होशंगाबाद की होनहार तैराकों का भविष्य गरीबी के कारण अंधकार में
नई दिल्ली: भारत का कोई भी खिलाड़ी जब ओलम्पिक में पदक जीतता है तब हम सब गर्व महसूस करते हैं. पदक जीतने के बाद उन पर पुरस्कारों की झड़ी लग जाती है. सरकार से लेकर कॉर्पोरेट तक सब इतना पैसा देते हैं कि ऐसा लगता है जैसे सिर्फ श्रेय लेने की कोशिश की जा रही है और यह दिखाया जाता है कि देखिए, हम सब आपके लिए कितने सोचते है. लेकिन देश के अंदर कई ऐसे प्रतिभाशाली खिलाड़ी हैं जो पदक जीतने की ताकत तो ज़रूर रखते हैं, लेकिन गरीबी की वजह से उन्हें सही प्रशिक्षण नहीं मिल पाता है. इस वजह से उनका एक अच्छा खिलाड़ी बनकर पदक जीतने का सपना सिर्फ सपना बनकर रह जाता है. चलिए आज आपको कुछ ऐसे तैराकों के बारे में बताते हैं जो अपने देश के लिए पदक जीतकर गौरव हासिल करना तो चाहते हैं, लेकिन गरीबी की वजह से उनका सपना पूरा होता हुआ नहीं दिख रहा है...
हीरा ,ज्योति,और दीक्षा, ये तीनों बहन, अच्छी खिलाड़ी बनकर देश के लिए पदक जीतने का सपना देख रही हैं. इन तीनों के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते होंगे. कैसे भी जानेंगे, क्योंकि इन बहनों ने कभी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक नहीं जीते हैं, लेकिन आपको बता दें कि इन तीनों बहनों ने कुल मिलाकर 50 से भी ज्यादा पदक जीते हैं. हां ये ज़रूर है कि यह अंतरराष्ट्रीय पदक नहीं हैं, लेकिन फिर भी यह पदक तय करते हैं कि तीनों प्रतिभावान खिलाड़ी हैं.
मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले की एक छोटी सी जगह पर रहने वाली हीरा ,ज्योति और दीक्षा ने बचपन में कभी तैराक बनने का सपना तो नहीं देखा था, लेकिन किस्मत ने उन्हें तैराक बना दिया. गरीबी की वजह से यह बहनें होशंगाबाद की नर्मदा नदी के सेठानी घाट में डुबकी लगाते हुए नारियल निकालती थीं और उससे बेचते हुए अपने परिवार की मदद करती थीं, इनकी प्रतिभा को देखते हुए उमाशंकर नाम के एक तैराकी कोच ने उनके परिवार से बात की ताकि उन्हें प्रशिक्षण दिया जाए और प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए अलग-अलग जगह ले जाया जाए. उमाशंकर कहते हैं 'यह तीनों बहनें नेचुरल तैराक हैं. अगर उन्हें सही प्रशिक्षण दिया जाए तो ये बहुत अच्छा कर सकतीं हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक भी जीत सकती हैं.
तीनों बहनों ने राज्य में हुई कई प्रतियोगिताओं में भाग लेते हुए पदक भी जीते. ज्योति और हीरा राष्ट्रीय स्तर पर खेल में भाग भी ले चुकी हैं, लेकिन पदक नहीं जीत पाईं. उमा शंकर कहते हैं कि पदक न जीत पाने के पीछे सबसे बड़ी वजह है सही प्रशिक्षण की कमी. होशंगाबाद में प्रशिक्षण के लिए कोई अच्छी सुविधा नहीं है और गरीबी की वजह से ये बहनें कहीं बाहर जाकर प्रशिक्षण नहीं ले सकती हैं. हीरा ने बताया कि 'वह लोग काफी गरीब हैं, अपना घर नहीं है, किराए पर रहते हैं. कमाई का स्रोत सिर्फ एक नारियल की दुकान है. रोज सिर्फ 250 रुपये के करीब कमाई हो जाती है और इतने पैसे से पूरे परिवार का भरण-पोषण होता है'. हीरा का कहना है 'उसके पापा बीमार हैं, जिसके चलते वह अब कोई काम नहीं कर पाते हैं'. वह पहले राजमिस्त्री का काम करते थे.
हीरा कहती हैं कि उसका और उसकी बहनों का सपना है ओलम्पिक में पदक जीतना. जब तीनों बहनों ने सिंधु और साक्षी को ओलम्पिक में पदक जीतते हुए देखा तो वह काफी खुश हुईं. वह खुद चाहती हैं कि पदक जीतकर देश का नाम रोशन करें, लेकिन शायद ऐसा हो पाए. हीरा का कहना है उसकी मां ने अपने सभी बच्चों को पढ़ाया. कमाई न होने के बावजूद भी हीरा, उसकी बहनें और भाई पढ़ाई कर रहे हैं. हीरा की सबसे बड़ी बहन सुषमा बीकॉम फाइनल ईयर की छात्रा हैं, जबकि ज्योति आजकल भोपाल में कहीं काम करती हैं और महीने में छह हज़ार रुपये कमा लेती हैं. अपनी पढ़ाई के साथ-साथ तैराकी की प्रैक्टिस भी कर रही हैं. हीरा खुद 12वीं की छात्रा हैं. दीक्षा 10वीं क्लास में पढ़ती हैं. दो भाई महेंद्र और लकी भी पढ़ाई कर रहे हैं.
होशंगाबाद में एक स्वीमिंग पूल जरूर है, लेकिन वह इनके घर से काफी दूर है. वहां तक पहुंचने के लिए कोई साधन भी नहीं है. हीरा कहती हैं कि उनके घर में सिर्फ एक साइकिल है जो उसका भाई इस्तेमाल करता है. दूसरी साइकिल भी नहीं है कि वह और उसकी बहनें अभ्यास के लिए कहीं जा सकें. हीरा के घर में जो साइकिल है वह किसी प्रतियोगिता में फर्स्ट प्राइज़ के रूप में जीती गई थी. घर से करीब 10 किलोमीटर दूर रोज पैदल जाना और अभ्यास करना मुश्किल है. हीरा का कहना है नवंबर में उसे प्रतियोगिता में भाग लेना है, लेकिन अभी तक अभ्यास नहीं शुरू कर पाई है.
दलित होने के बावजूद भी इनके पास कास्ट सर्टिफिकेट नहीं है और इसके न होने की सबसे बड़ी वजह है इनका अपना रेजिडेंस का प्रमाण पत्र. अपना घर न होने के वजह से इन्हें सर्टिफिकेट बनाने की दिक्कत हो रही है. हीरा का कहना है अगर SC सर्टिफ़िकेट होता तो शायद उन्हें छात्रवृत्ति भी मिल जाती. हीरा के घर पर ज्यादा सामान तो नहीं है, लेकिन एक छोटी सा रंगीन टीवी है, जिसके जरिए वह देश-दुनिया के बारे में जानती हैं. इसी टीवी के जरिए वह पीवी सिंधु और साक्षी मलिक के बारे में भी जान पाईं.
होशंगाबाद की ही रहने वाली एक और तैराक की बात करते हैं. आरती भी एक अच्छी तैराक ज़रूर हैं, लेकिन गरीबी की वजह से उसका सपना चकनाचूर हो रहा है. आरती के परिवार में सिर्फ वह और उसकी मां है. कुछ दिन पहले आरती के पापा का देहांत हुआ है और कुछ साल पहले उसके भाई की पोलियो की वजह से मौत हो गई थी. आरती भी सेठानी घाट में तैराकी करती थी.
आरती ने कहा कि उसकी मां ने काफी मेहनत करके उसे आगे बढ़ाया है. आरती की मां पहले भोजनालय में रोटी बनाती थीं और रोज करीब 25 किलो आटे की रोटियां बनाना मुश्किल हो रहा था. कई बार वह बीमार पड़ जाती थीं. अब रोटी बनाने का काम नहीं करती हैं, अब वह अपनी एक दुकान चलाती हैं.
आरती राष्ट्रीय स्तर पर मेडल भी जीत चुकी हैं, लेकिन उसका सपना पूरा नहीं हो पाया है. आरती का कहना है कि वह देश के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतना चाहती हैं, लेकिन उसका सपना पूरा हो पाएगा या नहीं, वह नहीं जानती. आजकल आरती भोपाल में कहीं कॉन्ट्रैक्ट वर्कर के रूप में काम रही हैं. महीने में 7,500 रुपये कमा लेती हैं. साथ-साथ अपना पढ़ाई भी कर रही हैं और तैराकी की प्रैक्टिस भी. राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने के बाद आरती को राज्य सरकार के तरफ 1,20,000 रुपये जरूर मिले थे, लेकिन आरती चाहती हैं कि उसे अच्छी ट्रेनिंग दी जाए और आगे जाकर वह देश के लिए पदक जीत सकें.
यह सिर्फ आरती, ज्योति, हीरा और दीक्षा की कहानी नहीं. देश में ऐसे कई खिलाड़ी हैं, जिनका सपना गरीबी के वजह से टूट रहा है. टैलेंट होने के बाबजूद भी वह आगे नहीं बढ़ पाते हैं. उन्हें सही ट्रेनिंग नहीं मिल पाती है. अगर उन्हें सही ट्रेनिंग दी जाए तो वह आगे जाकर देश के लिए पदक जीत सकते हैं. अपना सपना साकार कर सकते हैं, लेकिन हम सब पदक जीतने वालों की कद्र करते है, जीतने की काबिलियत रखने वालों की नहीं.