ब्रज में हर पल झरता है प्रेमरस

ब्रज में कुछ भी बनावटी नहीं

श्रीप्रकाश शुक्ला

मथुरा। ब्रज में मेघ धोखा दे सकते हैं, पर लाख अकाल के बाद भी यहां हर दिन-हर पल प्रेमरस झरता है। ब्रज की यही खूबी देश-दुनिया को अपनी ओर बरबस आकर्षित करती है। कान्हा की नगरी में जो एक बार आता है यहां बार-बार आने की जिज्ञासा नहीं त्याग पाता। ब्रज की धरा और यहां के लोग कुछ ऐसे हैं जिनसे ताउम्र जुड़े रहने का मन करता है। ब्रज की पवित्र माटी के प्रति लगाव कुछ पल की बात नहीं होती, यही वजह है कि यहां साल भर श्रीराधारानी और श्रीकृष्ण भक्तों का तांता लगा रहता है। आषाढ़, सावन, भादों और क्वार मास की तो कहना ही क्या? ब्रज में कुछ भी बनावटी नहीं है, जो जैसा था वह आज भी वैसा का वैसा ही है।

मथुरा-वृन्दावन की विशेषता को शिखर तक ले जाने के लिए सरकार और स्वैच्छिक संगठन प्रयासरत तो हैं लेकिन विकास की गति बिल्कुल मंद है। कई पुरातात्विक अवशेष अपना अस्तित्व खो रहे हैं तो कुछ विकासोन्मुख शिलापट्टिकाएं लचर व्यवस्था की चुगली कर रही हैं। वृन्दावन से तीन किलोमीटर और यमुना एक्सप्रेस-वे से कोई एक किलोमीटर दूर खादर में स्थापित राधारानी का मंदिर दूर-दूर से आते कृष्ण भक्तों के लिए कौतूहल का विषय है। जनश्रुतियों पर यकीन करें तो कृष्ण वियोग में यहीं पर राधाजी इतना रोई थीं कि एक सरोवर बन गया था। आज यह मानसरोवर के नाम से जाना जाता है।

विश्वास धर्म का आधार है, यही वजह है कि सूरदास के कृष्ण आज भी जन-जन के आराध्य हैं। रामायण और महाभारत, दोनों ही महाकाव्य ग्रंथ अपने-अपने युग की संस्कृतियों के परिचायक हैं। द्वापर और त्रेता युग में दो प्रकार की संस्कृतियां विद्यमान थीं। एक, आर्य संस्कृति और दूसरी, अनार्य संस्कृति। रामायण के श्रीराम आर्य संस्कृति के पोषक तो रावण अनार्य संस्कृति का पालक था। इसी प्रकार महाभारत के श्रीकृष्ण आर्य मर्यादाओं के प्रतिष्ठापक हैं जबकि कंस और दुर्योधन के कार्य अनार्य प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने वाले रहे। रामायण पूर्ण आदर्शवादी व्यवस्था की सृष्टि करती है जबकि महाभारत में घोर यथार्थ के रूप का दर्शन होता है।

प्रकृति और समय, दोनों परिवर्तनशील हैं। ब्रज पर नजर डालें तो प्रकृति मानव के निरंतर दोहन से वैसी नहीं रही पर लोगों की मनोदशा आज भी वैसी ही है। ब्रज प्रेम और भक्ति का अद्भुत संगम है। लोकमानस में कृष्ण भक्ति और उनकी लीलाएं आज भी अमिट हैं। गोपाल कृष्ण सिर्फ ब्रज ही नहीं बल्कि देश-दुनिया की प्राणवायु हैं। ब्रज के कुंज-निकुंज, गली-चौराहे, ग्वाल-बाल, गाय-बछड़े, गोप-गोपियां, यमुना तट और पशु-पक्षी ही नहीं यहां के कण-कण तथा हर मन में आज भी राधा-कृष्ण के प्रति अगाध स्नेह और प्रेमाभाव हिलोरे मारता है।

ब्रज में मुर्गा बांग नहीं देता बल्कि वृन्दावन के आसपास स्थित गांवों की अट्टालिकाओं पर नाचते मोर और उनकी पीयू-पीयू की आवाज लोगों को भोर होने की आहट देती है। मोर समृद्धि का सूचक है। यहां का जनमानस आर्थिक तंगहाली के बावजूद मन से अमीर है। दरअसल, ब्रजवासियों के दिल में राधा-कृष्ण के सिवाय किसी अन्य के लिए जगह ही नहीं है। भगवान कृष्ण और गोपियों के बीच का प्रेमालाप आज भी ब्रज की चौपालों की चर्चा का विषय होता है। लोग ब्रज में जन्म लेने को अपना सौभाग्य मानते हैं। सदियां बीतने के बाद भी लोग अपने रीति-रिवाजों पर अटल हैं। ब्रजवासी जो कहते हैं वही करते हैं।

राधे-राधे, कृष्ण मिला दे...

ब्रजभूमि में राधे-राधे, कृष्ण मिला दे के सुर हमेशा सुनाई देते हैं। वृन्दावन से कोई ढाई किलोमीटर दूर पिपरौली गांव के सन्निकट खादर में स्थित राधारानी का मंदिर और मानसरोवर लोगों के कौतुक का विषय है। अलिया नगला के लोगों का कहना है कि महारास के बाद गोपियों के अहंकार को चूर करने के लिए अदृश्य हुए कृष्ण को खोजते-खोजते राधारानी यहीं आई थीं। कृष्ण वियोग में उनका बुरा हाल था। लोगों के लाख समझाने के बावजूद उनके आंसू रोके नहीं रुके। राधा के आंसुओं से ही मानसरोवर की उत्पत्ति हुई।

जनश्रुतियों पर यकीन करें तो यहां स्थित राधारानी की मूर्ति ही असली है। बताते हैं कि बाद में राधा को मनाने को यहां कृष्णजी भी आए। यहां स्थित एक अन्य मंदिर में प्रतिष्ठापित राधा-कृष्ण की मूर्ति वाकई विलक्षण है। इस मूर्ति में कृष्ण राधाजी के पैर पकड़कर मना रहे हैं। वैसे तो राधारानी के दर्शन को लोग यहां रोज जाते हैं लेकिन पूर्णमासी का विशेष महात्म्य है। राधा-कृष्ण के इस मंदिर के पट पूर्णमासी को ही खुलते हैं और यहां मेला भरता है। मानसरोवर में लोग स्नान कर पुण्य लाभ कमाते हैं।

उत्तर प्रदेश पर्यटन निगम ने किए कुछ विकास कार्य

राधारानी के इस मंदिर और आसपास के क्षेत्र के विकास का जिम्मा उत्तर प्रदेश पर्यटन निगम ने अपने हाथ ले लिया है। अब मानसरोवर जहां पक्के तालाब की शक्ल ले चुका है वहीं विभाग ने स्नान करने वालों के लिए चेंजिंग रूम भी बना दिया है। यह मंदिर अब दूर-दूर से आते कृष्ण भक्तों के लिए खास हो गया है।

विविधता में एकता का संदेश देता ब्रज

आदिकाल से ही भारतीय संस्कृति में त्योहारों और उत्सवों का महत्व रहा है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यहां मनाये जाने वाले त्योहार ही हैं जोकि समाज में मानवीय गुणों को स्थापित कर लोगों में प्रेम, एकता एवं सद्भावना का संदेश देते हैं। भारत में त्योहारों एवं उत्सवों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है। त्योहारों से ही मानवीय गरिमा को सम्बल मिलता है। होली भारतीय समाज का एक प्रमुख त्योहार है जिसमें हर कोई रंग-उमंग में खो जाता है। होली विविधता में एकता का संदेश देती है।

होली भारत के सबसे पुराने त्योहारों में शुमार है। होली की हर कथा में एक समानता है। होली आनंदोल्लास तथा भाईचारे का त्योहार है। यह लोकपर्व होने के साथ ही अच्छाई की बुराई पर जीत, सदाचार की दुराचार पर जीत और समाज में व्याप्त समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यही वजह है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता व दुश्मनी को भूलकर एक-दूसरे से गले मिल फिर से दोस्त बन जाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत ऋतु का संदेशवाहक भी है। ब्रज में वसंत ऋतु से ही होलिकोत्सव शुरू हो जाता है, जोकि लगभग दो महीने तक भाईचारे का संदेश देता है।

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