष 2003 और 2017 के ओपन वर्ग में यह खिताब जीता था। इसी क्रम में हम्पी मौजूदा प्रारूप रैपिड में स्वर्ण पदक जीतने वाली दूसरी भारतीय खिलाड़ी हैं।
दरअसल, वर्ष 2016 में जब देश की इस सबसे युवा महिला ग्रैंडमास्टर ने शतरंज के खेल को विराम देने का फैसला लिया तो शतरंज प्रेमी बेहद निराश थे। जब वह दो साल के ब्रेक के बाद वापस लौटी तो तब भी खेल प्रेमी उनके खेल को लेकर आशंकित थे। चिंता थी कि शायद वह पहला जैसा प्रदर्शन न दोहरा सके। लेकिन प्रतिभा व एकाग्रता की धनी हम्पी ने सफलता की चौंकाने वाली इबारत लिख डाली।
नि:संदेह आज शतरंज के खेल में महिला खिलाड़ी भी नित नई सफलता की इबारत लिख रही हैं। हम्पी नई सफलता से विश्व की चोटी की खिलाड़ियों में अपना दर्जा हासिल कर चुकी हैं। इससे पहले बीते दिसंबर में वह फीडे महिला शतरंज ग्रां प्री सीरीज जीतकर अपने दमखम का इजहार कर चुकी थी। मूलत: हम्पी को क्लासिक शतरंज का माहिर माना जाता है। पिछले दशकों में देश में शतरंज के खिलाड़ियों का उफान आया है, जिसका श्रेय छह बार क्लासिक शतरंज का विश्व खिताब जीतने वाले विश्वनाथन आनंद को जाता है। वर्ष 1988 में आनन्द देश के पहले ग्रैंडमास्टर बने। आज देश में करीब 59 ग्रैंडमास्टर हैं। इस गौरवशाली बयार पर हम गर्व कर सकते हैं।
हम्पी ने ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ कहावत को हकीकत में बदला है। उसका जन्म 31 मार्च, 1987 को हुआ। सिर्फ नौ वर्ष की उम्र में हम्पी ने राष्ट्रीय शतरंज चैंपियनशिप जीतकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया था। उसने यह कारनामा मुंबई में हुई चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीतकर किया। हम्पी की प्रारंभिक शिक्षा चलपथी रेजीडेंशियल स्कूल में हुई। पिता कोनेरू अशोक व माता का नाम कोनेरू लता है। पिता भी शतरंज के खिलाड़ी रहे हैं और दो बार राज्य स्तरीय स्पर्धाएं जीते भी हैं। उन्होंने बेटी का नाम हम्पी इसलिये रखा कि किसी रूसी भाषा में इसका अर्थ चैंपियन होता है। सही मायनो में हम्पी ने अपने नाम को सार्थक भी किया। पिता का सपना था कि बेटी बड़ी होकर विश्व चैंपियन बने। सही मायनो में हम्पी उनके विश्वास पर खरी उतरी। उसने विश्व चैंपियनशिप के अलावा एशियाड, कॉमनवेल्थ गेम्स तथा तमाम अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक जीते हैं।
हर मां-बाप चाहता है कि उनका बच्चा नाम कमाये। मगर उसके लिये त्याग कम ही लोग करते हैं। अशोक व लता ने इसके लिये बड़ी कीमत चुकाई। एक मध्यवर्गीय परिवार ने जब घर में टीवी के बजाय बेटी के खेल में निखार लाने के लिये कंप्यूटर खरीदा तो लोगों ने मजाक बनाया। अब मजाक बनाने वाले शर्मिंदा हैं। अशोक ने पांच वर्ष की उम्र में हम्पी की शतरंज प्रतिभा को पहचान लिया था। लेकिन उसे कोई प्रायोजक नहीं मिला। हम्पी ने ओएनजीसी में नौकरी की ताकि उसे विदेश यात्राओं के लिये प्रायोजक मिल सके। यहां तक कि इस महंगे खेल में बेटी को स्थापित करने के लिये पिता अशोक ने अपनी नौकरी तक छोड़ दी। वे रसायन विज्ञान के अध्यापक थे।
विडंबना देखिये कि हम्पी को कोई अंतरराष्ट्रीय स्तर का कोच तक नहीं मिला। फिर पिता अशोक ही उसके कोच बने और विश्वस्तरीय खिताब दिलाने में सफलता हासिल की। उनकी मेहनत, लगन और समर्पण से हासिल हम्पी की सफलता को देखते हुए आंध्र सरकार ने उन्हें राज्य कोच का दर्जा दिया। उन्हें पांच लाख का इनाम भी दिया। हम्पी की उपलब्धियों के लिये देश ने उन्हें अर्जुन पुरस्कार और पद्मश्री से भी सम्मानित किया। निश्चय ही हम्पी की कामयाबी नई पीढ़ी के लिये प्रेरणास्रोत ही है।